खिलजी वंश(1290-1320)
खिलजी द्वारा सत्ता स्थापित करने को क्रांति कहा जाता है। हलांकि इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद है कि खिलजी तुर्क थे या नही समकालीन इतिहासकार बरनी अपनी पुस्तक तारीखे फिरोजशाही में इन्हे तुर्क नही मानता लेकिन ऐसा माना जाता है कि तुर्कों की कुल 64 जातियों में से एक भारत आने से पूर्व यह जाति अफगानिस्तान में खिलजी नामक क्षेत्रों में रहती थी। खिलजी क्रांति इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह राज्य जातीय उच्चता या खलीफा की स्वीकृत पर आधारित नही थी, बल्कि शक्ति के बल पर आधारित थी।
जलालुद्दीन खिलजी(1290-96)
राजधानीः-किलोखरी (इस नगर का निर्माण कैकुबाद ने करवाया था)
अपने राज्याभिषेक के एक वर्ष बाद ही इसने दिल्ली में प्रवेश किया इसके काल की प्रमुख उपलब्धियां निम्नलिखित हैं।
- जलालुद्दीन खिलजी 70 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। वह दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था जिसने स्वीकार किया कि राज्य का आधार उसकी प्रजा का समर्थन है। युद्धों के बारे में उसकी राय थी ’’उसे मुसलमानों का रक्त बहाने की आदत नही है’’
- इसने एक नये विभाग दिवाने-वकूफ का गठन किया जो व्यय के कागजात की देखभाल करने के लिए था।
- इसके समय में मंगोलों का आक्रमण अब्दुल्ला के नेतृत्व में हुआ। इसने उससे समझौता कर लिया तथा उन्हें दिल्ली में ही बसा दिया यह स्थान आज भी मंगोलपुरी के नाम से जाना जाता है। इन मंगोलों को नव मुस्लिम कहा गया।
- इसके समय में दिल्ली के एक सन्त सीदीमौला को फाँसी दे दी गई।
इसकी हत्या इसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने गंगा के तट पर कड़ामानिक में की और वह स्वयं शासक बन बैठा।
अलाउद्दीन खिलजी(1296-1316 ई0)
बचपन का नाम-अली गुर्शप
राज्याभिषेक-बलबन के लाल महल में।
अलाउद्दीन खिलजी विश्व विजयी सम्राट बनना चाहता था। परन्तु अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल अलाउलमुल्क की, सलाह पर पहले भारत विजय का निश्चय किया। इसने अपने सिक्कों पर सिंकन्दर द्वितीय एवं सिकन्दर-ए-सानी की उपाधि धारण की। राज्य में विद्रोहों के दमन के लिए उसने चार अध्यादेश जारी किये।
- दान, उपहार एवं पेंशन के रूप में दी गई भूमि को अमीरों से वापस ले लिया।
- गुप्तचर विभाग को संगठित कर वरीद के साथ एक अन्य अधिकारी मुनहियन की नियुक्ति की।
- अमीरों के अपासी मेल-जोल सार्वजनिक समारोह एवं विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
- मद्यपान भांग खाने एवं जुआ खेलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
राजस्व सिद्धान्त:-बलन की तरह ही अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धान्त भी प्रतिष्ठा शक्ति और न्याय पर आधारित था। अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन के लिए विश्व का सुल्तान युग का विजेता, एवं जनता का चरवाह, आदि शब्द प्रयोग किये हैं। बलबन के विपरीत इसने अपने कुल की प्रतिष्ठा पर कोई ध्यान नही दिया परन्तु राज्य की प्रतिष्ठा इसने बहाल की यद्यपि यह खलीफा की शक्ति में विश्वास करता था परन्तु प्रशासन में उसके हस्तक्षेप को स्वीकार नही करता था। उसने स्वयं लिखा है कि ’’मैं ऐसे आदेश देता हूँ जो राज्य के लिए हितकर होते हैं मैं यह नहीं जानता की शरियत् में उनकी अनुमति है या नही। मुझे यह भी नही मालूम की न्याय के अन्तिम दिनों में अल्लाह मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा।’’
अलाउद्दीन की विजय:- अलाउद्दीन की विजयों को दो भागों में बांटा जा सकता है –
- उत्तर भारत की विजय
- दक्षिण भारत की विजय
1. उत्तर भारत की विजय:-इस विजय में उसके सेनानायकों उलूग खां एवं नुसरत खाँ का प्रमुख योगदान था। अलाउद्दीन ने सर्वप्रथम गुजरात की विजय की।
- गुजरात विजय (1298):-यह अलाउद्दीन की पहली विजय थी जो उसके सेना नायकों उलूगखाँ एवं नुसरत खाँ के सहयोग से हुई। यहाँ का राजा कर्ण अपनी पुत्री देवल देवी के साथ भाग कर देवगिरि के शासक रामचन्द्र के यहाँ शरण ली। उसकी पत्नी कमला देवी दिल्ली भेज दी गयी। गुजरात विजय के दौरान ही नुसरत खाँ ने मलिक काफूर को 1000 दीनार में खरीदा इसी कारण मलिक काफूर का एक नाम हजार दीनारी भी पड़ गया।
- जैसलमेर पर विजय (1299):-यहाँ का शासक द्दा था।
- रणथम्भौर पर विजय (1301 ई0):- यहाँ का शासक हम्मीर देव था। तारीखे अलाई नामक ग्रन्थ से पता चलता है कि हम्मीरदेव एवं उसके परिवार के लोगों ने जौहर कर लिया। यह जौहर का प्रथम उल्लेख है। इस प्रकार जौहर प्रथा सती प्रथा के विपरीत पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों द्वारा किया जाता था।
- चित्तौड़ की विजय (1303 ई0) शासक:- राणा रतन सिंह की रानी पद्यमिनी ने भी जौहर कर लिया। इस प्रकार मेवाण पहली बार अलाउद्दीन द्वारा जीता गया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम बदलकर ख्रिजावाद रख दिया।
- मालवा विजय (1305) शासक:- महलक देव
2. दक्षिण भारत विजय:-दक्षिण भारत की विजय उसके प्रसिद्ध सेनानायक मलिक काफूर के नेतृत्व में हुई। दक्षिण विजय का मूल उद्देश्य यहाँ से धन प्राप्त करना था। उसने दक्षिण के राज्यों को जीतने के बावजूद उन्हें अपने राज्य में नहीं मिलाया। इसीलिए अलाउद्दीन की दक्षिण विजय को धर्म विजय कहा जाता है इन विजयों का क्रम निम्नलिखित है।
देवगिरि (1298-1307-08-12):- देवगिरि में यादवों का शासन था। यहां का शासक राम चन्द्र देव था। मलिक काफूर ने 1298 ई0 में उसे पराजित किया परन्तु बाद में उससे सन्धि कर ली गई। अलाउद्दीन ने रामचन्द्र का राज्य वापस कर दिया तथा उसे राम-रायन की उपाधि दी गई। इसके अतिरिक्त उसे 100000 स्वर्ण टका तथा गुजरात में नौसारी की जागीर दी गई।
तिलंगाना विजय (1310):- यहाँ काकतीयों का शासन था। इस समय प्रताप रुद्रदेव शासन कर रहा था। उसने मलिक काफूर को कोहिनूर हीरा भेंट किया। इसकी राजधानी वारंगल थी।
कोहिनूर हीरा:- कोहिनूर हीरा सर्वप्रथम गोल कुण्डा की खानों से प्राप्त किया गया था। प्रताप रुद्रदेव ने पहली बार इसे अलाउद्दीन को भेंट में दिया। इसका दुबारा उल्लेख तब आता है जब मुगल शासक शाहजहाँ को गोलकुण्डा के प्रधानमंत्री मीर जुमला ने भेंट किया। जब भारत में 1739 ई0 में नादिर शाह (फारस) का आक्रमण होता है तब यह फारस चला गया वहीं से यह अफगानिस्तान पहुँच गया। अफगानिस्तान के शासक शाहशुजा ने इसे सिक्ख शासक रणजीतसिंह को भेंट में दिया। जब डलहौजी ने सिक्ख राज्य का विलय कर लिया तब अन्तिम सिक्ख शासक दिलीप सिंह से यह हीरा इग्लैंड की महारानी के पास पहुँच गया सम्प्रति यह इंग्लैंड में है।
होयसल
राजधानी-द्वारा समुद्र
शासक-वीर वल्लाल तृतीय
होयसल अभियान मलिक काफूर ने 1311 में सम्पन्न किया। वीर वल्लाल तृतीय ने आत्म समर्पण कर दिया। अलाउद्दीन ने इसके राज्य को वापस कर दिया।
पाण्ड्य राज्य
राजधानी -मदुरा
शासक-सुदंर पाठ्य एवं वीर पाठ्य
पाण्ड्य राज्य पर शासन के लिए दो भाइयों सुन्दर पाण्ड्य एवं वीर पाण्ड्य के बीच झगड़ा चल रहा था। काफूर ने सुन्दर पाण्ड्य का पक्ष लिया परन्तु वीर पाण्ड्य को पराजित न किया जा सका सैनिक दृष्टि से यह अभियान सफल न रहा। परन्तु धन प्राप्ति की दृष्टि से यह सर्वाधिक सफल रहा।
नोट:- यूरोपीय यात्री माॅर्को पोलो 1273 ई0 में पाण्ड्य राज्य पहुँचा था उस समय वहाँ का शासक मारवर्मन कुलशेश्वर था। उसने इस शासक की इस बात के लिए आलोचना की यह अपना सारा धन घोड़ों को खरीदने में लगा देता है। माॅर्को पोलो एक मात्र ऐसा यात्री है जिसने सबसे अधिक यात्रा की।
मंगोल आक्रमण:-अलाउद्दीन खिलजी के समय में ही सर्वाधिक मंगोल आक्रमण हुए। 1297 ई0 में कादिर के नेतृत्व में 1299 में सलदी के नेतृत्व मे। 1299 कुतलग ख्वाजा के नेतृत्व में। 1303 में तार्गी के नेतृत्व मे। 1305 में अलीबेग और तार्गी के नेतृत्व में। 1306 में इकबाल मन्द के नेतृत्व में मंगोल आक्रमण हुए। मंगोलों से लड़ने का श्रेय इसके दो सेना नायकों जफर खाँ और उलूग खाँ को जाता है।
’’प्रशासनिक सुधार’’
अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सत्तनत का पहला सुल्तान था। जिसने प्रशासनिक सुधारों की ओर विशेष ध्यान दिया उसके प्रशासनिक सुधार निम्नलिखित हैं-
1. दीवान-ए-रियासत का गठन:- यह अलाउद्दीन का आर्थिक विभाग था। बाजार नीति का कार्यान्वयन इसी के जिम्मे था।
2. दीवाने-ए-मुस्त खराज:- अधिकारियों के नाम बकाया राशि वसूल करने के लिए इस विभाग की स्थापना की गई थी।
3. गुप्तचर विभाग:-गुप्तचर व्यवस्था को पूर्ण रूप से संगठित करने वाला अलाउद्दीन खिलजी ही था।
4. सैन्य संगठन:- अलाउद्दीन दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने अपनी सेना को दशमलव पद्धति पर संगठित किया हलांकि दशमलव पद्धति पर सेना को आदर्श रूप में संगठित करने वाला सुल्तान मु0 तुगलक था।
5. डाक व्यवस्था:- अलाउद्दीन ने डाक व्यवस्था की शुरूआत की। परन्तु इसे व्यवस्थित रूप से संगठित करने का श्रेय ग्यासुद्दीन तुगलक को जाता है।
अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार
अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों से हमारा तात्पर्य है उसके भू-राजस्व सुधार एवं बाजार नियंत्रण नीति व्यवस्था।
भू-राजस्व सुधार
उसने भूमि की माप के आधार पर लगान निश्चित किया। माप की इकाई बिस्वा थी। इस प्रकार भूमि की माप के आधार पर लगान निर्धारित करने की प्रक्रिया को मशाहत कहा गया। अलाउद्दीन की यह भू-राजस्व व्यवस्था बाद में सिकंदर लोदी की भू-राजस्व व्यवस्था का आधार बनी। अलाउद्दीन ने भू-राजस्व की मात्रा (खराज) को 50%निर्धारित किया। यद्यपि अलाउद्दीन ने भू-राजस्व किसानों से निर्धारित किया लेकिन वह जमींदारों को पूर्णतयः समाप्त न कर सका।
अन्य कर:-अलाउद्दीन ने दो नये कर घरीकर (घरों पर) एवं चरीकर (दुधारू पशुओं पर) दो नये कर लगाये। उसने लूट के माल (खम्स) में राज्य का हिस्सा 80ः कर दिया। जबकि सैनिकों को केवल 20ः दिया गया।
’’बाजार नियंत्रण नीति’’
अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों में सबसे प्रमुख सुधार था उसकी बाजार नियंत्रण नीति। इसका उल्लेख बरनी ने अपनी पुस्तक तारीखे फिरोजशाही में किया है।
गद्दी पर बैठने के बाद ही अलाउद्दीन की इच्छा सम्पूर्ण भारत को जीतने की थी। इसके लिए एक बड़ी सेना की आवश्यकता थी। मोरलैण्ड ने यह अनुमान लगाया है कि यदि वह सामान्य वेतन पर भी सेना को संगठित करता तब धन मात्र पाँच वर्षों में ही समाप्त हो जाता। अतः उसने सैनिकों के वेतन को कम करने का निश्चय किया। परन्तु उन्हें किसी तरह की परेशानियों का सामना न करना पड़े इसलिए उसने उनकी आवश्यक वस्तुओं के दाम निश्चित कर दिये। इसे ही उसकी बाजार नीति नियंत्रण नीति कहा गया।
क्षेत्र:- बाजार नियंत्रण नीति के क्षेत्र को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है मोर लैण्ड के अनुसार यह केवल दिल्ली और उसके आस-पास के ही क्षेत्रों में लागू था। जबकि वी0पी0 सक्सेना का मत है कि यह पूरे भारत वर्ष में लागू था। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन ने अपनी बाजार नियंत्रण नीति को सम्पूर्ण भारत में लागू करने की कोशिश की परन्तु उसे सफलता दिल्ली और उसके आस-पास क्षेत्रों में ही मिली।
अलाउद्दीन ने बाजार नियंत्रण नीति में कुल चार बाजार स्थापित किये- गल्ला मण्डी, सराय-ए-अदल, घोड़ो दासों एवं मवेशियों का बाजार एवं सामान्य बाजार इसमें गल्ला-ए-मण्डी सबसे सफल रही।
गल्ला-ए-मण्डी अथवा गल्ला बाजार:- अलाउद्दीन ने इस बाजार को सफल बनाने के लिए किसानों से सारा अनाज दिल्ली में मंगवाया इसके लिए उसने दो तरह के व्यापारियों की नियुक्ति की प्रथम घुमक्कड़ व्यापारी एवं द्वितीय स्थायी व्यापारी। घुमक्कड़ व्यापारी किसानों का सारा अनाज निश्चित दर पर खरीद लेते थे और उसे दिल्ली में स्थित स्थाई व्यापारियों को दे देते थें इस तरह गाँव का सारा अनाज दिल्ली में आ जाता था। और इसे निश्चित कीमतों में बेंचा जाता था। अलाउद्दीन ने बाजार व्यवस्था को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित विभाग अधिकारियों की नियुक्ति की।
1. दीवान-ए-रियासत:- यह आर्थिक अधीक्षक
2. सहना-ए-मण्डी:- बाजार अधीक्षक
3. वरीद और मुनहियर:- गुप्त चर
4. नाजिर:- माप-तौल का अधिकारी
5. परवाना नवीस- परमिट का अधिकारी
6. मुहत्सिब:- सेंसर का अधिकारी या आचरण पर नजर रखने वाला अधिकारी।
इन अधिकारियों में कोतवाल शामिल नही था। क्योंकि वह नगर का प्रमुख अधिकारी होता था।
बाजार सम्बन्धी अधिनियम:- अलाउद्दीन के बाजार से सम्बन्धित आठ अधिनियम प्रमुख थे-
प्रथम अधिनियम:- यह सभी प्रकार के अनाजों का भाव निश्चित करने से सम्बन्धित था। सरकार द्वारा निश्चित प्रमुख अनाजों के प्रतिमन की दरें इस प्रकार थीं।
गेहूँ – 7.5 जीतल प्रति मन।
जौ- 4 जीतल प्रतिमान।
चावल दाले एवं चना-5 जीतल प्रति मन।
अन्य छोटे अनाज – 3 जीतल प्रतिमान।
दूसरा अधिनियम:-इस अधिनियम के द्वारा मलिक कबूल उलूग खनी को सहना-ए-मण्डी नियुक्त किया गया।
तृतीय अधिनियम:– सरकारी गोदामों में गल्ला एकत्रित करने से सम्बन्धित था।
चैथा अधिनियम:- राज्य के सभी अन्य वाहक शहना-ए मण्डी के अधीन कर दिये गये और उन्हें दिल्ली के आस-पास बसा दिया गया।
5वाँ अधिनियम:- इतिहास अर्थात जमाखोरी से सम्बन्धित था।
6ठवाँ अधिनियम:- प्रशासकीय एवं राजस्व अधिकारियों से कहा जाता था कि वे किसानों द्वारा व्यापारियों को निश्चित मूल्य पर अनाज दिलायेंगें।
7वाँ अधिनियम:- सुल्तान को प्रतिदिन मण्डी से सम्बन्धित रिपोर्ट तीन स्वतन्त्र सूत्रों से प्राप्त होती थी-शहना-ए-मण्डी, बरीद, और मुनैहियन।
8वाँ अधिनियम: सूखे का अकाल के समय अनाजों की राशनिंग से सम्बन्धित था।
सराय-ए-अदलः- इसका शाब्दिक अर्थ है न्याय का स्थान, परन्तु यह निर्मित वस्तुओं से सम्बन्धित बाजार था, इसे सरकारी अनुदान भी प्राप्त था, यहाँ 10 हजार टके के मूल्य तक की वस्तुओं बेची जा सकती थी, यहाँ बेची जाने वाली वस्तुएं में कीमती वस्त्र, मेवे, जड़ी-बुटियां, घी, चीनी इत्यादि प्रमुख थे, इस बाजार के लिए भी पाँच अधिनियम बनाये गये।
प्रथम नियम:- सराय-ए-अदल की स्थापना दिल्ली में बदाँयू गेट के पास।
दूसरा नियम:- इस अधिनियम में बरनी कुछ वस्तुओं के मूल्यों की सूची देता है। रेशमी कपड़ा 2 टका से लेकर 16 टका तक सूती कपड़ा 6 जीतल से लेकर 24 जीतल तक, मिश्री 2 1ध्2 जीतल प्रति सेर, चीनी 11ध्2 जीतल, 1 सेर देशी घी 1 जीतल में और नमक 1 जीतल में 5 सेर।
तीसरा नियमः-व्यापारियों के पंजीकरण से सम्बन्धित था। सुल्तान ने साम्राज्य के सभी व्यापारियों को आदेश दिये की वे दीवाने रियासत अथवा वाणिज्य मंत्रालय में अपना पंजीकरण करायें।
चैथा नियम:- मुल्तानी व्यापारियों से सम्बन्धित था। मुल्तानी व्यापारी कपड़े के व्यापार से सम्बन्धित थे, इन्हें सराय-ए-अदल को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया।
5वाँ नियम:– परवाना नवीस अथवा परमिट देने वाले अधिकारी की नियुक्ति की गई।
घोड़ो, दासों एवं मवेशियों का व्यापार:- इन तीनों बाजारों पर सामान्यतः चार नियम लागू थे।
(1) किस्म के आधार पर मूल्य निर्धारण।
(2) व्यापारियों एवं पूंजीपतियों के बहिष्कार।
(3) दलालों पर कठोर नियंत्रण।
(4) सुल्तान द्वारा वारन्ट निरीक्षण।
सेना के लिए घोड़ों की तीन श्रेणियाँ थी सबसे अच्छे किस्म का घोड़ा 80-40 टके के बीच में मिलता था। मध्यम किस्म का घोड़ा 80-90 टके के बीच में मिलता था। तृतीय श्रेणी का घोड़ा 65-70 टके के बीच। सामान्य कहूँ 12-20 टके के बीच। दासों के दाम उनकी गुणवत्ता पर निर्भर थे, अच्छे किस्म के दास 20-30 टके के बीच मिलते थे, जबकि दासियों 20-40 टके के बीच, सामान्य दास 7-8 टके तक मिल जाते थे मवेशियों की कीमत भी भिन्न-भिन्न थी, दूध देने वाली भैंस 10-12 टके तथा दूध देने वाली गाय 3-4 टके के बीच मिलती थी, बकरी या भेड़ 10-12 और 14 जीतल तक मिल जाती थी।
सामान्य बाजार:- बड़े बाजारों के अतिरिक्त छोटी-छोटी वस्तुओं के दाम भी निश्चित थे- जैसे-मिठाई, सब्जी, टोपी, मोजा, चप्पल, कंघी आदि।
अलाउद्दीन की बाजार नियंत्रण नीति अपने उद्देश्य में सफल रही, अलाउद्दीन खिलजी एक बड़ी सेना के द्वारा पूरे भारत को जीतना चाहता था। अपने इस उद्देश्य में वह सफल रहा, उसके समय में न तो वस्तुओं दाम बढ़े और न ही घटे। बरनी इसे मध्य युग का चमत्कार कहा है। इब्नबतूता 1333 में जब दिल्ली आया तो उसे अलाउद्दीन द्वारा रखा हुआ चावल खाने को मिला। परन्तु यदि समग्ररूप में देखा जाय तो यह व्यवस्था असफल रही, अलाउद्दीन के बाद किसी अन्य सुल्तान ने इस व्यवस्था को चालू नही रखा। गयासुद्दीन तुगलक गद्दी पर बैठते ही इस व्यवस्था को पलटकर पुरानी गल्ला बक्शी व्यवस्था को पुनः लागू किया वस्तुतः उनकी बाजार व्यवस्था आर्थिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल थी, डा0 तारा चन्द ने लिखा है कि अलाउद्दीन ने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी को ही मार डाला।
शिहाबुद्दीन उमर:- यह अलाउद्दीन की मराठा पत्नी से उत्पन्न 6 वर्षीय पुत्र था, इसका संरक्षक मलिक काफूर बना, बाद में अलाउद्दीन के पुत्र मुबारक खिलजी काफूर की हत्या कर स्वयं शासक बन बैठा।
मुबारक खिलजी (1316-20):- यह अलाउद्दीन का पुत्र था, यह दिल्ली सल्तनत का एक मात्र सुल्तान था, जिन्होंने खलीफा की सत्ता को नकार करके स्वयं को ही खलीफा कहा और-(1) अलवासिक विल्लाह (2) खलिफत-उल-लह (3) खलीफा-एक- काबुल अलीमिन (4) अमीर-उन-योमिनी।
मुबारक शाह खिलजी दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने दक्षिण भारत को प्रत्यक्ष नियन्त्रण में लाने का प्रयत्न किया तथा देवगिरि को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया, कभी-कभी यह राजदरबार में स्त्रियों का वस्त्र पहनकर आ जाता था, इसके वजीर खुसरो शाह ने इसकी हत्या कर दी।
नासिरुद्दीन खुसरो शाह (1320 ई0):- इसकी उपाधि पैगम्बर के सेनापति की थी। यह गुजरात की निम्न जाति का हिन्दू या जो मुसलमान बन गया था, इस प्रकार खुसरोशाह दिल्ली सल्तनत का एक मात्र शासक था जो मूल रूप से हिन्दू था इसके शासन को निजामुद्दीन औलिया ने भी मान्यता प्रदान की थी, इसकी हत्या इसके सेनापति गाजी मलिक ने कर दी और एक नये वंश तुगलक वंश की नींव डाली।