असहयोग आंदोलन, 1920-22
गांधीजी द्वारा असयोग आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1 अगस्त, 1920 को की गयी। असहयोग आंदोलन से सम्बन्धित कार्यक्रमों पर विचार करने के लिए सितम्बर 1920 (कलकत्ता) में कांग्रेस कार्यसमिति का अधिवेशन आयोजित किया गया। गांधीजी द्वारा इसी अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव पेश किया गया। इस प्रस्ताव का विरोध एनी बेसेंट, मदनमोहन मालवीय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपिनचंद्र पाल, देशबंधु चितरंजन दास, मोहम्मद अली जिन्ना, शंकरन नायर तथा सर नारायण चन्द्रावरकर ने किया, किंतु अली बंधुओं तथा मोतीलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। यहीं से गांधी युग की शुरुआत हुई। असहयोग प्रस्ताव सम्बन्धी प्रमुख उपबंध निम्नवत् थे-
- ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रान की गई उपाधियों एवं अवैतानिक पदों का त्याग
- विदेशी वस्तुओं का पूर्ण बहिष्कार
- सरकारी शिक्षा का विरोध अर्थात् स्कूल, काॅलेजों का बहिष्कार
- वकीलों द्वारा ब्रिटिश न्याय व्यवस्था का बहिष्कार
- सरकारी तथा अर्ध-सरकारी उत्सवों का बहिष्कार दिसम्बर 1920 के नागपुर अधिवेशन में गांधीजी ने कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेजी शासन के अंतर्गत स्वशासन के स्थान पर ’स्वराज’ को नया लक्ष्य घोषित कर दिया। उनका कहना था कि यदि आवश्यक हुआ तो इसे (स्वराज) ब्रिटिश साम्राज्य के बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है। इसी अधिवेशन में लाला लाजपत राय एवं चितरंजन दास ने असहयोग प्रस्ताव से संबंधित अपना विरोध वापस ले लिया तथा एनी बेसेंट, विपिनचन्द्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना, जी.एस. खपार्डे इत्यादि नेताओं ने कांग्रेस से असंतुष्ट होकर त्याग-पत्र दे दिया। नागपुर अधिवेशन इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वराजप्राप्ति के लक्ष्य का त्याग कर ब्रिटिशन सरकार के विरूद्ध सक्रिया विरोध करने की बात को स्वीकार किया।
आंदोलन की प्रगति एवं विस्तार
आंदोलन आरंभ करने से पूर्व ही गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई ’केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी। जमुनाला बजाज द्वारा भी ’राय बहादुर’ की उपाधि लौटा दी गयी। गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत 1 अगस्त, 1920 को की। एक दुःखद घटना के साथ आंदोलन का आरंभ हुआ, क्योंकि इसी दिन तिलक की मृत्यु हो गई।
इस आंदोलन को पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत एवं बंगाल में अीाूतपूर्व सफलता मिली। शिक्षण संस्थाओं का सर्वाधिक बहिष्कार बंगाल में किया गया। राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के आधार पर अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गयी, जैसे-काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, महाराष्ट्र विद्यापीठ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि। कलकत्ता में नेशनल काॅलेज की स्थापना भी इसी आंदोलन के दौरान की गई। इस काॅलेज के प्रधानाचार्य सुभाषचंद्र बोस बने। बहिष्कार करने वाले प्रमुख वकीलों में देशबंधु चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, सी0 राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल, वल्लभभाई पटेल तथा आसफ अली प्रमुख थे। असहयोग आंदोलन के समय कांग्रेस को कई मुस्लिम नेताओं का भी समर्थन प्राप्त हुआ, जिनमें मोहम्मद अली, डाॅ0 अंसारी, शौकत अली तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद इत्यादि प्रमुख थे।
बहिष्कार आंदोलन में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का कार्यक्रम सर्वाधिक सफल रहा। आंदोलन के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना, मोतीलाल नेहरू, सरदार पटेल, चितरंजन दास, मौलाना आजाद, राजेन्द्र प्रसाद तथा राजगोपालाचारी जेसे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। सर्वप्रथम गिरफ्तार किए गए नेता मुहम्मद अली थे। आंदोलन के दौरान नवंबर, 1921 में प्रिंस आॅफ वेल्स भारत आये, जिन्हें हर जगह विरोध का सामना करना पड़ा।
1 फरवरी 1922 को गांधीजी ने वायसराय को जिसमें यह कहा गया था कि अगर 7 दिनों के भीतर राजनीतिक बंदियों को रिहा नहीं किया गया और सरकार के नियंत्रण से प्रेस को मुक्त नहीं किया तो वे करों की नाअदायगी समेत सामूहिक रूप से बारदोली से सविनय अवज्ञ आंदोलन प्रारंभ करेंगे। किंतु, सप्ताह समाप्ति से पूर्व ही 5 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चैरी-चैरा नामक स्थान पर पुलिस ने राजनीतिक जुलूस पर गोलीबारी कर दी, प्रतिक्रियास्वरूप जनता ने पुलिस थाने पर हमला कर दिया। इस हमे में पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गयी। इतिहास में इस घटना को चैरी-चैरा काण्ड के नाम से जाना जाता है। इस घटना के पश्चात् गांधीजी को यह विश्वास हो गया कि भारत अभी व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयार नहीं है। परिणामस्वरूप, 12 फरवरी, 1922 को बारदोली में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठम में आंदोलन को स्थगित करने का निर्णय लिया गया। मार्च 1922 में गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें असंतोष फैलाने के जुर्म में न्यायाधीश ब्रूमफील्ड द्वारा 6 वर्ष के कारावास का दंड दिया गया। किंतु, 5 फरवरी, 1924 को स्वास्थ्य कारणों से उन्हें रिहा कर दिया गया।
असहयोग आंदोलन का मूल्यांकन
असहयोग आंदोलन के स्थगित होते ही खिलाफत के मुद्दे का भी अंत हो गया, जिसके फलस्वरूप देश में हिंदू-मुस्लिम एकता भंग हो गई तथा सांप्रदायिक तनाव स्थिति पैदा हो गई। केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों ने भू-सामंतों और सहकरों के विरूद्ध भयंकर विद्रोह और रक्तपात किया। असहयोग आंदोलन अपने किसी भी घोषित उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका। गांधीजी द्वारा एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त करने का वादा पूरा नहीं किया जा सका और नही ब्रिटिश सरकार द्वारा पंजाब में किए गए अन्यायों का निवारण हुआ। किंतु, इसकी दीर्घकालिक उपब्ध्यिाँ इसकी तात्कालिक हानियों से कहीं अधिक थीं। इसने कांग्रेस की शक्तियों को कहीं अधिक बढ़ा दिया था तथा यह पहले से अधिक संगठित हो गयी थी। इसने देशवासियों के भीतर स्वतन्त्रताप्राप्ति की प्रबल इच्छाशक्ति जागृत की तथा औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने के लिए जनता को प्रोत्साहित किया।
खिलाफ आंदोलन की समाप्ति
असहयोग आंदोलन के आकस्मिक स्थगन से खिलाफत आंदोलन के मुद्दे की स्वतः समाप्ति हो गयी। तुर्की में कमालपाशा के नेतृत्व में क्रांति हो गई, जिसमें खलीफा के पद को समाप्त कर दिया गया तथा तुर्की के सुल्तान को 1922 ई0 में सत्ता से वंचित कर दिया गया। इस घटना के परिणामस्वरूप खिलाफत आंदोलन ने अपनी प्रासंगिकता खो दी और इसे समाप्त कर दिया गया। स्वराज पार्टी की स्थापना असहयोग आंदोलन के स्थगन के पश्चात् कांग्रेस के राजनीतिक कार्यक्रमों में शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
कांग्रेस के सामने अगला प्रश्न यह था कि 1919 ई0 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम द्वारा घोषित विधान परिषदों के चुनावों में भागीदारी की जाए अथवा नहीं। चितरंजन दास मोतीलाल नेहरू के अनुसार विधान-परिषदों का बहिष्कार करने के स्थान पर चुनाव प्रक्रिया द्वारा उनमें प्रवेश कर असहयोग आंदोलन को चलाया जाना चाहिए। ये परिवर्तनवादी ;त्मकपबंसद्ध कहलाए। इस सुझाव का विरोध अपरिवर्तनबादी गुट द्वारा किया गया, जिनमें डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद, सी0 राजगोपालाचारी, बल्लभभाई पटेल, डाॅ0 अंसारी, आयंगर, एन.जी. रंगा इत्यादि नेता शामिल थे। इन्हीं वैचारिक द्वन्द्वों के मध्य कांग्रेस का नया अधिवेशन दिसम्बर 1922 में आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता चितरंजन दास द्वारा की गई।
इस सम्मेलन में परिवर्तन-विरोधियों ने परिवर्तनवादियों के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप, चितरंजन दास ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र दे दिया तथा मोतीलाल नेहरू एवं अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर एक नई पार्टी ’कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ बनाई जिसे ’स्वराज पार्टी’ के नाम से जाना जाता है। इस पार्टी के अध्यक्ष चितरंजन दास तथा महासचिव मोतीलाल नेहरू एवं अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर एक नई पार्टी ’कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ बनाई जिसे ’स्वराज पार्टी’ के नाम से जाना जाता है। इस पार्टी के अध्यक्ष चितरंजन दास तथा महासचिव मोतीलाल नेहरू थे।
सितम्बर 1923 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आजाद द्वारा की गई। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने अपने सदस्यों को स्वराज पार्टी के अंतर्गत चुनाव में उतरने की स्वतन्त्रता प्रदान की। इस विचार का समर्थन विट्ठल भाई पटेल एवं एम.आर. जयकर जैसे नेताओं ने किया।
नवम्बर 1923 में हुए चुनावों में ’स्वराज पार्टी’ को अत्यधिक सफलता मिली। सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में इन्होंने 101 निर्वाचित सीटों में से 42 सीटों पर अपनी जीत दर्ज की। मध्य प्रान्त में इसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। बंगाल में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) और बंबई में इसका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा, लेकिन मद्रास और पंजाब में साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद जैसे कारणों के उभरने के परिणामस्वरूप इन्हें सीमित सफलता ही प्राप्त हुई।
केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधानमण्डलों में स्वराज पार्टी द्वारा बड़े महत्वपूर्ण कार्य किए गए। विट्ठलभाई पटेल को सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली का अध्यक्ष बनवाना स्वराज पार्टी की एक महम्वपूर्ण सफलता थी। सेना के तीव्र गति से भारतीयकरण के लिए बनाई गई स्क्रीन कमेटी की सदस्यता 1925 ई0 में मोतीलाल नेहरू ने स्वीकार की। केन्द्रीय विधानमण्डल में 1919 ई0 के अधिनियम की जाँच करने के लिए मुडीमैन समिति की नियुक्ति स्वराजियों ने ही करवायी। इन्होंने दमनात्मक कानूनों को निरस्त करने के लिए संघर्ष भी किया। स्वराज पार्टी ने देश के आर्थिक हितों में संवर्धन हेतु भी अनेक प्रयत्न किए, यथा-नमक कर में कटौती, कपास पर लगने वाले उत्पाद-शुल्क को समाप्त करवाना, श्रमिकों की स्थिति में सुधार एवं मजदूर संघों की सुरक्षा इत्यादि।
1925 ई0 में स्वराज्य पार्टी को बहुत बड़ा आघात तब लगा जब चितरंजन दास की मृत्यु हो गई। कांग्रेस ने स्वराज पार्टी के सदस्यों को परिषद से बाहर आने का निर्देश दिया क्योंकि सरकार उनके साथ सहयोग नहीं कर रही थी। यद्यपि, 1926 ई0 के चुनावों में केन्द्रीय विधानमंउलों की 40 सीटों तथा मद्रास की पचास प्रतिशत सीटों पर स्वराज पार्टी ने जीत दर्ज की, लेकिन अन्य प्रांतों में इसे पराजय का सामना करना पड़ा। स्वराजी इस बार विधामंडलों में राष्ट्रीय मोर्चा बनाने में सफल नहीं रहे। किंतु, कई अन्य मौकों पर वे स्थगन प्रस्ताव लाने में सफल रहे। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा 1928 ई0 में लाए गए सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक जिसे स्वराजियों ने ’भारतीय गुलामी विधेयक नं. 1’ की संज्ञा दी थी, पर ब्रिटिश सरकार की हार हुई। कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में पारित प्रस्तावों तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा के बाद स्वराज पार्टी द्वारा विधानमण्डलों के बहिष्कार की घोषणा कर दी गई। इस प्रकार स्वराज पार्टी की सूर्यास्त हो गया।