गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty)
गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्य, पुरात्व तथा विदेशी यात्रियों के विवरण तीनों से प्राप्त होते हैं। साहित्यिक स्रोतों में पुराण प्रमुख है जिससे गुप्त वंश के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिलती है।विशाखदत्त की रचना ’देवीचन्द्रगुप्तम्’ से गुप्त शासक रामगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के बारे में जानकारी मिलती है। इसके अलावा कालिदास की रचनायें तथा शूद्रककृत ’मृच्छकटिकम’ और वात्स्यायनकृत ’कामसूत्र’ से भी गुप्तकाल की जानकारी प्राप्त होती है। विदेशी यात्रियों में चीनी यात्री फाह्यान का नाम सर्वप्रथम है जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में भारत आया था। उसने मध्यदेश का वर्णन किया है। इसके अलावा चीनी यात्री ह्नेनसांग के विवरण से भी गुप्त काल की जानकारी प्राप्त होती है। ह्नेनसांग के विवरण से ही पता चलता है कि कुमारगुप्त ने नालंदा महाविहार की स्थापना करवायी थी। पुरातात्विक स्रोतों में अभिलेखों, सिक्कों तथा स्मारकों से गुप्त राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है। समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तंभलेख से उसके बारे में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख से चन्द्रगुप्त द्वितीय की साम्राज्य-विजय का ज्ञान होता है। स्कंदगुप्त के भितरी स्तंभलेख से हूण आक्रमण के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। स्कंदगुप्त के ही जूनागढ़ अभिलेख से इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि उसने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। गुप्तकालीन राजाओं के सोने, चाँदी तथा ताँबे के सिक्के प्राप्त होते हैं। सोने के सिक्कों को दीनार, चाँदी के सिक्कों को रूपक अथवा रूप्यक तथा ताँबे के सिक्कों को माषक कहा जाता था। इन सिक्कों से तत्कालीन शासकों तथा उस काल की राजनैतिक और आर्थिक दशा की जानकारी प्राप्त होती है। गुप्त राजवंश का प्रथम शासक श्रीगुप्त था। श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त वंश का दूसरा शासक हुआ। इन दोनों शासकों ने लगभग 319-320 ई0 तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त प्रथम(Chandragupta-I)
घटोत्कच के बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम राजा बना जो गुप्तकाल का शक्तिशाली शासक था। लिच्छवियों के साथ मधुर संबंध स्थापित करने तथा उसका सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिए चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया। इस बात की जानकारी कुछ स्वर्ण-सिक्कों से प्राप्त होती है जिसके मुख भाग पर चन्द्रगुप्त और उसकी रानी कुमारदेवी का चित्र बना हुआ है तथा पृष्ठ भाग पर लिच्छवयः (लिच्छवि) उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख में समुद्रगुप्त को ’लिच्छवि दौहित्र’ अर्थात् लिच्छवि कन्या से उत्पन्न बताया गया है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही ’गुप्त-संवत् (319-320)’ चलाया था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लगभग 319 ई0 से 350 ई0 तक शासन किया तथा समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
समुद्रगुप्त ’परक्रमांक’ 350-375 ई0 (Samudragupta : 350-375 AD)
चंद्रगुप्त प्रथम के उपरान्त समुद्रगुप्त शासक बना। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त को भरी सभा में राज्य प्रदान करने का वर्णन है। समुद्रगुप्त को सिंहासन सौंपकर चंद्रगुप्त प्रथम ने संन्यास ग्रहण कर लिया। समुद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। गुप्त शक्ति के प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण के लिए समुद्रगुप्त ने आक्रामक नीति अपनाया। इससे संबंधित जानकारी हरिषेण रचित प्रयाग प्रशस्ति से होती है। प्रयाग प्रशस्ति में उसे एक महान विजेता तथा सम्पूर्ण पृथ्वी की विजय (धरणि बंध) करने वाला बताया गया है। समुद्रगुप्त का पूर्वी बंगाल के समृद्ध बंदरगाहों पर नियंत्रण स्थापित था। यहाँ का सुप्रसिद्ध बंदरगाह ताम्रलिप्ति था, जहाँ से मालवाहक जहाज मलय प्रायद्वीप, लंका, चीन तथा पूर्वी द्वीपों को नियमित रूप से जाया करते थे। स्थलमार्गाें द्वारा भी यह क्षेत्र बंगाल तथा भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। इस प्रकार अपने साम्राज्य विजय के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम से पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिंध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित था। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थी। इतिहासकार स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ’भारतीय नेपोलियन’ कहा है। अपनी विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अवश्वमेध यज्ञ किया। वह उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसने ’कविराज’ की उपाधि धारण की थी। समुद्रगुप्त ने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया। ताम्रपत्र में समुद्रगुप्त की ’परमभागवत’ उपाधि मिलती है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय(Chandragupta-II (375-314)
समुद्रगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय शासक बना। यद्यपि समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त नामक व्यक्ति ने कुछ समय के लिए शासन किया था। विशाखदत्तकृत नाटक ’देवीचन्द्रगुप्तम्’ में उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या की। चंद्रगुप्त ने नागा राजकुमारी कुबेरनागा के साथ विवाह करके नाग वंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और बाद में अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक वंश के राजा रूद्रसेन द्वितीय के साथ किया। इस प्रकार मध्य भारत स्थित वाकाटक राज्य पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव जमाकर चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इस विजय से चन्द्रगुप्त को पश्चिमी समुद्रतट मिल गया जो व्यापार-वाणिज्य के लिए मशहूर था। इससे मालवा और उसका मुख्य नगर उज्जैन समृद्ध हुआ। संभवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनाया। उसने पश्चिमी भारत के शको को परास्त किया। रूद्रसिंह तृतीय चन्द्रगुप्त का शक प्रतिद्वन्द्वी था। संभवतः शकों पर विजय के उपरान्त ही चन्द्रगुप्त ने ’विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय विजेता के साथ-साथ एक योग्य एवं कुशल प्रशासक भी था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया चीनी यात्री फाह्यान उसके शासन की प्रशंसा करता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय स्वयं एक विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। पाटलिपुत्र एवं उज्जयिनी उसके शासनकाल में विद्या के प्रमुख केन्द्र थे। उसके दरबार में नौ विद्वानों का एक समूह ’नवरत्न’ निवास करता था। इनमें कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, शंकु, वेतालभट्ट, अमरसिंह, घटकर्पर, वाराहमिहिर तथा वररुचि जैसे विद्वान थे।
कुमारगुप्त प्रथम ’महेन्द्रादित्य’(Kumaragupta-I)
चन्द्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त हुआ। कुमारगुप्त के बिलसड़ अभिलेख, मन्दसौर अभिलेख, करमदण्डा अभिलेख आदि से इसके शासनकाल की जानकारी प्राप्त होती है। कुमारगुप्त के अभिलेख विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं जिससे स्पष्ट होता है कि उसका शासन पूर्व में मगध एवं बंगाल तक और पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था। उसने अश्वमेघ यज्ञ का भी आयोजन किया था। उसके शासन के अंतिम वर्षों में विदेशी आक्रमण हुए थे जिसको उसके पुत्र स्कन्दगुप्त के प्रयत्नों के फलस्वरूप रोका जा सका।
स्कन्दगुप्त(Skandagupta)
स्कन्दगुप्त, कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी बना और यह संभवतः गुप्त वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। अपने साम्राज्य की स्थिति को मजबूत करने के लिए उसको पुष्यमित्र के साथ संघर्ष करना पड़ा। स्कन्दगुप्त के समय ही हूणों का प्रथम आक्रमण हुआ। हूण मध्य एशिया में निवास करने वाली एक बर्बर जाति थी। स्कन्दगुप्त ने इन वाह्य आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया और शत्रुओं को अपने राज्य की सीमा से बाहर कर दिया। इन वाह्य आक्रमणों के कारण साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा। स्कंदगुप्त द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्के इस बात के प्रमाण हैं, क्योंकि प्रारम्भिक शासकों द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्कों की तुलना में स्कंदगुप्त द्वारा जारी किये गये सिक्कों में सोने की मात्रा काफी कम थी। इसी ने पश्चिमी भारत में चाँदी के सिक्कों को जारी किया था। उसने सुदर्शन झील की मरम्मत भी करवायी थी। स्कंदगुप्त के बाद गुप्त का पतन प्रारंभ हो गया। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किस क्रम में शासन किया, स्पष्ट नहीं है। अभिलेखों में स्कन्दगुप्त के जिन उत्तराधिकारियों का उल्लेख हुआ है वे इस प्रकार थे-बुद्धगुप्त, वैन्यगुप्त, भानुगुदइ, नरसिंहगुप्त ’बालादित्य’, कुमारगुप्त द्वितीय और विष्णुगुप्त। गुप्तों का शासन 550 ई0 तक जारी रहा परन्तु पतन होती शक्ति का कोई महत्व नहीं रह गया था।