दिल्ली सल्तनत
ईस्लाम का उदय:- इस्लाम धर्म का उदय छठी शताब्दी में हुआ इसका श्रेय मोहम्मद साहब को दिया जाता है।
मुहम्मद साहब (570-632 ई0)
पिता का नाम-अब्दुल्ला
मुहम्मद साहब (570-632 ई0)
पिता का नाम-अब्दुल्ला
माता का नाम-अमीना
जन्म-570 मक्का में
जन्म-570 मक्का में
पत्नी का नाम-खदीजा
परवरिश-चाचा अबू जान
मुहम्मद साहब 622 ई0 में मक्का से मदीना चले गये इसे हिजरत कहा गया। 622 ई0 ही हिजरी सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध है। मुहम्मद साहब ने ईश्वर को केन्द्र में रखते हुए अपना राज्य स्थापित किया। यह मुस्लिम धार्मिक पुस्तक कुरान पर आधारित है। इस पुस्तक के राजनीतिक प्रधिकार शरा अथवा शरियत् में निहित है। जो शरियत् के विरूद्ध कार्य करता है उसे फतवा जारी किया जा सकता है। कुरान में किसी विशेष प्रकार के राज्य की कल्पना नही है बल्कि समयानुसार कार्य करने की बात कही गयी है।
मुस्लिम राज्य एक धार्मिक राज्य था जिसमें खुदाही बादशाह अथवा शासक माना जाता था। परन्तु वास्तविक सत्ता मिल्लत (आम जनता अथवा सुन्नी भातृत्त भावना में) निहित थी। मुहम्मद साहब पैगम्बर थे। पैगम्बर का अर्थ है खुदा का प्रतिनिधि। मुहम्मद साहब के साथ ही पैगम्बर की उपाधि समाप्त हो गई। पैगम्बर के बाद खलीफा का उल्लेख आता है। ये लोग भी खुदा के प्रतिनिधि माने जाते हैं। प्रथम खलीफा अबूबक्र (632-34) थे। इसके बाद उमर, उस्मान और अली का नाम आता है फिर मुबयिआ खलिफाओं का नाम मिलता है। मुबयिआ का पुत्र याजिद था। यहाँ से खलीफाओं का पद वंशानुगत हो गया। मुबयिआ के समय में राजधानी मदीना से दमिष्क (सीरिया) स्थानान्तरित हो गई। मुबयिआ वंश के पतन के बाद अब्बासी वंश का उल्लेख मिलता है। इनकी राजधानी बगदाद थी। अब्बासी खलिफाओं के पतन के बाद कई छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ। इन्हीं में एक राजवंश समानी साम्राज्य था।
समानी साम्राज्य:- इस राजवंश की स्थापना उत्तर पश्चिमी अफगानिस्तान में हुई। इनकी स्थापना का श्रेय कुछ खाना बदोश जातियों को जाता है। जिन्होंने हाल में ही इस्लाम अपनाया था। प्रारम्भ में ये लोग गुलाम थे। इन्हीं के शासकों में एक अलप्तगीन था। इसकी राजधानी गजनी थी। इसका एक गुलाम विलक्तगीन इसके बाद शासक हुआ। विलक्तगीन के बाद सुबुक्तगीन शासक बना। इसी सुबुक्तगीन का पुत्र महमूद आगे चलकर गजनी की गद्दी पर बैठा।
परवरिश-चाचा अबू जान
मुहम्मद साहब 622 ई0 में मक्का से मदीना चले गये इसे हिजरत कहा गया। 622 ई0 ही हिजरी सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध है। मुहम्मद साहब ने ईश्वर को केन्द्र में रखते हुए अपना राज्य स्थापित किया। यह मुस्लिम धार्मिक पुस्तक कुरान पर आधारित है। इस पुस्तक के राजनीतिक प्रधिकार शरा अथवा शरियत् में निहित है। जो शरियत् के विरूद्ध कार्य करता है उसे फतवा जारी किया जा सकता है। कुरान में किसी विशेष प्रकार के राज्य की कल्पना नही है बल्कि समयानुसार कार्य करने की बात कही गयी है।
मुस्लिम राज्य एक धार्मिक राज्य था जिसमें खुदाही बादशाह अथवा शासक माना जाता था। परन्तु वास्तविक सत्ता मिल्लत (आम जनता अथवा सुन्नी भातृत्त भावना में) निहित थी। मुहम्मद साहब पैगम्बर थे। पैगम्बर का अर्थ है खुदा का प्रतिनिधि। मुहम्मद साहब के साथ ही पैगम्बर की उपाधि समाप्त हो गई। पैगम्बर के बाद खलीफा का उल्लेख आता है। ये लोग भी खुदा के प्रतिनिधि माने जाते हैं। प्रथम खलीफा अबूबक्र (632-34) थे। इसके बाद उमर, उस्मान और अली का नाम आता है फिर मुबयिआ खलिफाओं का नाम मिलता है। मुबयिआ का पुत्र याजिद था। यहाँ से खलीफाओं का पद वंशानुगत हो गया। मुबयिआ के समय में राजधानी मदीना से दमिष्क (सीरिया) स्थानान्तरित हो गई। मुबयिआ वंश के पतन के बाद अब्बासी वंश का उल्लेख मिलता है। इनकी राजधानी बगदाद थी। अब्बासी खलिफाओं के पतन के बाद कई छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ। इन्हीं में एक राजवंश समानी साम्राज्य था।
समानी साम्राज्य:- इस राजवंश की स्थापना उत्तर पश्चिमी अफगानिस्तान में हुई। इनकी स्थापना का श्रेय कुछ खाना बदोश जातियों को जाता है। जिन्होंने हाल में ही इस्लाम अपनाया था। प्रारम्भ में ये लोग गुलाम थे। इन्हीं के शासकों में एक अलप्तगीन था। इसकी राजधानी गजनी थी। इसका एक गुलाम विलक्तगीन इसके बाद शासक हुआ। विलक्तगीन के बाद सुबुक्तगीन शासक बना। इसी सुबुक्तगीन का पुत्र महमूद आगे चलकर गजनी की गद्दी पर बैठा।
महमूद गजनवी (998-1030 ई0)
राजधानी-गजनी
महमूद गजनी पहला मुस्लिम शासक था जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। बगदाद के खलीफा कादिर ने इसके पद की मान्यता दी। इसने यमीनुद्दौला (साम्राज्य का दाहिना हाथ) अमीन उल मिल्लत (मुसलमानों का रक्षक) गाजी (धर्म युद्ध में विजेता) बुत शिकन (मूर्ति भंजक) आदि उपाधि धारण की। महमूद गजनवी ने भारत पर कुल 17 आक्रमण किये । इन आक्रमणों का मूल उद्देश्य यहाँ की धन सम्पत्ति को लूटना था।
महमूद गजनी पहला मुस्लिम शासक था जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। बगदाद के खलीफा कादिर ने इसके पद की मान्यता दी। इसने यमीनुद्दौला (साम्राज्य का दाहिना हाथ) अमीन उल मिल्लत (मुसलमानों का रक्षक) गाजी (धर्म युद्ध में विजेता) बुत शिकन (मूर्ति भंजक) आदि उपाधि धारण की। महमूद गजनवी ने भारत पर कुल 17 आक्रमण किये । इन आक्रमणों का मूल उद्देश्य यहाँ की धन सम्पत्ति को लूटना था।
- 1001 ई0 में-पंजाब (पेशावर) के राजा जयपाल को पराजित था। जयपाल ने आत्महत्या कर ली।
- 1008 ई0 में उन्द नामक स्थान पर आनन्दपाल को पराजित किया।
- 1014 ई0 में थानेश्वर के चक्रस्वामी मन्दिर को लूटा।
बुलन्द शहर का राजा हदत्त डर के मारे मुसलमान हो गया। 1018 ई0 में कन्नौज का राजा राज्यपाल अपनी राजधानी छोड़कर भाग लिया।
सोमनाथ पर आक्रमण:-(1025-26ई0) यह महमूद गजनवी का 16वाँ आक्रमण था। इस समय यहाँ का शासक भीम प्रथम था।
महमूद गजनवी का 17वाँ एवं अन्तिम अभियान मुल्तान के पास खोखरों के विरूद्ध हुआ। 1030 ई0 में इसकी मृत्यु हो गई।
प्रसिद्ध दरबारी विद्वान
सोमनाथ पर आक्रमण:-(1025-26ई0) यह महमूद गजनवी का 16वाँ आक्रमण था। इस समय यहाँ का शासक भीम प्रथम था।
महमूद गजनवी का 17वाँ एवं अन्तिम अभियान मुल्तान के पास खोखरों के विरूद्ध हुआ। 1030 ई0 में इसकी मृत्यु हो गई।
प्रसिद्ध दरबारी विद्वान
- अलबरूनी:- अलबरूनी मध्य एशिया के खीवा प्रान्त का रहने वाला था इसका एक नाम अबू रेहान भी था। यह 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी के साथ भारत आया। यह गणित दर्शन और ज्योतिष एवं संस्कृत का ज्ञाता था। इसने संस्कृत बनारस में रहकर सीखी। इसकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम तहकीक-हिन्द या किताबुल हिन्द है। जो अरबी भाषा में है। इसमें भारत के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि दशा का वर्णन मिलता है। उसने लिखा है ’’हिन्दुओं में यह दृढ़ विश्वास है कि उनके जैसा कोई देश नही, कोई राष्ट्र नही, कोई राजा नही, कोई विज्ञान नही’’ अलबरूनी ने ही भारत में शूद्रों की सबसे बड़ी सूची प्रस्तुत की है। उसने यह भी लिखा है कि इस समय जो निम्न कार्य करते थे वे अन्त्यज कहलाते थे। जैसे-मोची, मछुवारे, शिकारी, टोकरी बनाने वाले आदि।
- उत्बी:- यह एक प्रसिद्ध इतिहासकार था। जिसने तारीख-ए-यामिनी अथवा किताबुल यामिनी नामक पुस्तक अरबी भाषा में लिखी।
- फिरदौसी:- यह एक प्रसिद्ध इतिहासकार था। पूर्व का अमर होमर भी कहा जाता है। जिसने प्रसिद्ध पुस्तक शाहनामा फारसी में लिखी है। इसी ने कश्मीर के बारे में लिखा है कि ’’यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है’’ ये पंक्तिया बाद में शाहजहाँ ने लालकिले में दीवाने खास में उत्कीर्ण करवायी। इस प्रकार फिरदौसी ने बिना भारत आये ही भारत के बारे में लिखा है।
- बैहाकी:- यह भी इतिहासकार था। इसने प्रसिद्ध पुस्तक तारीख-ए-सुबुक्तगीन की रचना की। लेनपूल ने इसे पूर्वीय पेप्स की उपाधि दी।
- फरात– दर्शन शास्त्र का प्रसिद्ध विद्वान।
- उजारी– फारस का कवि।
- तुसी – खुरासान का विद्वान।
- उसरी– महान शिक्षक और विद्वान।
’’गोरी वंश’’
12वीं शताब्दी के मध्य में अफगानिस्तान में ही गोरी वंश की स्थापना हुई। इसका प्रसिद्ध शासक मुहम्मद गोरी हुआ।
मुहम्मद गोरी-(1175-1206)
गोर राज्य भी गजनी साम्राज्य के अधीन हिन्दू कुश की पहाडि़यों में स्थित था। जब गजनी साम्राज्य कमजोर हुआ तो गोर शासकों ने न सिर्फ गजनी की अधीनता त्याग दी अपितु गजनी पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इन्हीं गोर शासकों के सात भाईयों में एक भाई अलाउद्दीन हुसैन जहाँ सोच जिसने अपने भाईयों की हत्या का बदला लेने के लिए गजनी पर आक्रमण कर गजनी राज्य को जला दिया। इसी लिए इसे जहाँ सोच (विश्व को जलाने वाला) एवं विश्व दाहक के रूप में जाना जाता है। इसके पश्चात् गजनी पर गोर शासकों का अधिपत्य स्थापित हो गया और जब गोर साम्राज्य की गद्दी पर ग्यासुद्दीन मुइनुद्दीन बैठा तो उसने अपने भाई मु0 बिन साम को गजनी की गद्दी पर बैठाया। यही शासक परिवर्ती काल में मु0 गोरी के नाम से जाना गया और इसने 1175 ई0-1206 ई0 तक भारत पर अनेक आक्रमण कर तुर्की साम्राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसके योग्य गुलामों में ऐबक, ताजुद्दीन एल्दौज नसिरूद्दीन कुवाचा, बख्तियार खिल्जी आदि थे। जिन्होंने भारत विजय में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
जिस समय गोरी ने भारत पर आक्रमण किया उस समय उत्तर भारत में अनेक राजपूत राज्य परस्पर वैमनस्य की स्थिति में संघर्ष करते हुए शासन कर रहे थे। गोरी ने इस विकेन्द्रीकरण एवं राजपूतों के आपसी वैमनस्य का लाभ उठाया और मध्य एशिया में बढ़ते हुए फरिज्मशाह में प्रभावों से डरकर भारत की तरफ रूख किया और भारत में तुर्की राज्य स्थापित करने का सपना देखा।
गोरी के आक्रमण के समय पंजाब लाहौर पेशावर पर अन्तिम गजनी वंश के शासक खुसरों मलिक का शासन था। मुल्तान सिंधु पर शिया मतावलम्बी धर्मार्थियों का शासन था। दिल्ली पर राज पिथौरा के रूप में प्रसिद्ध चैहान वंशीय पृथ्वी राज तृतीय शासन कर रहा था। गुजरात अन्हिलवाड़ पर सोलंकियों का शासन था जहाँ भीम द्वितीय शासन कर रहा था। कन्नौज पर काशी के राज के रूप में प्रसिद्ध गहढ़वालों का शासन था और उस समय इस पर जयचन्द शासन कर रहा था।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कालिंजर खजुराहों महोवा के रूप में चंदेलों का शासन था जहाँ इस वंश का प्रसिद्ध शासक परमार्दिदेव शासन कर रहा था। मालवा धारा पर परमारों का शासन था। मध्यक्षेत्र पर कल्चुरियों का शासन था। बंगाल में इस समय पाल वंश की जगह सेन वंश का प्रसिद्ध शासक लक्ष्मणसेन शासन कर रहा था। लखनौती एवं नदियाँ उसके प्रशासनिक केन्द्र थे। राजपूत राज्य परस्पर संघर्षरत थे। सामाजिक वर्णव्यवस्था अत्यधिक जटिल एवं कमजोर हो चुकी थी। धर्म में भी दक्षिण पंथ (वामपंथ) का प्रभाव बढ़ रहा था। राजपूत परस्पर वैमनस्य एवं कटुता का शिकार हो रहे थे।
गोरी ने खारिज्म शाह के बढ़ते हुए प्रभाव को ध्यान में रखकर भारत पर तुर्की साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। प्रारम्भ में उसने लाहौर पेशावर यानि खैवर दर्रे को छोड़कर गोलन दर्रे के माध्यम से गुजरात में घुसने की भूल की।
गोरी का भारत पर पहला आक्रमण 1175 ई0 में मुल्तान पर हुआ जिस पर उसने आसानी से आधिपत्य स्थापित कर लिया जो सिया मतावलम्बी धर्मार्थियों के अधीन था। 1176 ई0 में गोरी भी का आक्रमण कच्छ पर हुआ इसे भी जीत लिया गया। 1178 ई0 में गोरी का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध तत्कालीन गुजरात के शासक मूलराज द्वितीय के समय में भीम द्वितीय से हुआ। जिसमें भीम द्वितीय ने अपनी साहसी विधवा नायिका देवी के निर्देशन में गोरी को 1178 ई0 के आबू के इस युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया। इसके बाद गोरी ने आक्रमण की दिशा बदल दी और हिन्दूकुश की पहाडि़यों के माध्यम से पंजाब राज्य से आक्रमण की शुरूआत की। 1179, 83, 86 ई0 तक अनेक बार पेशावर लाहौर आदि को जीता उस समय पंजाब पर अन्तिम गजनी शासक खुशरों मलिक का शासन था अन्ततः उसे पकड़कर गजनी ले जाया गया जहाँ उसकी हत्या कर दी गयी और पंजाब पर गोरी का सीधा नियन्त्रण स्थापित हो गया।
पंजाब के बाद गोरी भी अलग निशाना तवर हिन्द भटिण्डा हुआ जिसने चैहानवंशीय शासक पृथ्वीराज तृतीय को चैकन्ना कर दिया क्योंकि ये क्षेत्र उसके साम्राज्य की सीमा में आते थे। गोरी एवं पृथ्वीराज के बीच युद्ध अवश्यसम्भावी हो गया और दोनों के बीच 1191 ई0 तराइन की प्रथम युद्ध हुआ जिसमे पृथ्वीराज ने गोरी को बुरी तरह पराजित किया और वह अपने एक खिल्जी गुलाम की मदद से जीवन बचा पाया। चैहान की सेना ने उसका पीछा किया और तवर हिन्द को तुर्कों में चंगुल से मुक्त किया।
1192 ई0 में तराइन में ही मैदान में विश्व प्रसिद्ध तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें अन्ततः गोरी ने बाजी मार ली। पृथ्वीराज चैहान परास्त हुआ। बाद में विदोह करने कारण उसकी हत्या कर दी गयी। कुछ समय तक उसके पुत्र गोविन्दराज को गद्दी पर बैठाया गया परन्तु अन्ततः दिल्ली को तुर्की राज्य में मिला लिया गया और इस वंश के अन्तिम शासक हरिराज ने विद्रोह कर स्वतन्त्र करा पाने में असफल होने पर जौहर प्रथा अपनाकर आत्म हत्या कर ली।
गोरी का अन्य महत्वपूर्ण आक्रमण 1194ई0 में हुआ जिसमें उसने गहड़वाल वंशी शासक जयचन्द्र को चन्दावर के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। जयचन्द्र मारा गया। कुछ समय तक उसके पुत्र हरिश्चन्द्र को गद्दी पर बैठाया गया परन्तु अन्ततः कन्नौज में तुर्की राज्य में मिला लिया गया। गोरी ने 1195-96 ई0 में अभियान चलाकर राजपूत राज्यों को परास्त करने का प्रयास किया। परिवर्ती काल में उसके इस कार्य को ऐबक ने पूरा किया।
गोरी का अन्तिम महत्वपूर्ण आक्रमण 1206 ई0 में हुआ। जिसमें उसने गोक्खरों की बढती शक्ति को नष्ट कर दिया जो लाहौर तक धावा बोलने की योजना बना रहे थे।
गोक्खरो के विद्रोह को दबाकर लौटते समय सिंधु के दमदम नामक स्थान पर एक गोक्खर सरदार द्वारा मगरिस (सायंकालीन नमाज) पढते समय गोरी की हत्या कर दी गयी।
गोरी के योग्य गुलाम इख्त्यिारूद्दीन बख्तियार खिलजी ने बंगाल विहार जीतते हुए तत्कालीन नालन्दा विक्रमशिला उदंतपुरी जैन विहारों को न सिफ नष्ट किया अपितु व्यापारी वेश में लक्ष्मणसेन की राजधानी नदिया पर आक्रमण कर लिया वह राजधानी छोड़कर भाग गया और आसानी से बंगाल पर तुर्कों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
गोरी द्वारा 1175 ई0-1206 ई0 के बीच में उत्तर भारत में अनेक अभियानों के माध्यम से भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई जिसे भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रथम चरण अर्थात दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना जाता है।
सल्तनतकाल में तुर्कों के विभिन्न वंशों सैयदों एवं लोदियों (अफगानों) ने 1206 ई0 से लेकर 1526 ई0 तक शासन किया इसके ममूलकवंश खिलजी वंश और तुगलकवंश जो तुर्कों में महत्वपूर्ण शाखा से सम्बन्धित थे वही लोदी अफगानी शासक के रूप में जाने जाते हैं।
जिस समय गोरी ने भारत पर आक्रमण किया उस समय उत्तर भारत में अनेक राजपूत राज्य परस्पर वैमनस्य की स्थिति में संघर्ष करते हुए शासन कर रहे थे। गोरी ने इस विकेन्द्रीकरण एवं राजपूतों के आपसी वैमनस्य का लाभ उठाया और मध्य एशिया में बढ़ते हुए फरिज्मशाह में प्रभावों से डरकर भारत की तरफ रूख किया और भारत में तुर्की राज्य स्थापित करने का सपना देखा।
गोरी के आक्रमण के समय पंजाब लाहौर पेशावर पर अन्तिम गजनी वंश के शासक खुसरों मलिक का शासन था। मुल्तान सिंधु पर शिया मतावलम्बी धर्मार्थियों का शासन था। दिल्ली पर राज पिथौरा के रूप में प्रसिद्ध चैहान वंशीय पृथ्वी राज तृतीय शासन कर रहा था। गुजरात अन्हिलवाड़ पर सोलंकियों का शासन था जहाँ भीम द्वितीय शासन कर रहा था। कन्नौज पर काशी के राज के रूप में प्रसिद्ध गहढ़वालों का शासन था और उस समय इस पर जयचन्द शासन कर रहा था।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कालिंजर खजुराहों महोवा के रूप में चंदेलों का शासन था जहाँ इस वंश का प्रसिद्ध शासक परमार्दिदेव शासन कर रहा था। मालवा धारा पर परमारों का शासन था। मध्यक्षेत्र पर कल्चुरियों का शासन था। बंगाल में इस समय पाल वंश की जगह सेन वंश का प्रसिद्ध शासक लक्ष्मणसेन शासन कर रहा था। लखनौती एवं नदियाँ उसके प्रशासनिक केन्द्र थे। राजपूत राज्य परस्पर संघर्षरत थे। सामाजिक वर्णव्यवस्था अत्यधिक जटिल एवं कमजोर हो चुकी थी। धर्म में भी दक्षिण पंथ (वामपंथ) का प्रभाव बढ़ रहा था। राजपूत परस्पर वैमनस्य एवं कटुता का शिकार हो रहे थे।
गोरी ने खारिज्म शाह के बढ़ते हुए प्रभाव को ध्यान में रखकर भारत पर तुर्की साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। प्रारम्भ में उसने लाहौर पेशावर यानि खैवर दर्रे को छोड़कर गोलन दर्रे के माध्यम से गुजरात में घुसने की भूल की।
गोरी का भारत पर पहला आक्रमण 1175 ई0 में मुल्तान पर हुआ जिस पर उसने आसानी से आधिपत्य स्थापित कर लिया जो सिया मतावलम्बी धर्मार्थियों के अधीन था। 1176 ई0 में गोरी भी का आक्रमण कच्छ पर हुआ इसे भी जीत लिया गया। 1178 ई0 में गोरी का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध तत्कालीन गुजरात के शासक मूलराज द्वितीय के समय में भीम द्वितीय से हुआ। जिसमें भीम द्वितीय ने अपनी साहसी विधवा नायिका देवी के निर्देशन में गोरी को 1178 ई0 के आबू के इस युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया। इसके बाद गोरी ने आक्रमण की दिशा बदल दी और हिन्दूकुश की पहाडि़यों के माध्यम से पंजाब राज्य से आक्रमण की शुरूआत की। 1179, 83, 86 ई0 तक अनेक बार पेशावर लाहौर आदि को जीता उस समय पंजाब पर अन्तिम गजनी शासक खुशरों मलिक का शासन था अन्ततः उसे पकड़कर गजनी ले जाया गया जहाँ उसकी हत्या कर दी गयी और पंजाब पर गोरी का सीधा नियन्त्रण स्थापित हो गया।
पंजाब के बाद गोरी भी अलग निशाना तवर हिन्द भटिण्डा हुआ जिसने चैहानवंशीय शासक पृथ्वीराज तृतीय को चैकन्ना कर दिया क्योंकि ये क्षेत्र उसके साम्राज्य की सीमा में आते थे। गोरी एवं पृथ्वीराज के बीच युद्ध अवश्यसम्भावी हो गया और दोनों के बीच 1191 ई0 तराइन की प्रथम युद्ध हुआ जिसमे पृथ्वीराज ने गोरी को बुरी तरह पराजित किया और वह अपने एक खिल्जी गुलाम की मदद से जीवन बचा पाया। चैहान की सेना ने उसका पीछा किया और तवर हिन्द को तुर्कों में चंगुल से मुक्त किया।
1192 ई0 में तराइन में ही मैदान में विश्व प्रसिद्ध तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें अन्ततः गोरी ने बाजी मार ली। पृथ्वीराज चैहान परास्त हुआ। बाद में विदोह करने कारण उसकी हत्या कर दी गयी। कुछ समय तक उसके पुत्र गोविन्दराज को गद्दी पर बैठाया गया परन्तु अन्ततः दिल्ली को तुर्की राज्य में मिला लिया गया और इस वंश के अन्तिम शासक हरिराज ने विद्रोह कर स्वतन्त्र करा पाने में असफल होने पर जौहर प्रथा अपनाकर आत्म हत्या कर ली।
गोरी का अन्य महत्वपूर्ण आक्रमण 1194ई0 में हुआ जिसमें उसने गहड़वाल वंशी शासक जयचन्द्र को चन्दावर के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। जयचन्द्र मारा गया। कुछ समय तक उसके पुत्र हरिश्चन्द्र को गद्दी पर बैठाया गया परन्तु अन्ततः कन्नौज में तुर्की राज्य में मिला लिया गया। गोरी ने 1195-96 ई0 में अभियान चलाकर राजपूत राज्यों को परास्त करने का प्रयास किया। परिवर्ती काल में उसके इस कार्य को ऐबक ने पूरा किया।
गोरी का अन्तिम महत्वपूर्ण आक्रमण 1206 ई0 में हुआ। जिसमें उसने गोक्खरों की बढती शक्ति को नष्ट कर दिया जो लाहौर तक धावा बोलने की योजना बना रहे थे।
गोक्खरो के विद्रोह को दबाकर लौटते समय सिंधु के दमदम नामक स्थान पर एक गोक्खर सरदार द्वारा मगरिस (सायंकालीन नमाज) पढते समय गोरी की हत्या कर दी गयी।
गोरी के योग्य गुलाम इख्त्यिारूद्दीन बख्तियार खिलजी ने बंगाल विहार जीतते हुए तत्कालीन नालन्दा विक्रमशिला उदंतपुरी जैन विहारों को न सिफ नष्ट किया अपितु व्यापारी वेश में लक्ष्मणसेन की राजधानी नदिया पर आक्रमण कर लिया वह राजधानी छोड़कर भाग गया और आसानी से बंगाल पर तुर्कों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
गोरी द्वारा 1175 ई0-1206 ई0 के बीच में उत्तर भारत में अनेक अभियानों के माध्यम से भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई जिसे भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रथम चरण अर्थात दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना जाता है।
सल्तनतकाल में तुर्कों के विभिन्न वंशों सैयदों एवं लोदियों (अफगानों) ने 1206 ई0 से लेकर 1526 ई0 तक शासन किया इसके ममूलकवंश खिलजी वंश और तुगलकवंश जो तुर्कों में महत्वपूर्ण शाखा से सम्बन्धित थे वही लोदी अफगानी शासक के रूप में जाने जाते हैं।
दिल्ली सल्तनत-(1206-1526 ई0)
सल्तनत काल में दिल्ली के तीन प्रशासनिक केन्द्र रहे। लाहौर, दिल्ली और आगरा। ऐबक ने प्रारम्भ में इन्द्रप्रस्थ को अपना केन्द्र बनाया । 1206 ई0 में तुर्की राजय की स्थापना के साथ लाहौर और दिल्ली राजधानी बनाये गये। मिश ने लाहौर से प्रशासनिक केन्द्र हटाकर दिल्ली तक तुर्की साम्राज्य को सीमित रखा। इस समय दिल्ली का एक अन्य नाम योगिनीपुर था। आगरा की स्थापना सिकन्दर लोदी ने किया और दिल्ली के साथ ही यहाँ भी प्रशासनिक केन्द्र बनाये।
ऐबक (1206-1210) (कुरान-खां)
1206 ई0 में गोरी की मृत्यु के साथ ही भारतीय तुर्की राज्य पर उसके योग्य गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। यह अलग बात है कि फिरोज तुगलत के समय में दिल्ली सल्तनत के शासकों की जो सूची तैयार होती है उसमें ऐबक का नाम शामिल नही किया जाता है। ऐबक गोरी के अनेक योग्य गुलामों में एक था जिसने तराइन के द्वितीय युद्ध से लगातार गोरी की सेवा की। गोरी की अनुपस्थिति में भारतीय तुर्की राज्य को न सिर्फ सुरक्षित रखा अपितु उस समय हुए विद्रोहों को दबाने के साथ-साथ अनेक राजपूत राज्यों को परास्त कर दिल्ली की अधीनता स्वीकार करने हेतु बाध्य किया।
ऐबक के जीवन काल को तीन भागों में बाँटा जाता है-
(1) 1192-1206 ई0 तक कुशल सेनापति के रूप।
(2) 1206-1208 ई0 तक जब तक दासता से मुक्त नही हुआ सिपहसलार के रूप में कार्य करता रहा।
ऐबक के जीवन काल को तीन भागों में बाँटा जाता है-
(1) 1192-1206 ई0 तक कुशल सेनापति के रूप।
(2) 1206-1208 ई0 तक जब तक दासता से मुक्त नही हुआ सिपहसलार के रूप में कार्य करता रहा।
1208 ई0 में गोरी में वंशज गयासुद्दीन ने इसे न सिर्फ दासत्व से मुक्त किया अपितु दिल्ली का स्वतन्त्र शासक बना लिया।
(3) 1208-10 ई0 तक ऐबक स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन करता है। यह अलग बात है कि इसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की और न ही अपने नाम के सिक्के चलाएं, न ही अपने नाम का खुतवा पढ़ाया।
(3) 1208-10 ई0 तक ऐबक स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन करता है। यह अलग बात है कि इसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की और न ही अपने नाम के सिक्के चलाएं, न ही अपने नाम का खुतवा पढ़ाया।
- इसके समय की सबसे बड़ी समस्या समकालीन अन्य गुलामों यल्दौज, कुवाचा आदि से नवोदित दिल्ली राज्य को सुरक्षित करना था और मध्य एशियाई राजनीति से भारतीय राजनीति को पूर्णतया पृथक करना था।
- इस समस्या से निपटने के लिए इसने वैवाहिक सम्बन्धों का सहारा लिया। कुवाचा से अपनी बहन का विवाह, यल्दौज से पुत्री का विवाह एवं अपने योग्य गुलाम मिश से अपनी बेटी का विवाह कर उत्तर भारत के महत्वपूर्ण इक्ता बदायूँ का इक्तादार बनाया।
- यल्दौज की बढ़ती महत्वाकांक्षा को रोकने के लिए ऐबक ने गजनी पर आक्रमण किया और कई दिन तक उस पर अपना आधिपत्य बनाये रखा। इसके पश्चात् चल्दौज ने पुनः कभी दिल्ली की तरफ आँख उठाने की हिम्मत नहीं की। बंगाल पर आक्रमण कर वहाँ की अव्यवस्था को दूर कर तुर्की साम्राज्य के अधीन मिलाया। अनेक राजपूत राज्यों को परास्त कर दिल्ली के अधीन लाया। इसकी प्रा0 राजधानी लाहौर थी और बाद में दिल्ली को प्रशासनिक केन्द्र बनाया गया। 1210 ई0 में चैगान या पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर इसकी मृत्यु हो गयी।
- इसकी गणना दानी शासकों में की जाती है। समकालीन लोग इसे लाखवक्श और पीलवक्स के रूप में पुकारते हैं। लोग इसे हातिम के रूप में याद करते हैं। इसने हसन-ए-निजामी और फक्क-ए-मुदव्विर जैसे विद्वानों को संरक्षण दिया।
- इसके निर्माण कार्यों में दिल्ली का कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद जो भारत की पहली मस्जिद मानी जाती है। अजमेर की अढ़ाई दिन का झोपड़ा जो मंदिर एवं मठों के ध्वांसावशेषों पर बना है इसी पर विग्रह राज चतुर्थ का प्रसिद्ध नाटक हरिकेली का कुछ अंश खुदा है। माना जाता है इसने पानीपत एवं संभल में भी मस्जिदों का निर्माण कराया था। भारत में चिश्ती संप्रदाय का पोषक था और उसके जुडे प्रसिद्ध सूफीसंत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कुतुबमीनार का निर्माण कार्य कराया जिसे बाद में इल्तुतमिश ने पूरा किया।
आरामशाह (1210-1211) ई0
ऐबक के पश्चात् आरामशाह गद्दी पर बैठा। आरामाशाह से ऐबक के सम्बन्धों के विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। आरामशाह के अल्पकालीन शासन से परेशान होकर तुर्की अमीरों ने बदायूँ के इम्तादार इल्तुतमिश को निमन्त्रण दिया जिसने बदायूँ से दिल्ली आकर जद के मैदान में आरामशाह को परास्त कर दिल्ली पर अपना अधिकार स्थापित किया।
इल्तुतमिश (1212-1236) ई0
इल्तुतमिश दिल्ली के योग्य सुल्तानों में एक है जिसने पहली बार दोआब के आर्थिक महत्व को समझा तथा मध्य एशियाई राजनीति से भारतीय राजनीति को अलग किया। समकालीन संकटों का सफलतापूर्वक सामना किया और भारत में स्थायी तुर्की राज्य की फारसी पद्धति में स्थापना की और लाहौर की जगह दिल्ली को सल्तनत काल की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित किया। चंगेज खाँ जैसे बड़े संकट से कूटनीति से निपटा। तुर्कान-ए-चहलगानी का गठन कर प्रशासन पर पकड़ मजबूत की। 1229 खलीफा से मानद पत्र एवं सहयोग प्राप्त कर धार्मिक उलेमाओं का सहयोग प्राप्त किया। अरबी फारसी पद्धति पर तुर्की साम्राज्य को व्यवस्थित किया। फारस से विद्वानों को बुलवाकर फारसीय प्रशासन की नींव डाली। अरबी पद्धति पर चाँदी के टंके (175 ग्रेन) एवं तांबे के जीतल जैसे सिक्के चलाए तथा अनेक वास्तुकलाओं का निर्माण कराया। भारतीय राजनीति को अनुकूल बनाकर इक्ता व्यवस्था लागू की।
इल्तुतमिश ऐबक का योग्य गुलाम था। जिसे ऐबक ने 1197 ई0 में अन्य गुलामों के साथ एक लाख टके में खरीदा था। धीरे-धीरे यह ऐबक का विश्वास पात्र बन गया। 1206 ई0 में गोरी के गोक्खर विद्रोह को दबाने के समय इसने उसकी महत्वपूर्ण सेवा की। इसके कार्यों से खुश होकर गोरी ने ऐबक से इसे दासत्व से मुफ्त करने को कहा। अतः यह अपने स्वामी से पूर्व ही दासत्व से मुक्त हो गया। ऐबक की मृत्यु के समय यह वदायूँ का इक्तादार था और अमीरों के अनुरोध पर इसने आरामशाह से दिल्ली की गद्दी छीनी।
यह दिल्ली का पहला संप्रभु शासक हुआ। तुर्की राज्य का पहला वास्तविक संस्थापक इसे ही कहा जाता है।
इल्तुतमिश ऐबक का योग्य गुलाम था। जिसे ऐबक ने 1197 ई0 में अन्य गुलामों के साथ एक लाख टके में खरीदा था। धीरे-धीरे यह ऐबक का विश्वास पात्र बन गया। 1206 ई0 में गोरी के गोक्खर विद्रोह को दबाने के समय इसने उसकी महत्वपूर्ण सेवा की। इसके कार्यों से खुश होकर गोरी ने ऐबक से इसे दासत्व से मुफ्त करने को कहा। अतः यह अपने स्वामी से पूर्व ही दासत्व से मुक्त हो गया। ऐबक की मृत्यु के समय यह वदायूँ का इक्तादार था और अमीरों के अनुरोध पर इसने आरामशाह से दिल्ली की गद्दी छीनी।
यह दिल्ली का पहला संप्रभु शासक हुआ। तुर्की राज्य का पहला वास्तविक संस्थापक इसे ही कहा जाता है।
- 1215 ई0 में तराईन के तृतीय युद्ध में यल्दौज को परास्त कर इस संकट से निजात पा लिया। कुवाचा इसके आक्रमण से डरकर स्वयं सिंधु नदी मूें कूदकर आत्म हत्या कर ली।
- 1221 ई0 में चंगेजखां ख्वारिज्मशाह के राजकुमार मंगवनी का पीछा करते हुए सिंधु तक आ गया इसने न सिर्फ कूटनीति का प्रयोग करते हुए इसे शरण देने से इन्कार किया। अपितु उसके दूत की हत्या करवाकर नवोदित दिल्ली राज्य को चंगेज के चंगुल से बचा लिया।
- 1229 ई0 में बगदाद के सभकलाी खलीफा अल्पमुस्तसिर ने इसे वस्त्र नगाडा मानदपत्र प्रदान किया।
- इल्तुतमिश ने भारतीय एवं फारसी पद्धति पर आधारित प्रशासन का गठन किया। इसने भारत में व्यवस्थित इक्तेदारी व्यवस्था की स्थापना की।
कुतुबमीनार का निर्माण कार्य पूरा कराया। न्याय के लिए सिंहों के गले में घण्टी बंधवाई। नागौर में मस्जिद एवं विशाल अतरकिन का दरवाजा बनाया। दिल्ली में शम्सीहौज एवं नासिरुदीन महमूद का गढ़ी का मकबरा बनवाया जो भारत का पहला मकबरा माना जाता है। वकात-ए-नासिरी के लेखक मिनहाज इस काल का प्रमुख विद्वान था।
प्रशासन में मदद के लिए तुर्कान-ए-चिहलगानी नामक दल का गठन किया। सल्तनत काल में वंशानुगत व्यवस्था चलाने का श्रेय एवं उत्तराधिकारी घोषित करने की परम्परा मिश ने चालू की। वास्तव में इस काल में उत्तराधिकार की कोई निश्चित परम्परा नही थी।
इल्तुतमिश अपने प्रिय पुत्र नसिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी ग्वालियर अभियान से लौटने के बाद घोषित किया। नसिरुद्दीन महमूद की याद में उसने दिल्ली में पहला मकबरा जिसे गढ़ी का मकबरा कहा जाता है का निर्माण कराया।
इसका अन्तिम अभियान वमियान का माना जाता है। इसी दौरान बीमार होने के पश्चात् मृत्यु हो गयी। राजगद्दी को वंशानुगत बनाने वालों में दिल्ली का पहला शासक मिश को माना जाता है।
अमीरों ने इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् रजिया को गद्दी पर न बैठकार उसके योग्य पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को गद्दी पर न बैठाया। यह एक कमजोर और अक्षम शासक था पूरा शासन इसकी विलासी महत्वाकांक्षा और क्रूर मां शाह तुर्कान के हाथों में था। यह कुचक्रणी थी। इतिहासकारों ने इसे दासी बताया है जो मिश के हरम में महत्वपूर्ण स्थान पाकर रुकनुद्दीन की मां बनी।
इतिहासकारों ने इसकी दान शीलता विद्वानों को संरक्षण, शिक्षा और महत्वपूर्ण संस्थाओं को प्रश्रय देने कर घूर-घूर प्रशंसा की है। परन्तु इसके क्रूर अत्याचार पूर्ण रवैये के कारण शीघ्र ही दिल्ली की जनता और तुर्की अमीर सुल्तान के खिलाफ हो गये और जिस दिन रुकनुद्दीन फिरोज दिल्ली से बाहर एक विद्रोह को दबाने गया हुआ था। रजिया ने नमाज अदा करते समय जुमा के दिन लाल वस्त्र पहनकर (जो न्याय का प्रतीक माना जाता था) दिल्ली की जनता से मदद की अपील की। तुर्की अमीरों एवं दिल्ली की जनता ने रजिया का साथ दिया। विद्रोहियों ने राजमहल पर आक्रमण कर शाह तुर्कान को मार डाला बाद में रुकनुद्दीन भी मारा गया और अन्ततः 1236 ई0 में मध्यकलीन भारत की प्रथम मुस्लिम महिला शासिका के रूप में रजिया दिल्ली की गद्दी पर बैठी।
प्रशासन में मदद के लिए तुर्कान-ए-चिहलगानी नामक दल का गठन किया। सल्तनत काल में वंशानुगत व्यवस्था चलाने का श्रेय एवं उत्तराधिकारी घोषित करने की परम्परा मिश ने चालू की। वास्तव में इस काल में उत्तराधिकार की कोई निश्चित परम्परा नही थी।
इल्तुतमिश अपने प्रिय पुत्र नसिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी ग्वालियर अभियान से लौटने के बाद घोषित किया। नसिरुद्दीन महमूद की याद में उसने दिल्ली में पहला मकबरा जिसे गढ़ी का मकबरा कहा जाता है का निर्माण कराया।
इसका अन्तिम अभियान वमियान का माना जाता है। इसी दौरान बीमार होने के पश्चात् मृत्यु हो गयी। राजगद्दी को वंशानुगत बनाने वालों में दिल्ली का पहला शासक मिश को माना जाता है।
अमीरों ने इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् रजिया को गद्दी पर न बैठकार उसके योग्य पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को गद्दी पर न बैठाया। यह एक कमजोर और अक्षम शासक था पूरा शासन इसकी विलासी महत्वाकांक्षा और क्रूर मां शाह तुर्कान के हाथों में था। यह कुचक्रणी थी। इतिहासकारों ने इसे दासी बताया है जो मिश के हरम में महत्वपूर्ण स्थान पाकर रुकनुद्दीन की मां बनी।
इतिहासकारों ने इसकी दान शीलता विद्वानों को संरक्षण, शिक्षा और महत्वपूर्ण संस्थाओं को प्रश्रय देने कर घूर-घूर प्रशंसा की है। परन्तु इसके क्रूर अत्याचार पूर्ण रवैये के कारण शीघ्र ही दिल्ली की जनता और तुर्की अमीर सुल्तान के खिलाफ हो गये और जिस दिन रुकनुद्दीन फिरोज दिल्ली से बाहर एक विद्रोह को दबाने गया हुआ था। रजिया ने नमाज अदा करते समय जुमा के दिन लाल वस्त्र पहनकर (जो न्याय का प्रतीक माना जाता था) दिल्ली की जनता से मदद की अपील की। तुर्की अमीरों एवं दिल्ली की जनता ने रजिया का साथ दिया। विद्रोहियों ने राजमहल पर आक्रमण कर शाह तुर्कान को मार डाला बाद में रुकनुद्दीन भी मारा गया और अन्ततः 1236 ई0 में मध्यकलीन भारत की प्रथम मुस्लिम महिला शासिका के रूप में रजिया दिल्ली की गद्दी पर बैठी।
’’सुल्तान रुक्नुद्दीन फिरोज शाह(1236 ई0)’’
यह इल्तुतमिश का पुत्र था। इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। परन्तु अमीरों ने उसके सबसे बड़े पुत्र रुक्नुद्दीन फिरोज को शासक बना दिया। इसके समय में शासन की बागडोर इसकी माँ शाह तुर्कान के हाथों में आ गई। यह एक तुर्की दासी थी। एक विद्रोह को दबाने के लिए जब यह राजधानी से बाहर गया हुआ था। तभी रजिया ने लाल वस्त्र पहनकर जनता से सहायता मांगी। उन दिनों लाल वस्त्र न्याय का प्रतीक माना जाता था। इस तरह जनता ने रजिया को गद्दी पर बिठा दिया।
रजिया (1236-1240)
यह कुल 3 वर्ष 6 माह 6 दिन शासिका थी। पहली बार दिल्ली की जनता ने उत्तराधिकार के प्रश्न पर स्वयं निर्णय लिया था। रजिया ने पर्दा प्रथा त्याग दी तथा पुरुषों की तरह कुबा (कोट) एवं कुलाह (टोपी) पहन कर दरबार में आने लगी। इसके समय में चहल गानी में फूट पड़ गयी । इन अमीरों ने इख्तियाकद्दीन एतगीन के नेतृत्व में एक षडयन्त्र किया। यह उस समय अमीरे-हाजिब के पद पर था। रजिया पर एक अबीसिनियाईर सरदार मलिक याकूत से प्रेम करने का आरोप लगाया गया और वाद में उसकी हत्या कर दी गई। इस तरह रजिया का पतन हो गया। इस तरह रजिया के पतन का प्रमुख कारण तुर्की अमीरों की महत्वाकांक्षा माना जाता है अल्तुनिया से रजिया ने विवाह कर लिया।
मुइजुद्दीन बहराम शाह(1240-42 ई0)
तुर्की अमीरों ने बहरामशाह को गद्दी पर बैठाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। अतः उन्होंने एक नये पद नाइब-ए-ममालिकात का सृजन करवाया। इस पद पर पहली नियुक्ति इक्तियारूद्दीन एतगीन की गई। इसने अपने घर नौबत और हाथी रखना शुरू किया। 1242 ई0 में बहरामशाह की हत्या कर दी गई।
’’अलाउद्दीन मशूदश्शाह’’
बलबन ने इल्तुतमिश के प्रपौत्र नासिरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
’’नासिरुद्दीन महमूद’’
नासिरुद्दीन महमूद अलाउद्दीन मशुदशाह को हराकर दिल्ली की गद्दी पर बैठा था। इसी कारण यह स्त्रीवेश में दिल्ली आया। इसके बारे में कहा जाता है कि यह कुरान की प्रतिलिपियां तैयार कराता था और उसे बेचता था। इसने बलबन को अपना नाइब नियुक्ति किया। बलबन ने ही नाइब का सर्वाधिक उपभोग भी किया। भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग ने बलबन के विरूद्ध षड्यन्त्र रचकर इसे 1252-53 में नाइब के पद से हटवा दिया। इस समय नाइब के पद पर एक भारतीय मुसलमान इमादुद्दीन रेहान की नियुक्ति की गई। परन्तु अगले वर्ष ही इसे हराकर बलबन की पुनः नियुक्ति कर दी गई।
बलबन के समय में ही नासिरुद्दीन महमूद को खूब प्रतिष्ठा मिली। नासिरूद्दीन महमूद के समय का प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाजुद्दीन सिराज था। उसने अपनी पुस्तक तबकाते-नासिरी, नासिरुद्दीन महमूद को ही समर्पित की। इस प्रकार प्रथम इल्बारी वंश समाप्त हो गया। इसी शासक ने बलबन को उलूग खाँ की उपाधि प्रदान की।
बलबन के समय में ही नासिरुद्दीन महमूद को खूब प्रतिष्ठा मिली। नासिरूद्दीन महमूद के समय का प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाजुद्दीन सिराज था। उसने अपनी पुस्तक तबकाते-नासिरी, नासिरुद्दीन महमूद को ही समर्पित की। इस प्रकार प्रथम इल्बारी वंश समाप्त हो गया। इसी शासक ने बलबन को उलूग खाँ की उपाधि प्रदान की।
द्वितीय इल्बारी वंश
संस्थापक-बलबन
बलबन(1266-1287)
बलबन के राजगद्दी पर बैठने के बाद शासन का पहले वाला रूप बदल गया। इसने अपने शासन में फारसी परम्पराओं एवं नियमों को लागू किया। बलबन दिल्ली सल्तनत का पहला शासक है जिसने राजत्व का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
बलबन का राजत्व सिद्धान्त:- बलबन का राजत्व सिद्धान्त प्रतिष्ठा शक्ति और न्याय पर आधारित था। उसने अपने दोनों पुत्रों मुहम्मद एवं महमूद को राजत्व के सम्बन्ध में निर्देश दिया है। इसके अनुसार राजा का पद ईश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है अतः राजा का निरंकुश होना आवश्यक है। इसने दो उपाधियां नियावते खुदाई (राजा को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिध) जिले अल्लाह (ईश्वर का प्रतिबिम्ब) धारण की।
प्रतिष्ठा- बलबन ने स्वयं अर्थात राजा की तथा राज्य की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयास किया इसने अपने को एक अर्द्ध पौराणिक ईरानी योद्धा अफरासियाब का वंशज बताया। बलबन ने निम्न जाति के व्यक्तियों से मिलने से इंकार कर दिया। एक भारतीय मुसलमान फख्र बाउनी के लाख प्रयत्नों के बावजूद भी बलबन ने उससे मिलने से इंकार कर दिया। राज दरबार में तुर्की प्रभाव को कम करने के लिए फारसी परम्परा पर आधारित सिजदा (घुटनों पर बैठकर सिर को झुकाना) एवं पैंगोस (पैरों को चूमना) प्रचलन अनिवार्य कर दिया। फारसी रीति-रिवाज पर आधारित नये वर्ष के त्योहार नौरोज को मनाना प्रारम्भ किया। उसने दरबार में हसने बोलने, मजाक करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया उसके इन प्रयत्नों से राज्य की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
शक्ति:- राजा की शक्ति बढ़ाने के लिए बलबन ने अनेक कार्य किये। उसने चहलगानी को समाप्त कर दिया तथा अमीरों को अत्यन्त कड़े दण्ड दिये। पहली बार एक गुप्त चर विभाग वरीद-ए-मुमालिक की स्थापना की गई। (गुप्त चर व्यवस्था को संगठित करने वाला पहला सुल्तान अलाउद्दीन खिलाजी था) इसने एक सैन्य विभाग दीवाने अर्ज की भी स्थापना की। (पहली बार स्थाई सेना रखने वाला सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था) इस तरह से उसकी सैनिक शक्ति में वृद्धि हुई। मंगोल आक्रमणों से सुरक्षा के लिए उसने उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त में अनेक दुर्ग बनवाये उसका पुत्र मुहम्मद मंगोलों से लड़ता हुआ मारा गया। इसी कारण वह खाने शहीद के नाम से विख्यात हुआ। बरनी ने लिखा है कि इन्हीं सब उपायों के कारण वह दक्षिण की विजय पर ध्यान नही दे सका।
न्याय:- बलबन ने न्याय में किसी तरह का भेदभाव नही किया। उसने राजवंश से सम्बन्धित लोगों को भी अत्यधिक कड़े दण्ड दिये। बलबन के कड़े प्रयासों के कारण विद्रोहों के नगर के नाम से विख्यात लखनौती नगर के विद्रोह समाप्त हो गये। उसने यहाँ के शासक तुगरिल खाँ का कड़ाई से दमन किया।
बलबन ने पहली बार सिक (जिला) को प्रचलित किया। उसने इक्तादार पर नियंत्रण के लिए एक अन्य अधिकारी ख्वाजा की नियुक्ति की।
1287 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई बरनी ने लिखा है कि उसकी मृत्यु पर अमीरों ने चालीस-दिनों तक शोक मनाया और वे भूमि पर सोये। बलबन अपने सैन्य अभियानों को अन्त तक गुप्त रखता था।
बलबन का राजत्व सिद्धान्त:- बलबन का राजत्व सिद्धान्त प्रतिष्ठा शक्ति और न्याय पर आधारित था। उसने अपने दोनों पुत्रों मुहम्मद एवं महमूद को राजत्व के सम्बन्ध में निर्देश दिया है। इसके अनुसार राजा का पद ईश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है अतः राजा का निरंकुश होना आवश्यक है। इसने दो उपाधियां नियावते खुदाई (राजा को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिध) जिले अल्लाह (ईश्वर का प्रतिबिम्ब) धारण की।
प्रतिष्ठा- बलबन ने स्वयं अर्थात राजा की तथा राज्य की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयास किया इसने अपने को एक अर्द्ध पौराणिक ईरानी योद्धा अफरासियाब का वंशज बताया। बलबन ने निम्न जाति के व्यक्तियों से मिलने से इंकार कर दिया। एक भारतीय मुसलमान फख्र बाउनी के लाख प्रयत्नों के बावजूद भी बलबन ने उससे मिलने से इंकार कर दिया। राज दरबार में तुर्की प्रभाव को कम करने के लिए फारसी परम्परा पर आधारित सिजदा (घुटनों पर बैठकर सिर को झुकाना) एवं पैंगोस (पैरों को चूमना) प्रचलन अनिवार्य कर दिया। फारसी रीति-रिवाज पर आधारित नये वर्ष के त्योहार नौरोज को मनाना प्रारम्भ किया। उसने दरबार में हसने बोलने, मजाक करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया उसके इन प्रयत्नों से राज्य की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
शक्ति:- राजा की शक्ति बढ़ाने के लिए बलबन ने अनेक कार्य किये। उसने चहलगानी को समाप्त कर दिया तथा अमीरों को अत्यन्त कड़े दण्ड दिये। पहली बार एक गुप्त चर विभाग वरीद-ए-मुमालिक की स्थापना की गई। (गुप्त चर व्यवस्था को संगठित करने वाला पहला सुल्तान अलाउद्दीन खिलाजी था) इसने एक सैन्य विभाग दीवाने अर्ज की भी स्थापना की। (पहली बार स्थाई सेना रखने वाला सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था) इस तरह से उसकी सैनिक शक्ति में वृद्धि हुई। मंगोल आक्रमणों से सुरक्षा के लिए उसने उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त में अनेक दुर्ग बनवाये उसका पुत्र मुहम्मद मंगोलों से लड़ता हुआ मारा गया। इसी कारण वह खाने शहीद के नाम से विख्यात हुआ। बरनी ने लिखा है कि इन्हीं सब उपायों के कारण वह दक्षिण की विजय पर ध्यान नही दे सका।
न्याय:- बलबन ने न्याय में किसी तरह का भेदभाव नही किया। उसने राजवंश से सम्बन्धित लोगों को भी अत्यधिक कड़े दण्ड दिये। बलबन के कड़े प्रयासों के कारण विद्रोहों के नगर के नाम से विख्यात लखनौती नगर के विद्रोह समाप्त हो गये। उसने यहाँ के शासक तुगरिल खाँ का कड़ाई से दमन किया।
बलबन ने पहली बार सिक (जिला) को प्रचलित किया। उसने इक्तादार पर नियंत्रण के लिए एक अन्य अधिकारी ख्वाजा की नियुक्ति की।
1287 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई बरनी ने लिखा है कि उसकी मृत्यु पर अमीरों ने चालीस-दिनों तक शोक मनाया और वे भूमि पर सोये। बलबन अपने सैन्य अभियानों को अन्त तक गुप्त रखता था।
कैकुबाद एवं शम्सुद्दीन क्यूमर्स (1287-90)
बलबन की मृत्यु से पूर्व उसने स्वयं कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी निुयक्ति किया था। परन्तु दिल्ली के कोतवाल फखुरुद्दीन मोहम्मद ने कैकुबाद को गद्दी पर बैठाया। कैकुबाद ने अपना सेनापति जलालुद्दीन खिलजी को बनाया इसी बीच कैकुबाद को लकवा मार गया अतः सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूमर्स को सुल्तान घोषित कर दिया। जलालुद्दीन खिलजी ने क्यूमर्स का वध करके स्वयं गद्दी हथिया ली और एक नये वंश खिलजी वंश की नींव रखी।