प्रकाश (Light)
प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है जो आखों को संवेदित कर वस्तुओं के रंग रूप आदि का ज्ञान कराती है। प्रकाश के सन्दर्भ में सर्वप्रथम न्यूटन ने ’कणिका सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया था। उसके अनुसार प्रकाश छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना होता है लेकिन बाद में हाइगेन्स ने अपने सिद्धान्त में कहा कि प्रकाश तरंगों के रूप में गमन करता है जिसकी पुष्टि यंग ने अपने व्यतिकरण प्रयोगों द्वारा की परन्तु उसके द्वारा प्रकाश वैद्युत प्रभाव की व्याख्या नहीं की जा सकती। सन्- 1973 में मैक्सवेल ने बताया प्रकाश एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय तरंगे हैं परन्तु उसके द्वारा भी प्रकाश वैद्युत प्रभाव की व्याख्या नहीं की जा सकी। बाद में सन् 1905 में आइंस्टाइन ने बताया कि प्रकाश ऊर्जा के छोटे-छोटे बंडलों का समुच्चय है। इन बंडलों को फोटाॅन कहते हैं। आज के समय में प्रकाश के कुछ गुणों जैसे विवर्तन, व्यतिकरण ध्रुवीकरण आदि की व्याख्या तरंग प्रकृति के आधार पर तथा कुछ गुणों जैसे प्रकाश वैद्युत प्रभाव की व्याख्या प्रकाश के आइंस्टाइन के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। इस प्रकार से प्रकाश दो प्रकार के गुणों को प्रदर्शित करता है।
प्रकाश का वेग एवं रेखीय संचरण (Veloc ity of light and Rectilinear Propagation) :- प्रकाश की चाल सर्वप्रथम फोकाल्ट नामक वैज्ञानिक ने ज्ञात किया और बताया कि निर्वात या वायु में प्रकाश की चाल तीन लाख किलो मीटर प्रति सेकेंड होती है। प्रकाश की चाल माध्यम के अपवर्तनंाक पर भी निर्भर करती है। किसी माध्यम में प्रकाश की चाल को निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात किया जा सकता है- v = μc
जहाॅ v = माध्यम में प्रकाश की चाल।
μ = माध्यम का अपवर्तनांक।
c = निर्वात में प्रकाश की चाल।
प्रकाश की तरंगे सीधी रेखा में चलती हैं परन्तु रास्ते में कोई अवरोध पर ये अवरोधों के किनारों पर मुड़ जाती हैं। इस घटना को प्रकाश का विवर्तन कहतें हैं।
प्रिज्म द्वारा प्रकाश का वर्णविक्षेपण (Dispersion of light by Prism) :- सूर्य के प्रकाश की किरणें किसी प्रिज्म पर पड़ने के बाद सात रंगों में बट जाती हैं। इस प्रकार से प्राप्त रंगों के समूह को वर्णक्रम कहतें हैं। वर्णक्रम को परदे पर लेने पर ऊपर से नीचे की ओर जो क्रम प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी तथा बैगनी। प्रिज्म द्वारा बैगनी रंग का विक्षेपण सबसे अधिक तथा लाल रंग का विक्षेपण सबसे कम होता है क्योंकि लाल रंग के प्रकाश की तरंग दैध्र्य सबसे अधिक तथा बैगनी रंग की तरंग दैध्र्य सबसे कम होती है। बरसात के दिनों में आसमान में दिखायी देने वाला इन्द्रधनुष पूर्ण आन्तरिक परावर्तन तथा अपवर्तन द्वारा वर्ण विक्षेपण का एक अच्छा उदाहरण है।
प्रकाश का प्रकीर्णन(Scattering of light) :- प्रकाश जब वायुमंडल से होकर गुजरता है तो रास्ते में पड़ने वाले धूल, धुएँ आदि के कणों से टकराने के कारण इसका प्रकीर्णन हो जाता है। जिस रंग के प्रकाश की तरंग दैध्र्य सबसे कम होती है, उसका प्रकीर्णन सबसे अधिक तथा जिस रंग के प्रकाश की तरंग दैध्र्य अधिक होती है, उसका प्रकीर्णन सबसे कम होता है। आकाश का नीला दिखायी देना प्रकीर्णन के कारण ही होता है क्योंकि बैगनी रंग का तरंग दैध्र्य कम होने के कारण इसका प्रकीर्णन सर्वाधिक होता है। अन्य रंग भी कुछ न कुछ प्रकीर्णित होते हैं। अतः हल्के नीले रंग का मिश्रित रंग आकाश का हो जाता है। प्रकाश के रंगों का प्रकीर्णन निम्न क्रम में होता है।
बैगनी-जामुनी-नीला-हरा-पीला-नारंगी-लाल / प्रकीर्णन घटते हुए क्रम में
परन्तु सूर्य के डूबते या उगते समय प्रकाश अधिक दूरी तय कर हम तक पहुॅचता है। अतः अन्य रंगों का प्रकीर्णन हो जाता है और लाल रंग जिसका प्रकीर्णन सबसे कम होता है सिर्फ वही बचता है जिससे उस समय सूर्य लाल दिखायी देता है। खतरे के सिग्नलों में लाल रंग का उपयोग इसीलिए करते हैं। क्योंकि लाल रंग का प्रकीर्णन कम होने के कारण यह हमें दूर से ही दिखायी देता है।
प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण (Interference of light Waves) :- व्यतिकरण की खोज थाॅमस यंग नामक वैज्ञानिक ने किया था। व्यतिकरण से प्रकाश के तरंग प्रवृत्ति की पुष्टि होती है। जब किसी स्रोत से समान आवृत्ति तथा समान आयाम की तंरगें चलती हैं तो माध्यम में कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिक तथा कुछ पर कम होती है। इस घटना को व्यतिकरण कहतें हैं। जिन स्थानों पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम होती है। उन बिन्दुओं पर व्यतिकरण को संपोषी व्यतिकरण तथा जिन स्थानों पर प्रकाश की तीव्रता न्यूनतम होती है, उन स्थानों पर हुए व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण कहतें हैं। जल की सतह पर फैले हुए मिट्टी के तेल की परतों का रंगीन दिखायी देना तथा साबुन के बुलबुलों का रंगीन दिखायी देना व्यतिकरण के कारण ही होता है।
प्रकाश तरंगों का ध्रुवण (Polarisation of light) :- प्रकाश तरंगें विद्युत चुम्बकीय अनुप्रस्थ तरंगे होती हैं। इनमें विद्युत व चुम्बकीय क्षेत्र एक दूसरे के परस्पर लम्बवत् होते हैं व तरंग के संचरण की दिशा में परस्पर लम्बवत कम्पन करतें हैं। जब ये कम्पन तल में स्थिर हर दिशा में अनियमित रूप से वितरित होते हैं तो इस प्रकार की तरंग को अधु्रवित तरंग कहतें हैं। विद्युत वल्ब, ट्यूबलाइट दीपक, आदि से निकलने वाली तरंगे अधु्रवित तरंगें होती है। यदि ये कम्पन सभी दिशाओं में वितरित न होकर एक ही दिशा में हों तो ऐसी प्रकाश तरंगों को घु्रवीय तरंगे कहतें हैं। घु्रवीय प्रकाश उत्पन्न करने के लिए पोलेराइडों का उपयोग किया जाता है। गाड़ियों के हेड लाइटों के प्रकाश की चकाचैंध को रोकने के लिए पोलेराइडों का उपयोग किया जाता है तथा 3 -D फिल्मों को देखने के लिए पोलेराइड ग्लास युक्त चश्मों का प्रयोग किया जाता है।
वस्तुओं का रंग (Colour of object ) :- कोई वस्तु हमें तभी दिखाई देती है जब वह अपने ऊपर पड़ने वाली प्रकाश की किरणों को परावर्तित करती हैं और किसी वस्तु का रंग भी इसी बात पर निर्भर करता है कि वह किस रंग की किरणों को परावर्तित करती है जैसे यदि कोई वस्तु हमें लाल दिखायी दे रही है तो इसका अर्थ है कि वह प्रकाश किरणों में उपस्थित अन्य रंगों को तो अवशेषित कर ले रही है और वह सिर्फ लाल रंग वाले भाग को परावर्तित कर रही है। यदि कोई वस्तु काली दिखायी दे रही है तो इसका मतलब है कि वह अपने ऊपर पड़ने वाली सभी किरणों को अवशोषित कर ले रही है। जबकि किसी वस्तु का सफेद दिखाई देने का अर्थ है कि वह अपने ऊपर पड़ने वाली सभी रंग के प्रकाश की किरणों को परावर्तित कर दे रही है।
प्रकाश का परावर्तन (Reflection of light) :- जब प्रकाश की किरणें किसी समतल पृष्ठ पर पड़ती हैं तो इसका अधिकांश भाग पृष्ठ से टकराकर वापस आ जाती है, इस घटना को प्रकाश का परावर्तन कहतें हैं। दर्पण एक अच्छा परावर्तक पृष्ठ होता है। परावर्तन में दर्पण पर पड़ने वाली किरण को आपतित किरण, परावर्तक पृष्ठ के लम्बवत् सीधी रेखा को अभिलम्ब दर्पण के पृष्ठ से टकराकर लौटने वाली किरण को परावर्तित किरण, आपतित किरण तथा अभिलम्ब के बीच कोण को आपतन-कोण तथा अभिलम्ब व परावर्तित किरण के बीच के कोण को परावर्तन कोण कहतें हैं। प्रकाश का परार्वतन दो नियमों के अन्तर्गत होता है।
(a) आपतित किरण, अभिलम्ब व परावर्तित किरण एक ही समतल में होती हैं।
(b) आपतन कोण का मान परावर्तन कोण के बराबर होता है।
दर्पण तीन प्रकार के होतें हैं। समतल, अवतल तथा उत्तल दर्पण।
1 – समतल दर्पण (Plane of mirror) :- समतल दर्पण से बनने वाला प्रतिबिम्ब आकार में वस्तु के बराबर होता है और आभासी होता है क्योंकि इससे बनने वाले प्रतिबिम्ब को पर्दें पर नहीं लिया जा सकता है। इस दर्पण से बने प्रतिबिम्ब में पाश्र्व उत्क्रमण होता है अर्थात् दर्पण के सामने खडे़ होने पर प्रतिबिम्ब मे शरीर का बांया भाग दाहिने तरफ तथा दायां भाग बायीं तरफ दिखायी पड़ता है। समतल दर्पण से बना वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी ही दूर बनता है जितनी दूर दर्पण से वस्तु होती है। समतल दर्पण से अपना पूरा प्रतिबिम्ब देखने के लिए दर्पण की लम्बाई शरीर की लम्बाई की आधी होनी चाहिए। यदि किसी दर्पण की तरफ V वेग से जाया जाये तो प्रतिबिम्ब दुगुने वेग 2V से आता दिखायी पड़ता है। समतल दर्पण का उपयोग चेहरा देखने के लिए तथा बहुमूर्तिदर्शी जैसे यंत्रों में किया जाता है।
2 – अवतल दर्पण (Convave mirror) :- इस दर्पण का एक तल उभरा हुआ होता है, उभरे हुए तल पर पाॅलिस कर दी जाती है। इस दर्पण पर पड़ने वाली किरणें फोकस से होकर वापस लौटती हैं। इस दर्पण का उपयोग सोलर कुकर, कान व नाक की जाॅच करने वाले यंत्रों में, सर्चलाइट में तथा गाड़ियों के हेडलाइट में करते हैं।
3 – उत्तल दर्पण (Convex mirror) :- इस दर्पण में उभरे हुए तल को परावर्तक पृष्ठ की तरह प्रयोग करते हैं तथा दबे हुए सतह पर पाॅलिश करते हैं। उत्तल दर्पण से बनने वाले प्रतिबिम्ब वस्तु से छोटे सीधे तथा आभासी होते हैं। इस दर्पण का उपयोग गाड़ियों में पीछे की वस्तुओं को देखने के लिए बेैक मिरॅर के रूप में करते हैं।
प्रकाश का प्रवर्तन Refraction of light) :- प्रकाश की किरणें जब एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करती हैं तो अपने पथ से विचलित हो जाती हैं। प्रकाश का इस प्रकार एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करते समय अपने पथ से विचलित होना ही प्रकाश का अपवर्तन कहलाता है। प्रकाश का अपवर्तन निम्नलिखत नियमों के अन्तर्गत होता है।
(a) आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा अभिलम्ब एक ही समतल में स्थित होते हैं।
(b) किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण के Sine तथा अपवर्तन कोण के Sine पदम का अनुपात एक नियतांक होता है। इसे स्नैल का नियम भी कहतें हैं।
Sine/Sine = नियतांक = μ (माध्यम का अपवर्तनांक) प्रकाश की किरणें
जब सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती हैं तो अभिलम्ब से दूर हट जाती हैं इसी प्रकार विरल माध्यम से सघन माध्यम मे प्रवेश करने पर अभिलम्ब के पास आ जाती हैं। पानी में पड़ी मछली, या कोई वस्तु अपवर्तन के कारण ही ऊपर दिखायी देती है, यदि किसी चम्मच को पानी में आधा बाहर और आधा अन्दर रखा जाये तो चम्मच तिरक्षा दिखायी देता है। यह भी अपवर्तन के कारण ही होता है। इसी तरह तारों का टिमटिमाना भी अपवर्तन के कारण होता है क्योकि वायुमंडल में सघनता भिन्न-भिन्न स्थानो पर अलग-अलग होती है जिससे तारों से आने वाले प्रकाश का अपवर्तन होता रहता है और तारे हमें टिमटिमाते हुए दिखायी देते हैं। यदि कोई वस्तु μ अपवर्तनांक वाले द्रव में रखी है तथा द्रव में आभासी गहराई x¹ मीटर है तो उसकी वास्तविक गहराई होगीः वास्तविक गहराई (x) = आभासी गहराई (x¹)x अपवर्तनांक μ
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन (Total internal reflection) :- जब प्रकाश की किरणें सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती हैं तो अभिलम्ब से दूर हटती जाती हैं। यदि आपतन कोण का मान बढ़ाते जाये तो एक स्थिति ऐसी आती है जिसके लिए परवर्तन कोण का मान 90º हो जाता है। आपतन कोण के इस मान को क्रान्तिक कोण कहतें हैं। क्रान्तिक कोण का मान जल के लिए 48.5º तथा हीरे के लिए 24.4º होता है। यदि आपतन कोण का मान क्रान्तिक कोण से थोड़ा अधिक करदें तो प्रकाश की किरणें विरल माध्यम में न जाकर सघन माध्यम में वापस आ जायेंगी। इस घटना को पूर्ण परावर्तन कहतें हैं। हीरे का चमकना तथा अप्टिकल फाइबर की कार्यप्रणाली इसी सिद्धान्त के अन्तर्गत आती हैं। आप्टिल फाइबर का प्रयोग प्रकाशीय तथा विद्युत सिग्नलों को भेजने के लिए मेडिकल व टेलीफोन के क्षेत्र में किया जाता है। मृग मरीचिका रेगिस्तानी क्षेत्रों मे गर्मी के दिनों में पानी का भ्रम पैदा करती है। इसका कारण भी पूर्ण आन्तरिक परावर्तन ही है।
लेंन्स (Lenses) :- लेंस मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं अवतल तथा उत्तल। अवतल लेंस बीच में पतला तथा किनारों पर मोटा होता है। इसे अपसारी लेंस भी कहतें हैं क्योंकि यह अनंत से आने वाली किरणों को फैलाता है और उत्तल में मोटा तथा किनारों पर पतला होता है। इसे अभिसारी लेंस भी कहतें हैं कयोंकि यह अनन्त से आने वाली किरणों को एक जगह केन्द्रित करता है। लेंस के दोनो वक्रता केन्द्रों को जोड़ने वाली रेखा को उसका मुख्य अक्ष कहतें हैं। लेंस के मध्य बिन्दु को लेंस का प्रकाशिक केन्द्र कहतें हैं। अवतल लेंस में जिस बिन्दु से चलने वाली किरणें अपवर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष के समांतर हो जाती है, उसे लेंस का फोकस कहतें हैं और उत्तल लेंस में मुख्य अक्ष के समांतर आने वाली किरणें जिस बिन्दु पर आकर केन्द्रित हो जाती हैं उसे उत्तल लेंस का फोकस कहतें हैं। प्रकाशिक केन्द्र से फोकस की दूरी को फोकस दूरी कहतें हैं।
लेंसो की क्षमता (Power of Lenses) :- किसी लेंस की क्षमता उसके फोकस दूरी के व्युत्क्रमानुपाती जब फोकस दूरी मीटर में मापी जाये।
लेंस की क्षमता (P) = 1/फोकस दूरी (मी0 में)
लेंसों की क्षमता का मात्रक डायोप्टर होता है। समतल काॅच की क्षमता शून्य होती है। उत्तल लेंस की क्षमता को धनात्मक तथा अवतल लेंस की क्षमता को ऋणात्मक डायोप्टर में मापते हैं। यदि दो लेंसों को आपस में जोड़ दिया जाये तो उसकी क्षमता दोनों लेंसो की क्षमता के योग के बराबर होगी।
यदि लेंसो को द्रव में डुबोया जाये तो उनकी क्षमता तथा प्रकृति परावर्तित हो सकती है जैसे यदि किसी लेंस को लेंस के पर्दा से कम अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबोया जाये तो लेंस के पदार्थ से कम अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबोया जाये तो लेंस की प्रकृति तो नहीं बदलती है परन्तु लेंस की क्षमता घट जाती है। इसी तरह से लेंस को समान अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबाने पर लेंस समतल प्लेट की भाॅति व्यवहार करने लगता है। परन्तु यदि किसी लेंस को उसके पदार्थ के अपवर्तनांक से अधिक अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबोया जाय तो लेंस की प्रकृति बदल जाती है अतः उत्तल लेंस अवतल लेंस की भाॅति व्यवहार करने लगता है तथा अवतल उत्तल की भाॅति। इसी कारण से पानी में हवा का बुलबुला अवतल लेंस की भाॅति व्यवहार करता है।
लेंस द्वारा आवर्धनः- लेंस द्वारा बने किसी वस्तु के प्रतिबिम्ब की लम्बाई तथा वस्तु की लम्बाई के अनुपात को रेखीय आवर्धन कहतें हैं।
रेखीय m = प्रतिबिम्ब की लम्बाई / वस्तु की लम्बाई
प्रदीप्त वस्तुएँ :- वे वस्तुएं जो स्वयं प्रकाश उत्पन्न करती हैं। जैसे सूर्य, तारे, विद्युत वल्ब आदि।
अप्रदीप्त वस्तुएँ :- स्वयं प्रकाश उत्पन्न नहीं करती हैं। जैसे मेज, कुर्सी, दीवारें, चन्द्रमा आदि।
स्नैल का नियम – इनकेे अनुसार किन्हीं दो माध्यमों के लिए तथा एक ही रंग के प्रकाश के लिए आपतन कोण की ज्या (Sine) तथा अपवर्तन कोण की ज्या (Sine) का अनुपात एक नियतांक होता है।
Sine i /Sin r = नियतांक
मुख्य फोकस :- जब किसी दर्पण पर मुख्य अक्ष के समान्तर प्रकाश-किरणें आपतित होती हैं, तब परावर्तन के पश्चात् वे जिस बिन्दु से होकर जाती हैं या जिस बिन्दु से आती हुई प्रतीत होती है उसे दर्पण का मुख्य फोकस कहतें हैं।
मुख्य अक्ष :- दर्पण के वक्रता केन्द्र तथा धु्रव अक्ष को मिलाने वाली रेखा को दर्पण का मुख्य अक्ष कहतें हैं।
प्रकाशिक केन्द्र :- लेंस के मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दु जिससे होकर जाने वाली प्रकाश किरण अपवर्तन के बाद आपतित किरण के समानान्तर निकलती है, प्रकाशिक केन्द्र कहलाता है।
क्रांतिक कोण :- सघन माध्यम में वह आपतन कोण है जिसके लिए विरल माध्यम में अपवर्तन कोण 90ºC होता है। इसका मान दोनों माध्यमों तथा प्रकाश के रंग पर निर्भर करता है।
लेंसो की अभिसारी एवं अपसारी क्रियाएं :- उत्तल लेंस प्रकाश किरणो को एक बिन्दु पर एकत्रित करता है। इस कारण इस लेन्स को अभिसारी लेंस कहतें हैं। इसके विपरीत अवतल लेंस इसके विपरीत अवतल लेंस पर गिरने वाली किरणें लेंस के दोनों पृष्ठों से अपवर्तित होकर मुख्य अक्ष से बाहर की ओर विभिन्न कोणों से मुड़ जाती हैं तथा फैलकर अधिक दूर-दूर हो जाती हैं। अतः इन्हें अपसारी लेंस कहतें हैं।
फोटो मीटर :- यह एक प्रकार का उपकरण है जिसका प्रयोग प्रकाश के दो स्रोतों की प्रदीप्त क्षमता की तुलना में किया जाता है। सामान्यतः रम्फोर्ड फोटोमीटर और बुन्सेन का ग्रीज स्पाॅट फोटोमीटर का प्रयोग किया जाता है।
अवरक्त किरण :- दृश्य वर्णकपट के दोनों ओर अदृश्य विकिरण रहता है, जो दृष्टि संवेदना उत्पन्न नहीं करता है। दृश्य वर्णपट के लाल छोर के बाहर जो विकिरण रहता है, उसे ही अवरक्त विकिरण कहा जाता है। इसका तंरग दैध्र्य 40000,000 Aº तक होता है।
पराबैगनी किरण :- द्श्य वर्णपट के बैगनी रंग वाले छोर के बाहर 1000 Aº तरंग दैध्र्य के विकिरण को पराबैगनी विकिरण कहा जाता है।