भारतीय संघ व्यवस्था
भारतीय संघ व्यवस्था के संविधान द्वारा क्षेत्र के आधार पर शक्तियों का जो विभाजन या केन्द्रीकरण किया जाता है उस दृष्टि से दो प्रकार की शासन व्यवस्थाएं होती हैं: एकात्मक शासन और संघात्मक शासन। भारत क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से अत्यधिक विशाल और बहुत अधिक विविधताओं से परिपूर्ण है, ऐसी स्थिति में भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को ही अपनाना स्वाभाविक था और भारतीय संविधान के द्वारा ऐसा ही किया गया है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि ’’भारत, राज्यों का एक संघ होगा।’’ लेकिन संविधान-निर्माता संघीय शासन को अपनाते हुए भी भारतीय संघ व्यवस्था की दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए उत्सुक थे और इस कारण भारत के संघीय शासन में एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है। वास्तव में, भारतीय संघ व्यवस्था में संघीय-शासन के लक्षण प्रमुख रूप से और एकात्मक शासन के लक्षण गौण रूप से विद्यमान हैं।
भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण
भारतीय संघ व्यवस्था में संघात्मक शासन के प्रमुख रूप से चार लक्षण कहे जा सकते हैं: (1) संविधान की सर्वाेच्चता, (2) संविधान के द्वारा केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों में शक्तियों का विभाजन, (3) लिखित और कठोर संविधान, (4) स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय। भारतीय संविधान में संघात्मक शासन के ये सभी प्रमुख लक्षण विद्यमान हैं।
(1) संविधान की सर्वोच्चता:-भारतीय संविधान इस देश का सर्वोच्च कानून है। इस संविधान की व्यवस्थाएं केन्द्रीय सरकार और सभी रज्य सरकारों पर बन्धनकारी हैं और किसी भी सरकार द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इस देश में कोई भी शक्ति संविधान से ऊपर नहीं है।
(2) शक्तियों का विभाजन:-विश्व के अन्य संघात्मक संविधानों की तरह भारतीय संविधान द्वारा भी संघ और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है। संघ सूची में 99 विषय हैं जिन पर संघीय शासन को क्षेत्राधिकार प्राप्त है। राज्य सूची के विषयों की संख्या 61 हैं। ये विषय सामान्य परिस्थितियों में राज्य सरकारों के अधिकार में हैं। समवर्ती सूची में विषयों की संख्या 52 है जिन पर संघ तथा राज्य दोनों को क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।
(3) लिखित और कठोर संविधान:-भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है और संविधान में संशोधन की दृष्टि से कठोर भी है, क्योंकि इस संविधान में साधारण कानून बनाने की पद्धति से भिन्न पद्धति के आधार पर परिवर्तन किया जा सकता है।
(4) स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय:-भारतीय संविधान के द्वारा संविधान के संरक्षण के रूप में कार्य करने के लिए एक स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था की गयी है। संविधान ने एक सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की स्थापना की हे, जिन्हें संघीय संसद या राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित किसी भी ऐसे कानून को अवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त है, जो संविधान की व्यवस्थाओं के विरूद्ध हों। न्यायालयों की जो व्यवस्था संघात्मक शासन के पूर्णतया अनुकूल है।
स्ंविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एक पूर्ण संघात्मक व्यवस्था की स्थापना करता है।
(1) संविधान की सर्वोच्चता:-भारतीय संविधान इस देश का सर्वोच्च कानून है। इस संविधान की व्यवस्थाएं केन्द्रीय सरकार और सभी रज्य सरकारों पर बन्धनकारी हैं और किसी भी सरकार द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इस देश में कोई भी शक्ति संविधान से ऊपर नहीं है।
(2) शक्तियों का विभाजन:-विश्व के अन्य संघात्मक संविधानों की तरह भारतीय संविधान द्वारा भी संघ और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है। संघ सूची में 99 विषय हैं जिन पर संघीय शासन को क्षेत्राधिकार प्राप्त है। राज्य सूची के विषयों की संख्या 61 हैं। ये विषय सामान्य परिस्थितियों में राज्य सरकारों के अधिकार में हैं। समवर्ती सूची में विषयों की संख्या 52 है जिन पर संघ तथा राज्य दोनों को क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।
(3) लिखित और कठोर संविधान:-भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है और संविधान में संशोधन की दृष्टि से कठोर भी है, क्योंकि इस संविधान में साधारण कानून बनाने की पद्धति से भिन्न पद्धति के आधार पर परिवर्तन किया जा सकता है।
(4) स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय:-भारतीय संविधान के द्वारा संविधान के संरक्षण के रूप में कार्य करने के लिए एक स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था की गयी है। संविधान ने एक सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की स्थापना की हे, जिन्हें संघीय संसद या राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित किसी भी ऐसे कानून को अवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त है, जो संविधान की व्यवस्थाओं के विरूद्ध हों। न्यायालयों की जो व्यवस्था संघात्मक शासन के पूर्णतया अनुकूल है।
स्ंविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एक पूर्ण संघात्मक व्यवस्था की स्थापना करता है।
भारतीय संघ व्यवस्था में एकात्मक लक्षण अथवा भारतीय संघ की विषेषताएं
भारतीय संघ व्यवस्था भारत एक अत्यन्त विशाल और विविधतापूर्ण देश होने के कारण संविधान-निर्माताओं के द्वारा भारत में संघात्मक शासन की स्थापना करना उपयुक्त समझा गया, लेकिन संविधान-निर्माता भारतीय इतिहास के इस तथ्य से भी परिचित थे कि भारत में जब-जब केन्द्रीय सत्ता दुर्बल हो गयी, तब-तब भारत की एकता भंग हो गयी और उसे पराधीन होना पड़ा। इसके अतिरिक्त, संविधान-निर्माता इस बात से भी परिचित थे कि वर्तमान समय के सभी संघात्मक राज्यों में विविध उपायों से केन्द्रीय सत्ता को पहले से अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। अतः संघात्मक व्यवस्था को अपनाते हुए भी संविधान-निर्माताओं ने केन्द्रीय सत्ता को अधिक शक्तिशाली बनाना उचित समझा। अतः भारती संविधान द्वारा स्थापित संघात्मक व्यवस्था में अनेक एकात्मक लक्षणों को भी यथास्थान देखा जा सकता है। इन्हें ही भारतीय संघ की विशेषताएं कहा जा सकता है। संविधान के ये एकात्मक लक्षण प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं:
(1) शक्ति का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:- भारतीय संघ व्यवस्था में भारतीय संविधान द्वारा संघ और राजयों के बीच शक्ति विभाजन तो किया गया है, लेकिन शक्ति विभाजन की इस सम्पूर्ण योजना में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बहुत अधिक प्रबल है। इस शक्ति विभाजन का रूप है: केन्द्रीय सूची में 99 विषय, राज्य सूची में 61 विषय और समवर्ती सूची में 51 विषय। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों को ही कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है, लेकिन इन दोनों द्वारा निर्मित कानून में पारस्परिक विरोध की स्थिति में संघीय सरकार के कानून ही मानय होंगे। इस प्रकार संघीय सरकार को राज्य सरकारों की तुलना में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त, सुरक्षा, जल-थल और वायु शक्ति, रेलवे, मुद्रा और वैदेशिक सम्बन्ध, आदि सभी महत्वपूर्ण विषय अकेली संघीय सरकार के अधिकार में हैं और कनाडा के संघ की तरह अवशेष शक्तियां भी केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हैं।
(2) इकहरी नागरिकता:- भारत में संयुक्त राज्य अमरीका आदि राज्यों की तरह दोहरी नागरिकता नहीं, वरन् एक ही भारतीय नागरिकता की व्यवस्था है। इकहरी नागरिकता की यह व्यवस्था भारत की एकता को बनाये रखने की दृष्टि से उचित होते हुए भी उसे संघात्मक शासन के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।
(3) संघ और राज्यों के लिए एक ही संविधान:- साधारणतया संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों के संविधान संघ से पृथक् होते हैं, लेकिन भारत में भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघ के संविधान के साथ-साथ राज्यों के संविधान भी सम्मिलित हैं।
(4) एकीकृत न्याय-व्यवस्था:-भारतीय संघ में अमरीका या आस्ट्रेलिया के संघ की तरह दोहरी न्याय व्यवस्था का प्रबन्ध करने के स्थान पर न्यायपालिका को बहुत अधिक सीमा तक एकीकृत कर दिया गया है। राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय की ही शाखाएं हैं, सर्वोच्च न्यायालय को उन उच्च न्यायालयों पर व्यापक क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है और उच्च न्यायालयों का निर्माण तथा गठन संघीय सत्ता के द्वारा ही किया जाता है। दिल्ली स्थिति सर्वोच्च न्यायालय देश की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था के शिखर पर स्थित है और यह केवल एक संघीय न्यायालय ही नहीं, वरन् सर्वोचच अपीलीय न्यायालय है।
(5) संसद राज्यों की सीमाओं के परिवर्तन में समर्थ:-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि उसे द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र में कमी या वृद्धि की जा सकती है, राज्यों के नामों में परिवर्तन किया जा सकता है अथवा दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर किसी नवीन राज्य का निर्माण किया जा सकता है।
(6) भारतीय संविधान संकटकाल में एकात्मक:-भारतीय संघ व्यवस्था में संघात्मक व्यवस्थाएं शान्तिकाल और संकटकाल दोनों में ही संघात्मक बनी रहती हैं, लेकिन भारतीय संविधान की विशेषता यह है कि सामान्य काल में तो संघात्मक बना रहेगा, लेकिन संकट के समय इसे बिना किसी प्रकार के औपचारिक संशोधन के एकात्मक व्यवस्था का रूप दिया जा सकता है। संकटकाल की घोषणा के क्रियाशील रहने के समय संघीय संसद द्वारा राज्य सूची के विषयों पर भी कानूनों का निर्माण किया जा सकेगा और संघीय शासन के द्वारा राज्य सरकारों को उनके निश्चित क्षेत्र में भी आवश्यक निर्देश दिये जा सकेंगे। इस प्रकार संकटकाल में राज्यों की स्वतन्त्रता का पूर्णतया अन्त हो जाएगा।
(7) सामान्य काल में भी संघीय सरकार की असाधारण शक्तियां:- संविधान द्वारा सामानय काल में भी संघीय सरकार को असाधारण शक्तियां प्रदान की गयी हैं। अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रीय हित में अल्पकाल के लिए संघीय संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार दे सकती है। अनुच्छेद 252 के अनुसार संघीय संसद को इस प्रकार का अधिकार दो या अधिक राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा प्रस्ताव पास करके भी दिया जा सकता है, इसके अतिरिक्त, किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौते के पालन के लिए भी संघ को सामान्य काल में भी राज्य सूची के विषयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त है जो निश्चित रूप में एकात्मक शासन व्यवस्था का ही एक लक्षण है।
(8) मूलभूत विषयों में एकरूपता:- भारतीय संघ व्यवस्था मेंसामान्यतया संघात्मक राज्यों में दोहरा कानूनी प्रशासन तथा दोहरी न्यायिक व्यवस्था होती है, किनतु भारत में उन समस्त मूलभूत विषयों के सम्बन्ध मेंख् जो राष्ट्र की एकता बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं, एकरूपता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से तीन उपाय अपनाये गये हैं: (क) न्यायपालिका का एकीकृत ढांचा, (ख) सारे देश में फौजदारी और दीवानी कानूनों में समानता, (ग) संघ और विभिन्न राज्यों के प्रमुख पदों के लिए सामान्य अखिल भारतीय सेवाएं।
इसी प्रकार सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग तथा वित्तीय प्रशासन के लिए एक ही ’नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक’ के पद की व्यवस्था है।
(9) राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा:-भारतीय संघ व्यवस्था में भारत में राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यपाल बहुत कुछ सीमा तक राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में ही कार्य करता है। राज्यपाल की नियुक्ति और कार्य की यह विधि संघात्मक व्यवस्था के सिद्धान्तों के अनुसार नहीं है।
(10) राज्य सभा में इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व नहीं:-संयुक्त राज्य अमरीका, स्विट्जरलैण्उ, आस्ट्रेलिया और अन्य संघात्मक राज्यों में संघ की छोटी-बड़ी इकाइयों को संघीय व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन में समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है, लेकिन भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्य सभा में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है। भारतीय संविधान में इकाइयों की समान स्थिति को स्वीकार न किये जाने के कारण भी इसे संघात्मक व्यवस्था के अनुरूप नहीं कहा जा सकता है।
(11) आर्थिक दृष्टि से राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता:-राज्य वित्तीय दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के स्थान पर केन्द्र पर निर्भर हैं। केन्द्र के द्वारा राज्यों को विभिन्न प्रकार के अनुदान आदि दिये जाते हैं और आर्थिक सहायता के कारण केन्द्र राज्य पर छाया रहता है। वित्तीय क्षेत्र में आत्मनिर्भर न होने के कारण राज्यों की स्वायत्तता नाममात्र की ही है।
(12) संविधान के संशोधन में संघ को अधिक शक्तियां प्राप्त होना:- भारतीय संघ व्यवस्था में संशोधन से सम्बन्धित उपबन्ध भी राज्य सरकारों पर संघ की सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर बल देते हैं। संविधान के अनेक उपबन्धों को तो संघीय संसद के द्वारा साधारण कानूनों के निर्माण की प्रक्रिया से ही संशोधित किया जा सकता है और दूसरे कुछ महत्वपूर्ण उपबन्धों को अकेली संघीय संसद के दोनों सदनों द्वारा अपने दो-तिहाई बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। संविधान के केवल कुद ही ऐसे उपबन्ध हैं, जिनके संशोधन के लिए आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति भी आवश्यकता होती है। राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा संवैधानिक संशोधन का कोई विधेयक प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अन्य किसी भी सध के राज्यों की तुलना में भारतीय संघ व्यवस्था में राज्यों को संवैधानिक संशोधन की बहुत कम शक्ति प्राप्त है।
(13) अन्तर्राज्य परिषद् और क्षेत्रीय परिषदें:- भारतीय संघ व्यवस्था में संविधान के अनुच्छेद 263 के अनुसार राष्ट्रपति को अन्तर्राज्य परिषद की नियुक्ति का अधिकार है जिसका कार्य राज्यों के आपसी विवादों की जांच करना और सामान्य हित के विषयों पर विचार करना होगा। इसके अलावा 1956 के ’राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ के अन्तर्गत ’क्षेत्रीय परिषदों’ र्;वदंस ब्वनदबपसेद्ध की स्थापना की गयी थी और 1971 में उत्तरी-पूर्वी सीमा के 5 राज्यों और 2 केन्द्र-शासित क्षेत्रों के लिए, ’पूर्वाेत्तर सीमान्त परिषद’ की स्थापना की गयी है। वास्तव में अन्तर्राज्य परिषद् और क्षेत्रीय परिषदें राज्यों के कार्य में समन्वय की दिशा में ही उठाये गये कदम हैं।
(14) भारतीय संघ व्यवस्था में संघीय क्षेत्र:- भारतीय संघ में दो प्रकार की इकाइयां हैं-(क) राज्य, और (ख) संघीय क्षेत्र। वर्तमान समय में 7 संघीय क्षेत्र हैं। संघ के राज्यों को तो राज्य सूची के विषयों पर लगभग पूर्ण अधिकार प्राप्त है, किन्तु संघीय क्षेत्रों के सम्बनध में केन्द्र को नियन्त्रण की प्रभावशाली शक्तियां प्राप्त हैं। संसद को इन क्षेत्रों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है और इन क्षेत्रों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है और इन क्षेत्रों का प्रशासन राष्ट्रपति अपने द्वारा नियुक्त अधिकारियों की सहायता से करता है।
(1) शक्ति का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:- भारतीय संघ व्यवस्था में भारतीय संविधान द्वारा संघ और राजयों के बीच शक्ति विभाजन तो किया गया है, लेकिन शक्ति विभाजन की इस सम्पूर्ण योजना में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बहुत अधिक प्रबल है। इस शक्ति विभाजन का रूप है: केन्द्रीय सूची में 99 विषय, राज्य सूची में 61 विषय और समवर्ती सूची में 51 विषय। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों को ही कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है, लेकिन इन दोनों द्वारा निर्मित कानून में पारस्परिक विरोध की स्थिति में संघीय सरकार के कानून ही मानय होंगे। इस प्रकार संघीय सरकार को राज्य सरकारों की तुलना में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त, सुरक्षा, जल-थल और वायु शक्ति, रेलवे, मुद्रा और वैदेशिक सम्बन्ध, आदि सभी महत्वपूर्ण विषय अकेली संघीय सरकार के अधिकार में हैं और कनाडा के संघ की तरह अवशेष शक्तियां भी केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हैं।
(2) इकहरी नागरिकता:- भारत में संयुक्त राज्य अमरीका आदि राज्यों की तरह दोहरी नागरिकता नहीं, वरन् एक ही भारतीय नागरिकता की व्यवस्था है। इकहरी नागरिकता की यह व्यवस्था भारत की एकता को बनाये रखने की दृष्टि से उचित होते हुए भी उसे संघात्मक शासन के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।
(3) संघ और राज्यों के लिए एक ही संविधान:- साधारणतया संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों के संविधान संघ से पृथक् होते हैं, लेकिन भारत में भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघ के संविधान के साथ-साथ राज्यों के संविधान भी सम्मिलित हैं।
(4) एकीकृत न्याय-व्यवस्था:-भारतीय संघ में अमरीका या आस्ट्रेलिया के संघ की तरह दोहरी न्याय व्यवस्था का प्रबन्ध करने के स्थान पर न्यायपालिका को बहुत अधिक सीमा तक एकीकृत कर दिया गया है। राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय की ही शाखाएं हैं, सर्वोच्च न्यायालय को उन उच्च न्यायालयों पर व्यापक क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है और उच्च न्यायालयों का निर्माण तथा गठन संघीय सत्ता के द्वारा ही किया जाता है। दिल्ली स्थिति सर्वोच्च न्यायालय देश की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था के शिखर पर स्थित है और यह केवल एक संघीय न्यायालय ही नहीं, वरन् सर्वोचच अपीलीय न्यायालय है।
(5) संसद राज्यों की सीमाओं के परिवर्तन में समर्थ:-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि उसे द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र में कमी या वृद्धि की जा सकती है, राज्यों के नामों में परिवर्तन किया जा सकता है अथवा दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर किसी नवीन राज्य का निर्माण किया जा सकता है।
(6) भारतीय संविधान संकटकाल में एकात्मक:-भारतीय संघ व्यवस्था में संघात्मक व्यवस्थाएं शान्तिकाल और संकटकाल दोनों में ही संघात्मक बनी रहती हैं, लेकिन भारतीय संविधान की विशेषता यह है कि सामान्य काल में तो संघात्मक बना रहेगा, लेकिन संकट के समय इसे बिना किसी प्रकार के औपचारिक संशोधन के एकात्मक व्यवस्था का रूप दिया जा सकता है। संकटकाल की घोषणा के क्रियाशील रहने के समय संघीय संसद द्वारा राज्य सूची के विषयों पर भी कानूनों का निर्माण किया जा सकेगा और संघीय शासन के द्वारा राज्य सरकारों को उनके निश्चित क्षेत्र में भी आवश्यक निर्देश दिये जा सकेंगे। इस प्रकार संकटकाल में राज्यों की स्वतन्त्रता का पूर्णतया अन्त हो जाएगा।
(7) सामान्य काल में भी संघीय सरकार की असाधारण शक्तियां:- संविधान द्वारा सामानय काल में भी संघीय सरकार को असाधारण शक्तियां प्रदान की गयी हैं। अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रीय हित में अल्पकाल के लिए संघीय संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार दे सकती है। अनुच्छेद 252 के अनुसार संघीय संसद को इस प्रकार का अधिकार दो या अधिक राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा प्रस्ताव पास करके भी दिया जा सकता है, इसके अतिरिक्त, किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौते के पालन के लिए भी संघ को सामान्य काल में भी राज्य सूची के विषयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त है जो निश्चित रूप में एकात्मक शासन व्यवस्था का ही एक लक्षण है।
(8) मूलभूत विषयों में एकरूपता:- भारतीय संघ व्यवस्था मेंसामान्यतया संघात्मक राज्यों में दोहरा कानूनी प्रशासन तथा दोहरी न्यायिक व्यवस्था होती है, किनतु भारत में उन समस्त मूलभूत विषयों के सम्बन्ध मेंख् जो राष्ट्र की एकता बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं, एकरूपता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से तीन उपाय अपनाये गये हैं: (क) न्यायपालिका का एकीकृत ढांचा, (ख) सारे देश में फौजदारी और दीवानी कानूनों में समानता, (ग) संघ और विभिन्न राज्यों के प्रमुख पदों के लिए सामान्य अखिल भारतीय सेवाएं।
इसी प्रकार सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग तथा वित्तीय प्रशासन के लिए एक ही ’नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक’ के पद की व्यवस्था है।
(9) राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा:-भारतीय संघ व्यवस्था में भारत में राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यपाल बहुत कुछ सीमा तक राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में ही कार्य करता है। राज्यपाल की नियुक्ति और कार्य की यह विधि संघात्मक व्यवस्था के सिद्धान्तों के अनुसार नहीं है।
(10) राज्य सभा में इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व नहीं:-संयुक्त राज्य अमरीका, स्विट्जरलैण्उ, आस्ट्रेलिया और अन्य संघात्मक राज्यों में संघ की छोटी-बड़ी इकाइयों को संघीय व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन में समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है, लेकिन भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्य सभा में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है। भारतीय संविधान में इकाइयों की समान स्थिति को स्वीकार न किये जाने के कारण भी इसे संघात्मक व्यवस्था के अनुरूप नहीं कहा जा सकता है।
(11) आर्थिक दृष्टि से राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता:-राज्य वित्तीय दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के स्थान पर केन्द्र पर निर्भर हैं। केन्द्र के द्वारा राज्यों को विभिन्न प्रकार के अनुदान आदि दिये जाते हैं और आर्थिक सहायता के कारण केन्द्र राज्य पर छाया रहता है। वित्तीय क्षेत्र में आत्मनिर्भर न होने के कारण राज्यों की स्वायत्तता नाममात्र की ही है।
(12) संविधान के संशोधन में संघ को अधिक शक्तियां प्राप्त होना:- भारतीय संघ व्यवस्था में संशोधन से सम्बन्धित उपबन्ध भी राज्य सरकारों पर संघ की सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर बल देते हैं। संविधान के अनेक उपबन्धों को तो संघीय संसद के द्वारा साधारण कानूनों के निर्माण की प्रक्रिया से ही संशोधित किया जा सकता है और दूसरे कुछ महत्वपूर्ण उपबन्धों को अकेली संघीय संसद के दोनों सदनों द्वारा अपने दो-तिहाई बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। संविधान के केवल कुद ही ऐसे उपबन्ध हैं, जिनके संशोधन के लिए आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति भी आवश्यकता होती है। राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा संवैधानिक संशोधन का कोई विधेयक प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अन्य किसी भी सध के राज्यों की तुलना में भारतीय संघ व्यवस्था में राज्यों को संवैधानिक संशोधन की बहुत कम शक्ति प्राप्त है।
(13) अन्तर्राज्य परिषद् और क्षेत्रीय परिषदें:- भारतीय संघ व्यवस्था में संविधान के अनुच्छेद 263 के अनुसार राष्ट्रपति को अन्तर्राज्य परिषद की नियुक्ति का अधिकार है जिसका कार्य राज्यों के आपसी विवादों की जांच करना और सामान्य हित के विषयों पर विचार करना होगा। इसके अलावा 1956 के ’राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ के अन्तर्गत ’क्षेत्रीय परिषदों’ र्;वदंस ब्वनदबपसेद्ध की स्थापना की गयी थी और 1971 में उत्तरी-पूर्वी सीमा के 5 राज्यों और 2 केन्द्र-शासित क्षेत्रों के लिए, ’पूर्वाेत्तर सीमान्त परिषद’ की स्थापना की गयी है। वास्तव में अन्तर्राज्य परिषद् और क्षेत्रीय परिषदें राज्यों के कार्य में समन्वय की दिशा में ही उठाये गये कदम हैं।
(14) भारतीय संघ व्यवस्था में संघीय क्षेत्र:- भारतीय संघ में दो प्रकार की इकाइयां हैं-(क) राज्य, और (ख) संघीय क्षेत्र। वर्तमान समय में 7 संघीय क्षेत्र हैं। संघ के राज्यों को तो राज्य सूची के विषयों पर लगभग पूर्ण अधिकार प्राप्त है, किन्तु संघीय क्षेत्रों के सम्बनध में केन्द्र को नियन्त्रण की प्रभावशाली शक्तियां प्राप्त हैं। संसद को इन क्षेत्रों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है और इन क्षेत्रों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है और इन क्षेत्रों का प्रशासन राष्ट्रपति अपने द्वारा नियुक्त अधिकारियों की सहायता से करता है।