भारत पर अरबों का आक्रमण: ऐतिहासिक महत्व
भारत पर अरबों का आक्रमण और अरब के बीच 7वीं सदी में ही संपर्क आरंभ हो गये थे। लेकिन राजनीतिक संबंध 712 ई0 में सिंध पर आक्रमण के दौरान स्थापित हुआ। भारत में अरबों के आगमन का राजनीतिक दृष्टि से उतना महत्व नहीं है, जितना अन्य पक्षों का है। अरब आक्रमणकारी भारत में उस प्रकार का साम्राज्य नहीं बना पाये जैसा कि उन्होंने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न भागों में बनाया था। यहाँ तक कि सिंध में भी उनकी शक्ति अधिक दिनों तक नहीं बनी रही। किंतु दीर्घकालिक परिणामों की दृष्टि से प्रतीत होता है कि अरबों ने भारतीय जनजीवन को अत्यधिक प्रभावित किया और स्वयं भी प्रभावित हुए।
यद्यपि इससे पूर्व में भी भारत पर शक, यवन, कुषाण, हूण आदि का आक्रमण हुआ था किंतु भारतीय संस्कृति ने इन्हें आत्मसात कर लिया। उन्होंने भारतीय धर्म तथा सामाजिक आचार विचारों को ग्रहण किया और अपनी विशिष्टता खो बैठे। उनका एक-दसूरे के ऊपर प्रभाव भी पड़ा तथापि हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही भारतीय समाज में अपनी विशिष्ट संस्कृतियों के साथ विद्यमान रहे।
अरबों ने चिकित्सा, दर्शनशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, गणित और शासन प्रबंध की शिक्षा भारतीयों से ली। ब्रह्मगुप्त की पुस्तकों का अलफ़जारी ने अरबी में अनुवाद किया। अलबरूनी कहता है कि पंचतंत्र का अनुवाद भी अरबी में हो चुका था। सूफी धार्मिक संप्रदाय का उद्भव स्थल सिंध ही था जहाँ अरब लोग रहते थे। सूफी मत पर बौद्ध धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है। दशमलव प्रणाली अरबों ने 9वीं सदी में भारत से ही ग्रहण की थी।
यदि तात्कालिक राजनीतिक दृष्टि से देखा जाये तो कहा जा सकता है कि अरबों ने एक ऐसी चुनौती पेश की जिसका सामना करने के लिए ऐसी शक्तियाँ उदित हुई, जो भारत में आगामी तीन सौ वर्षों तक बनी रहीं। गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट, चालुक्यों की प्रतिष्ठा की स्थापना उनके द्वारा अरबों का विरोध करने के कारण हुई। अरबों का दीर्घकालिक महत्व यह था कि उन्होंने भारत में धर्म की स्थापना न करके धार्मिक सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। हालांकि ज़जिया कर लिया जाता था।
अरबों का भारत आगमन का आर्थिक महत्व व्यापार के क्षेत्र में देखा जा सकता है। अरब व्यापारियों के समुद्री एकाधिकार के साथ भारतीय व्यापारियों ने तालमेल बनाया और पश्चिमी जगत एवं अफ्रीकी प्रदेशों में अपनी व्यापारिक गतिविधियों को गतिशील बनाये रखा।
तुर्को का आगमन
तुर्कों के आक्रमण के पूर्व अरबों ने भारत पर आक्रमण किए किंतु भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना का श्रेय तुर्कों को जाता है। मुस्लिम आक्रमण के समय भारत में एक बार पुनः विकेन्द्रीकरण तथा विभाजन की परिस्थितियाँ सक्रिय हो उठीं। तुर्की आक्रमण भारत में कई चरणों में हुआ। प्रथम चरण का आक्रमण 1000 से 1027 ई0 के बीच गजनी के शासक महमूद द्वारा किया गया। इसके पूर्व सुंबुक्तगीन (महमूद के पिता) की लड़ाई हिन्दूशाही शासकों के साथ हुई थी, किन्तु उसका क्षेत्र सीमित था भारत के गुजरात क्षेत्र तक महमूद ने अपना शासन स्थापित किया लेकिन उत्तरी भारत के शेष क्षेत्र अभी तुर्क प्रभाव से बाहर थे। कालांतर में गौर के शासक शिहाबुद्दीन मोहम्मद ने पुनः भारत में सैनिक अभियान किए। 1175 से 1206 ई0 के बीच उसने और उसके दो प्रमुख सेनापतियों (ऐबक और बख्तियार खिलजी) ने गुजरात, पंजाब से लेकर बंगाल तक के क्षेत्र को जीतकर सत्ता स्थापित की। किंतु 1206 ई0 में गोरी की मुत्यु के पश्चात् तुर्क साम्राज्य कई हिस्सों में बंट गया और आगे चलकर भारत में दिल्ली सल्तनत नाम से तुर्क साम्राज्य स्थापित हुआ।
तुर्क आक्रमणों के पूर्व भारत के राज्यों की स्थिति
मुल्तान तथा सिंध दोनों क्षेत्र 8वीं सदी के आरंभ में ही अरबों द्वारा विजित कर लिये गये थे। सिंध में अरबों की सत्ता के अवशेष अब भी बने हुए थे।
हिन्दूशाही राजवंश उत्तर-पश्चिम भारत का विशाल हिन्दू राज्य था, जिसकी सीमा कश्मीर से मुल्तान तक तथा चिनाब नदी से लेकर हिन्दुकुश तक फैली थी। महमूद ने इसकी राजधानी वैहिंद पर आक्रमण कर दिया तथा यहां का शासक जयपाल था, जिसने पराजित होने पर आत्महत्या कर ली।
उत्तरी भारत में स्थित कश्मीर का क्षेत्र महमूद गजनवी के आक्रमण के समय से राजनैतिक अव्यवस्था से ग्रसित था। यहां की वास्तविक शासिका क्षेत्रगुप्त की पत्नी दीद्दा थीं।
उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त मुस्लिम आक्रमण के समय उत्तरी भारत में अनेकों छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था।
- तुर्क आक्रमण के समय भारत छोटे-छोटे सैकड़ों राज्यों में विभक्त था। जैसे-सिंध, मुल्तान, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बंगाल आदि।
- भारत का इस समय बाह्य देशों के साथ कोई विशेष संबंध नहीं था।
- राज्यों का आर्थिक आधार कमजोर था जिसके फलस्वरूप सैन्य आधार भी कमजोर हो गया।
राजनीतिक विभाजन की यह समस्या केवल राजपूत राज्यों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसका परिणाम देश के सामान्य जनजीवन पर भी पड़ा था। उत्तर भारत में राजनैतिक एकता का पूर्णतः अभाव था। इस समय छोटे-छोटे राज्य सारे देश में बने हुए थे, परंतु कोई भी एक राज्य या शासक इतना शक्तिशाली नहीं था, जो इन्हें जीतकर एकछत्र राज्य स्थापित कर सकें। आंतरिक कलह ने इन्हें कमजोर बना दिया था और विदेशी आक्रमण का प्रभावशाली ढंग से विरोध करना इनके लिए संभव नहीं था इस स्थिति के लिए राजपूत शासक जिम्मेदार थे, क्योंकि ये हमेशा आपस में संघर्षरत् रहते थे। आंतरिक अशांति की इस परिस्थिति ने अंततः राजपूत शासकों का अस्तित्व समाप्त कर दिया।