विजय नगर साम्राज्य

विजय नगर साम्राज्य

स्थापना:-1336 ई0 (आधुनिक कर्नाटक में)
राजधानी:-विजय नगर (आधुनिक हम्पी)
प्रारम्भिक राजधानी:- अनेगुण्डी दुर्ग।

संस्थापक:- विजय नगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर और बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में। मुहम्मद तुगलक के शासन काल में।
मुहम्मद तुगलक के समय में दिल्ली सल्तनत का सर्वाधिक विस्तार हुआ। परन्तु उसे दक्षिण भारत में सबसे अधिक विद्रोह का सामना करना पड़ा। 1325 ई0 में मुहम्मद तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने कर्नाटक में सागर नामक स्थान पर विद्रोह किया। सुल्तान स्वयं दक्षिण गया गुर्शप भागकर कर्नाटक में स्थित काम्पिल्य राज्य चला गया। फलस्वरूप मुहम्मद तुगलक ने काम्पिल पर आक्रमण कर उसे दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया।
इस राज्य के दो अधिकारियों हरिहर, और बुक्का को पकड़कर दिल्ली सल्तनत लाया गया और यहाँ पर इन्हें मुसलमान बना दिया गया। दक्षिण भारत में जब पुनः विद्रोह होने लगे तब इन दोनों भाइयों को सेनापति बनाकर पुनः दक्षिण भेजा गया। इन भाइयों को विद्रोह को समाप्त करने में सफलता मिली तभी में एक सन्त माधव विद्यारण्ड और उनके भाई वेदों के भाष्यकार सायण के प्रभाव में आ गये। सायण ने उन्हें पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया तथा एक नये राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में विजय नगर शहर और राज्य की नींव पड़ी। चूँकि इन भाइयों के पिता का नाम संगम था। इसी कारण इनके द्वारा स्थापित वंश संगम वंश कहलाया।
विजय नगर राज्य में कुल चार वंश संगम, सालुव, तुलुव और आरवीड वंश अस्तित्व में आये। इसके बाद विजय नगर साम्राज्य का पतन हो गया।
विजय नगर को जानने के प्रमुख स्रोत:- विजय नगर साम्राज्य के बारे में जानने के लिए साहित्यिक, अभिलेखीय एवं विदेशी विवरण प्राप्त होते हैं।
साहित्यिक स्रोतः-
1.  A forgather Emipire :- सेवेल द्वारा लिखित यह पुस्तक विजय नगर साम्राज्य को जानने का एक प्रमुख स्रोत है।
2.    आमुक्त माल्यद:-तेलगू भाषा में कृष्ण देवराय द्वारा लिखित यह पुस्तक विजय नगर प्रशासन के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं देता है।
3.    अभिलेखीय साक्ष्य:-(1) बुक्का प्रथम के समय का 1354 ई0 का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इसमें मालागौड़ नामक महिला द्वारा सती होने का उल्लेख है।
2.    देवराय द्वितीय के समय 1424 और 25ई0 का एक अभिलेख पाया गया है जिसमें दहेज को अवैधानिक अभिलेख पाया गया है जिसमें दहेज को अवैधानिक घोषित किया गया है। दासों के क्रय विक्रय को वेस वेग कहा जाता था।

अब्दुर्रज्जाक:-(1443ई0)

शासक:-देवराय द्वितीय ।
मूल निवासी:-फारस का।

  1. विजय नगर शहर के बारे में इसने वर्णन किया है कि ’’विजय नगर जैसा नगर न इस पृथ्वी पर कहीं देखा था और न सुना था।’’
  2. इसके अनुसार विजय नगर राज्य में कुल 300 बन्दरगाह थे इनमें से प्रत्येक कालीकट के बराबर था।
  3. विजय नगर राज्य में इसने एक सचिवालय का उल्लेख किया है।

बारबोसा 1508 ई0

मूल स्थान:-पुर्तगीज
शासक:-कृष्ण देवराय के समय में।
बारबोसा ने सती प्रथा का वर्णन किया है। परन्तु इसके अनुसार यह प्रथा उच्च वर्गों जैसे लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में प्रचलित नहीं थी। इसने विजय नगर के आर्थिक दशा का भी वर्णन किया है तथा लिखा है कि दक्षिण भारत के जहाज माल द्वीप में बनते हैं।

पायस (1620 से 22 ई0)

मूल स्थान:-पुर्तगीज  
शासकः-कृष्ण देवराय के दरबार में।
(1) इसने विजय नगर की तुलना रोम से की है।
(2) इसके अनुसार विजय नगर में 200 प्रान्त थे।
(3) इसने नवरात्रि पर्व के मनाये जाने का उल्लेख किया है। तथा इस पर्व के अंतिम दिन बहुत से पशुओं के वध किये जाने का उल्लेख किया है।
(4) इसके अनुसार प्रत्येक गली में मंदिर है। और वे किसी न किसी शिल्पियों से सम्बन्धित है। उसके वर्णन विजय नगर की उच्च आर्थिक स्थिति का पता चलता है।
5 नूनिज  (1535 से 37)
शासक:-अच्चुत देवराय    मूल स्थान:-पुर्तगीज
6. सीजर फेडरिक:-तालीकोटा युद्ध के बाद 1565 में
मूल स्थान:-पुर्तगीज यात्री

निकितिन (1470 से 74 ई0)

यह मूलतः रूसी यात्री था जो बहमनी शासक मुहम्मद तृतीय के समय आया था। इस समय विजय नगर का शासक विरुपाक्ष द्वितीय था। इसने विजय नगर की आर्थिक असमानता का वर्णन किया है।

’’विजय नगर साम्राज्य का राजनैतिक इतिहास’’

संगम वंश

संस्थापक:-हरिहर और बुक्का’’हरिहर’’ (1336 से 53 ई0)
प्रारम्भिक राजधानी:-अनेगुंड़ी
सात वर्ष बाद राजधानी:-विजय नगर
हरिहर के गद्दी पर आसीन हाने के साथ ही बहमनी शासक अलाउद्दीन हसन बहमन के साथ रामचूर दोआब के लिए युद्ध प्रारम्भ हो गया।
होयसल शासक बल्लाल चतुर्थ के मृत्यु के बाद हरिहर ने उनके राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

’’बुक्का’’ (1354 से 71 ई0)

उपाधियाँ:-’’वेद मार्ग प्रतिष्ठापक’’ एवं तीनों समुद्रों का स्वामी।

  1. बहमनों से युद्ध:-बुक्का प्रथम और बहमनी शासक मुहम्मद शाह प्रथम के बीच रामचूर दोआब में स्थित मुद्गल किले को लेकर 1367 ई0 में युद्ध हुआ। इस युद्ध में पहली बार तोपखानें का प्रयोग हुआ।
  2. चीन में दूतमंडल:- 1374 ई0 में बुक्का प्रथम ने चीन में एक दूत मंडल भेजा।
  3. मदुरा विजय:- 1377 ई0 में मदुरा को विजय नगर साम्राज्य में मिला लिया गया। मदुरा विजय का श्रेय बुक्का प्रथम के बेटे कुमार कम्पन को दिया जाता है। कुमार कम्पन की पत्नी गंगादेवी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’मदुरा विजय’ में इसका उल्लेख किया है।
हरिहर द्वितीय (1379 से 1404)

उपाधि:-महाराजाधिराज एवं राजपरमेश्वर।

  1. हरिहर द्वितीय ने उत्तर श्रीलंका पर विजय किया और इसे सफलता भी मिली।
  2. इसकी सबसे बड़ी सफलता बहमनी राज्य से गोवा और बेलगाँव को छीनना था।
  3. परन्तु इसे बहमनी शासक फिरोजशाह बहमनी से पराजित होना पड़ा।
  4. इसी के समय में विद्यारण्य और सायण का उल्लेख मिलता है। इसके अभिलेखों में विद्यारण्य को ’’सर्वोच्चतम प्रकाश अवतार’’ के रूप में उल्लेख किया गया है।
  5. यह शैव मतावलम्बी था।
  6. तेलगू कवि श्री नाथ इसका दरबारी कवि था।
  7. इसने ’’हरि विलास’’ नामक ग्रंथ लिखा।

हरिहर द्वितीय के बाद इसका पुत्र विरुपाक्ष प्रथम गद्दी पर बैठा। इसके बाद हरिहर द्वितीय का दूसरा पुत्र बुक्का द्वितीय गद्दी पर बैठा। इसके बाद देवराय प्रथम गद्दी पर बैठा।

’देवराय प्रथम’ (1406 से 22 ई0)

तुर्को को सर्वप्रथम इसी ने सेना में भर्ती किये।
  1. देवराय प्रथम का युद्ध बहमनी शासक फिरोजशाह बहमनी के साथ हुआ, फिरोजशाह बहमनी ने इसे पराजित किया। इसने अपनी पुत्री की शादी फिरोजशाह बहमनी से करनी पड़ी तथा दहेज में रामचूर दोआब में स्थित बीकापुर को देना पड़ा। अपने अंतिम समय में इसने फिरोजशाह बहमनी को पराजित कियां
  2. देवराय प्रथम ने तुंगभद्रा नदी और हरिद्रा नदी पर बाँध बना कर नहरें निकालीं।
  3. इसी के समय में इटावली यात्री निकोलोकोण्टी 1420 ई0 में विजय नगर में आया।

देवराय की मृत्यु के बाद वीर विजय या बुक्का विजय तथा रामचन्द्र गद्दी पर बैठा। उसके बाद वीर विजय का पुत्र देवराय द्वितीय गद्दी पर बैठा।

देवराय द्वितीय (1422 ई0 46 ई0)

उपाधि:-इम्माडि देवराय, प्रौढत्र (प्रौध) देवराय, गजबेटकर (हाथियों का शिकारी)
यह संगम वंश का महानतम शासक था। इसने अपनी सेना में बड़ी संख्या में मुसलमानों एवं तीरंदाजों को भर्ती किया। जिसके फलस्वरूप देवराय द्वितीय को बहमनी शासक फिरोजशाह बहमनी को पराजित करने में सफलता मिली।

इसी के समय में फारस का राजदूत अब्दुर्रज्जाक (1443) में विजय नगर आया। इसकी विजयों में केरल विजय प्रमुख थी। पुर्तगीज यात्री नूनिज ने लिखा है कि क्वीलन (केरल क्षेत्र) श्रीलंका, पुलीकट (आन्ध्र) पेगू (वर्मा) तेन सिरिम (मलाया) के राजा देवराय द्वितीय को कर देते थे। तेलगू कवि श्री नाथ कुछ समय इसके यहाँ भी रहा। इसने अपने व्यापार का सारा कार्यभार लक्कना या लक्ष्मण को सौंप दिया। लक्ष्मण को इसके अभिलेखों में ’’दक्षिणी समुद्रों का स्वामी के रूप में वर्णित किया गया है।
साहित्य:-देवराय द्वितीय के काल में कन्नड़ और संस्कृत साहित्य की विशेष उन्नति हुई। कुमार व्यास ने इसी के समय में कन्नड़ भाषा का प्रसिद्ध ग्रंथ ’’भारत’’ या ’’भारतम’’ लिखा। देवराय द्वितीय स्वयं विद्वान था। उसने संस्कृत में एक ग्रंथ महा नाटक सुधा निधि लिखा। इसके अतिरिक्त ब्रम्ह सूत्र पर एक भाष्य भी लिखा।

नोट:-1424-25 ई0 के इसके समय में एक अभिलेख में दहेज को अवैधानिक घोषित कर दिया गया।

मल्लिकार्जुन (1446 से 65 ई0)

उपाधि:-प्रौढ़ देवराय
इसी के समय से संगम वंश का पतन प्रारम्भ हो गया।

विरुपाक्ष द्वितीय (1465 से 85 ई0)

संगम वंश का यह अंतिम शासक था। इसने एक ग्रंथ नारायण विलास लिखा इसी के समय में संगम वंश का पतन हुआ तथा बहमनी के प्रधानमंत्री महमूदगवाँ ने विजय नगर से गोवा, चोल, दाभुल, क्षेत्र जीत लिए। इस शासक के समय में चन्द्रगिरि के प्रान्तपति नरसिंह सालुव ने शक्ति अर्जित कर ली। और उसने विरुपाक्ष को पराजित कर एक नये वंश सालुव वंश की स्थापना की।

सालुव वंश

नरसिंह सालुव (1486 से 90 ई0)

संस्थापक:-नरसिंह सालुव
नरसिंह सालुव द्वारा विरुपाक्ष द्वितीय को सिंहासन से हटाकर गद्दी प्राप्त करने की घटना को ’’प्रथम बलो पहार’ कहा गया है। इसकी मुख्य उपलब्धि यह थी कि इसने विजय नगर की पतनावस्था को विराम दिया।

इम्माडि नरसिंह (1490 से 1506)

इसकी आयु कम होने के कारण इसका सेना नायक नरसा नायक इसका संरक्षक बना। इसने शासक को पेनुकोड़ के किले में बन्द कर दिया तथा स्वयं शासन चलाने लगा।
नरसा नायक:-यह महत्वपूर्ण सेनानायक था। इसने चोल, चेर और पाड्ण्य राज्य पर आक्रमण किये। इसने उड़ीसा के गजपत शासक प्रतापरुद्र गजपति को भी पराजित किया। इसी के काल में प्रसिद्ध कन्नड़ ग्रंथ जैमिनी भारतम की रचना की गयी। नरसा नायक के पुत्र वीर नर सिंह ने इम्माडि नरसिंह की हत्या कर एक नये वंश तुलुव वंश की नीव डाली।

तुलुव वंश

वीर नर सिंह(1505 से 09 ई0)

संस्थापक:-वीर नर सिंह
वीर नरसिंह द्वारा इस तरह गद्दी प्राप्त करने की घटना को ’द्वितीय बालेषहार’ कहा जाता है। इसने विवाह कर हटाया।

कृष्ण देवराय (1509 से 30 ई0)

कृष्ण देव राय न केवल तुलुव वंश का अपितु पूरे विजय नगर का सर्वश्रेष्ठ शासक था। इसने विजयों अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों से विजय नगर सम्राज्य को अपने समय में सर्वश्रेष्ठ बना दिया। यहाँ तक की बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में कृष्ण देव राय की प्रशंसा की है।

विजयें:- गजपति शासकों के विरूद्ध विजय:-गजपतियों का शासन उड़ीसा में स्थापित था। वे काफी शक्तिशाली थे कृष्ण देव राय के समकालीन गजपति नरेश प्रताप रुद्र देव गजपति था। उसे कृष्ण देवराय ने तीन बार पराजित किया तथा उसके कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। दोनों के बीच एक वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित हुआ।

पुर्तगालियों से सम्बन्ध

पुर्तगीज कृष्ण देव राय से शान्ति संधि करना चाहते थे। परन्तु प्रारम्भ में कृष्ण देव राय ने कोई सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। जब पुर्तगीजों ने 1510 ई0 में बीजापुर से गोवा छीन लिया तब कृष्णदेव राय ने उनसे संधि कर ली, इसका मूल उद्देश्य गोवा बन्दरगाह से घोड़ों को प्राप्त करना था।
कृष्णदेव राय की उपाधियाँ
1. यवन राज्य स्थापनाचार्य:-कृष्ण देव राय ने बहमनी शासक महमूद शाह को दक्षिण की लोमड़ी के नाम से प्रसिद्ध बीदर के चंगुल से मुक्त करवाया इसके उपलक्ष्य में उसने यवन राज्य स्थापना चार्य की उपाधि धारण की।
2. आन्ध्रभोज अथवा अभिनवभोज अथवा आन्ध्रपितामह:-कृष्ण देवराय स्वयं प्रसिद्ध विद्वान था। उसे कई पुस्तकों को लिखने का श्रेय दिया जाता है। इसके दरबार में भी तेलगू साहित्य के आठ प्रसिद्ध विद्वान रहते थे। जिन्हें अष्ट दिग्गज कहा जाता था। इसी कारण कृष्ण देवराय को आन्ध्र भोज कहा जाता है।
कृष्ण देव राय की पुस्तकें
  1. आमुक्त माल्यद:-तेलगू भाषा में यह राजनीति शास्त्र पर लिखी गई पुस्तक है। इसे विश्ववित्तीय भी कहा जाता है।
  2. ऊषा परिणय:-यह संस्कृत में लिखी पुस्तक है।
  3. जाम्बवती कल्याण:-यह भी संस्कृत में लिखी पुस्तक है।

अष्ट दिग्गज:-कृष्ण देव राय के दरबार में तेलगू साहित्य के आठ प्रसिद्ध विद्वान थे जिन्हें अष्ट दिग्गज कहा जाता था।

  1. अल्सनी पेड्डन:– ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण विद्वान थे। इन्हें तेलगू कविता के पितामह की उपाधि दी गयी। इनकी पुस्तक मनु चरित हे। स्वारोचित्रसंभव, हरिकथा सरनसंभू, की भी रचना की।
  2. तेनाली रामकृष्ण:-इनकी पुस्तक का नाम ’’पाण्डुरंगमहात्म इसकी गणना पाँच महाकाब्यों (तेलगू भाषा के) में की जाती है।
  3. नदी तिम्मन:-इनकी पुस्तक पराजित हरण है।
  4. भट्टमूर्ति:-अलंकार शास्त्र से सम्बन्धित पुस्तक नरस भू पालियम् इनकी रचना है।
  5. धू-जोटे:-पुस्तक कल हस्ति महात्म है।
  6. भोद्यगीर मल्लनम:-पुस्तक, राजशेखर चरित,
  7. अच्युतराज रामचन्द्र:-पुस्तक, रामाभ्युदय, सकलकथा सार संग्रह
  8. जिंगली सूरत:-पुस्तक राघव पाण्डवीय,

विजय नगर कालीन कला

विजय नगर कालीन मंदिर द्रविण शैली के उदाहरण हैं। परन्तु इनकी दो अन्य विशेषताएं भी हैं।
1. कल्याण मंडप:- यह गर्भ गृह के बगल में एक खुला प्रांगण होता है। जिसमें देवी-देवताओं से सम्बन्धित समारोह एवं विवाहोत्सव आदि आयोजित किये जाते थे।
2. कृष्ण देव राय के समय में हजार स्तम्भों वाले मंडपों का निर्माण हुआ।
कृष्ण देवराय के समय के प्रमुख मंदिरों में विट्ठल स्वामी का मन्दिर एवं हजारा राम का मंदिर प्रसिद्ध है।
नगर निर्माण:- कृष्ण देव राय को नागलापुर नामक नगर निर्माण का श्रेय दिया जाता है। इसके अतिरिक्त हास्पेट नगर के निर्माण का भी श्रेय देते हैं

विदेशी यात्री

(1) बारबोसा :- 1508 में         स्थान:-पुर्तगीज
(2) पायस:-1520 ई0 से 22 ई0 में पुर्तगीज विजय नगर आये।
विजय नगर के मनोरंजन के साधन
कृष्ण देव राय को संगीत और शंतरांज का बहुत शौक था।

अच्युत देवराय (1529 से 42ई0)

कृष्ण देवराय का पुत्र सदाशिवराय केवल 18 महीने का था। इसी कारण उसने अपने चचेरे भाई अच्युत देवराय को शासक नियुक्त किया यह बात कृष्ण देव राय के जमाता (दामाद) रामराय को पसन्द नहीं आयी वह सदाशिवराय को ही गद्दी पर बिठाना चाहता था। इस तरह राज परिवार में मतभेद पैदा हो गया। इसी के समय में नूनिज यात्री भी आया था। इस शासक के लिए डरपोक या भीरु शब्द का उल्लेख मिलता है।
वेंकट प्रथम (1542 ई0):-यह मात्र 6 महीने तक शासक रहा इसे हटाकर सदाशिव राय गद्दी पर बैठा।

सदाशिवराय (1542 से 72 ई0)

सदाशिव राय के समय में वास्तविक सत्ता राम राय के हाथों में आ गयी। रामराय अत्यन्त महत्वाकांक्षी था। उसने दक्ष्णि के राज्यों को एक-एक पराजित करना प्रारम्भ कर दिया। उसकी नीति यह थी कि एक राज्य को अपनी ओर मिलाकर दूसरे राज्य को पराजित किया जाय धीरे-धीरे करके उसने विजय नगर को सर्वोच्च स्थित पर पहुँचा दिया परन्तु उसकी यह नीति जो लोहे से लोहा काटने की नीति व हीरे को हीरे से काटने की नीति नाम से विख्यात है उसके पतन का कारण बनीं। सदाशिवराय के समय में नाइयों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। उसने उन्हें व्यवसायी करों से मुक्त कर दिया।
राक्षसी  तंगड़ी का युद्ध अथवा बन्नी हट्टी या ताली कोटा का युद्ध(23 जनवरी 1565 ई0):-विजय नगर की बढ़ती शक्ति से दक्षिण के चार राज्यों अहमद नगर, बीजापुर, इस संघ में बरार शामिल नहीं था। इस संघ का नेतृत्व बीजापुर का शासक अली आदिलशाह कर रहा था।
युद्ध का वास्तविक कारण
1. रामराय की अनुचित नीति।
2. विजय नगर के प्रति दक्षिणी राज्यों की समान ईष्र्या एवं घृणा।
3. फरिश्ता ने तालीकोटा युद्ध का एक अलग कारण बताया है। उसके अनुसार रामराय ने अहम नगर पर आक्रमण के दौरान इस्लाम धर्म को अपमानित एवं मस्जिदों को ध्वस्त किया था। युद्ध स्थल में अहमद नगर के शासक हुसैन निजामशाह ने 70 वर्षीय रामराय को मारकर चिल्लाया। ’’अब मैंने तुझसे बदला ले लिया है अल्लाह मुझे जो चाहे सो करे’’। रामराय का भाई तिरुमल सदाशिव राय को लेकर ’पेनुकोण्डा’ चला गया और वहीं पर एक नये राज्य ’आरवीडु’ वंश की नीव डाली।

आरवीडु वंश

संस्थापक:-तिरुमल
राजधानी:-पेनुकोण्डा
रंग द्वितीय (1572-85):-यह तिरुमल का पुत्र था। इसने अपनी राजधानी पेनुकोण्डा से चन्द्रगिरि स्थानान्तरित कर ली।
वेंकट द्वितीय (1586 से 1614 ई0):-1612 ई0 में राजा बोडयार ने वेंकट द्वितीय से अनुमति लेकर एक नये राज्य मैसूर की स्थापना की।
रंग तृतीय:-(1614 से 50 ई0)
यह विजय नगर का अंतिम शासक था, इसकी मृत्यु के बाद मैसूर, तंजौर आदि छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई।

विजय नगर कालीन संस्कृति

प्रशासन:-प्रशासन का केन्द्र बिन्दु राजा ही था परन्तु विजय नगर काल में संयुक्त शासन के दर्शन दृष्टि गोचर होते हैं उदाहरण हरिहर और बुक्का ने साथ-साथ शासन किया राजा को राय कहा जाता था। राजा को किस तरह का व्यवहार करना चाहिए इसका उल्लेख कृष्ण देवराय की पुस्तक ’’आमुक्त माल्यद’’ में दिखाई पड़ता है। इसके अनुसार राजा को सदैव अपने प्रजा के सुख और कल्याण को आगे रखना चाहिए। जब राजा प्रजा का कल्याण करेगा तभी प्रजा भी राजा के कल्याण की कामना करेगी तभी देश प्रगतिशील एवं समृद्धशील होगा।
राजा पर नियंत्रण राज परिषद नामक संस्था करती थी। इसका सदस्य स्वयं राजा भी होता था। राजा अपना प्रशासन मंत्री परिषद के माध्यम से करता था। राजा अपना प्रशासन मंत्री परिषद के माध्यम से करता था। इसका प्रमुख अधिकारी प्रधानी अथवा महाप्रधानी होता था। मंत्री परिषद में 20 सदस्य होते थे तथा सदस्यों की आयु 50 से 70 वर्ष के बीच होती थी। प्रधानी को पेशवा का अग्रवर्तो माना जाता है। वैसे-मंत्री परिषद का अध्यक्ष सभा नायक होता था।
सचिवालय:- अब्दुर्रज्जाक ने सचिवालय का वर्णन किया है। उसने सचिवालय का नाम दीवान खाना के रूप में उल्लेख किया है। यहाँ के कुछ अधिकारियों के नाम भी मिलते हैं। जैसे-रायसम-(सचिव)

केन्द्रीय विभाजन

केन्द्र प्रान्तों में विभाजित थे जिसे राज्य या मंड्लम कहा जाता था। विजय नगर काल में कुल छः प्रान्त थे। हलांकि पायस ने 200 प्रान्तों का उल्लेख किया है। प्रान्तों के प्रमुख युवराज अथवा दंडनायक होते थे। दंडनायक एक पदसूचक शब्द था। जो विभिन्न अधिकारियों के लिए प्रयुक्त होता था। दंडनायक को सेनापति न्यायधीश गर्वनर प्रशासकीय, अधिकारी आदि कुछ भी बनाया जा सकता था।

कार्यकर्ता:-यह प्रशासकीय अधिकारियों की एक श्रेणी थी।
स्थानीय प्रशासन में विभाजन:-राज्य या मंडलम् (प्रान्त)-बलनाडु (कमिश्नरी)-नाडु (जिला) कभी-कभी तहसील भी हो जाती थी।-मेलाग्राम (50 ग्राम)-स्थल (तहसील)-उद् (ग्राम)
नायंकार व्यवस्था:- विजय नगर प्रशासन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसकी नायंकार व्यवस्था थी। नायक वस्तुतः एक भू-सामन्त थे जो सैनिक अथवा असैनिक हो सकते थे। इन्हें वेतन के बदले एक प्रकार की भूमि प्रदान की जाती थी। जिसे अमरम कहा जाता था। अमरम् प्राप्त करने के कारण इसका एक नाम अमर नायक पड़ गया। नायकों के पद धीरे-धीरे आनुवांशिक हो गये। ये अपना एक प्रशासनिक ऐजेन्ट विजय नगर राज्य में नियुक्त करते थे जिसे स्थानपति कहा जाता था। अच्युत देवराय ने नायकों की उदण्डता को रोकने के लिए एक विशेष अधिकारी महामण्डलेश्वर (कमिश्नर) की नियुक्ति की।
आयंगार व्यवस्था:- विजय नगर प्रशासन की दूसरी प्रमुख विशेषता उसकी आयंगार व्यवस्था थी। यह मूलतः गाॅवों के प्रशासन से सम्बन्धित थी। गाँव में प्रशासन के लिए बारह व्यक्तियों का एक समूह नियुक्त किया जाता था। जिसे आयंगार कहते थे। आयंगारों का पद आनुवांशिक होता था। ये अपने पदों को गिरवी रख सकते थे अथवा बेच सकते थे। इन्हें लगान मुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। कुछ आयंगारों के नाम भी प्राप्त होते हैं।

  1. सेनते ओवा:-यह गाँव का हिसाब किताब रखता था।
  2. तलर:- गाँव का कोतवाल अथवा पहरेदार।
  3. बेगार:- बल पूर्वक श्रम लेने का अधिकारी।

महानायकाचार्य:-इस अधिकारी के द्वारा राजा गाँव पर नियंत्रण रखता था।

’भू-राजस्व व्यवस्था

राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत भू-राजस्व था। भू-राजस्व से सम्बन्धित विभाग को अष्टबने (Atthavana) कहा जाता था। भूमिकर को शिष्ट कहा गया है। भू-राजस्व की मात्रा 16%से 32% के बीच थी। भूमि को तीन भागों में विभाजित किया गया था।

  1. सिंचाई मुक्ति भूमि।
  2. सूखी जमीन।
  3. बाग एवं जंगल मुक्ति भूमि।

भूमि की माप कृष्ण देवराय ने करवाया था।

अन्य प्रमुख कर
  1. सिंचाई कर:-सामान्यतः राज्य की ओर से सिंचाई का कोई विभाग नहीं था। परन्तु कुछ शासकों ने नहरे निकालीं/विजय नगर काल में सिंचाई कर को दास बन्द कहा जाता था।
  2. बढ़ई कर:-बढ़इयों पर भी कर लगता था। जिसे कसामी गुप्त कहा गया है।
  3. विवाह कर:-वर एवं वधू दोनों से विवाह कर लिया जाता था। परन्तु कृष्ण देव राय ने विवाह कर माफ कर दिया।
  4. नाइयों पर कर:-नाइयों पर भी कर लगता था। परन्तु सदाशिव राय के शासन काल में राम राय ने इसे माॅफ कर दिया।
  5. कन्दा चार:- यह सैनिक विभाग था तथा दंड नायकों के अधीन रहता था।
  6. कवलगर:-Kavalgar यह पुलिस अधिकारियों के लिए शब्द प्रयुक्त हुआ है। पुलिस विभाग का खर्च वेश्याओं से प्राप्त आय से होता था।
भूमि के प्रकार

1. भंडार वाद ग्राम:- ऐसे ग्राम जिनकी भूमि राज्य के सीधे नियंत्रण में होती थी।
2. ब्रम्ह देय:- ब्राहमणों को दान में दी गयी कर मुक्ति भूमि।
3. देव देय:-मंदिरों को दान में दी गयी कर मुक्त भूमि।
4. मठीपुर:- मठों को दान में दी गयी कर मुक्त भूमि।
5. अमरम:– नायकों को दी गयी भूमि।
6. ऊंबलि:- ग्राम के कुछ विशेष सेवाओं के बदले में लगान मुक्ति भूमि।
7. रक्त कौड़गै अथवा ख्रन्त कोड़गै:- युद्ध में शौर्य प्रदर्शन करने वालों को दी गयी भूमि।
8. कुट्टगि:- ब्राहमणों बड़े भू-स्वामियों आदि द्वारा किसानों को पट्टे पर दी गयी भूमि।
9. वारम व्यवस्था:– पट्टेदार एवं भूस्वामी के बीच उपज की हिस्सेदारी।
10. कुदि:-कृषक मजदूर।

व्यापार

विजय नगर काल में विदेशी व्यापार उन्नति अवस्था में था पायस ने लिखा है कि प्रत्येक गली में मंदिर है क्योंकि ये सभी शिल्पियों तथा व्यापारियों से कपड़ा खानों की खुदाई इस समय के प्रमुख व्यवसायों में कपड़ा खानों की खुदाई गन्धी का पेशा (इत्र) चीनी, मशाले आदि शामिल थे। अब्दुर्रज्जाक ने 300 का कालीकट अत्यन्त महत्वपूर्ण बन्दरगाह था। भारत के जहाज मालद्वीप के द्वीपों में बनते थे।

’’प्रमुख व्यापारिक देश’’

पुर्तगाल, चीन, यूरोपीय देश, फारस, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया, वर्मा, अरब आदि।

’प्रमुख निर्यातित वस्तुएं’

कपड़ा, मसाले, चीनी, चावल, लोहा, सोना ज्ञदव3 बारूद (जहाजों के वैलेन्स बनाने के लिए रखते थे) मोती आदि।

’प्रमुख आयातित वस्तुएं’

घोड़ा, मदिरा, मोती, मूंगा, पारा, मलमल आदि।

सिक्के

1. वराह:-यह विजय नगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्वर्ण सिक्का था। जो 52 ग्रेन का होता था। इसे विदेशी यात्री पगोड़ा, हूण, अथवा परदौस के रूप में उल्लेख करते हैं।
2. प्रताप:- 26 ग्रेन के या आधे वराह को प्रताप कहा जाता था।
3. फणम्:-55 ग्रेन के स्वर्ण सिक्कों को फणम् कहा जाता था।
4. तार ;चाँदी के छोटे सिक्कों को कहा जाता था। विजय नगर काल में मुख्यतः स्वर्ण एवं ताँबें के सिक्के ही प्रचलित थे। चाँदी के थोड़े ही ज्ञात है। विजय नगर के शासकों के सिक्कों पर हनमान एवं गरुण की आकृति दिखाई पड़ती है। तुलुव वंश के शासकों के सिक्कों पर बैल, गरुण, शिव, पार्वती, कृष्ण आदि की आकृतियां मिलती हैं।

सामाजिक दशा

विजय नगर कालीन अभिलेखों में सकल वर्णाश्रम धर्म मंगला-नुपालि सुन्त नामक शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे पता चलता है कि राजा सभी वर्णों के मंगल की कामना करता था। समाज में मुख्यतः निम्नलिखित वर्ग प्रचलित थे-
1. ब्राहमण:- उत्तर भारत के विपरीत दक्षिण भारतीय ब्राहमण मांस, मदिरा, आदि का सेवन करते थे। समाज में इनका स्थान सर्वोच्च था। इन्हें किसी भी कार्य के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। दंड नायक आदि पदों पर अधिकांशतः इन्हीं की नियुक्ति होती थी।
2. चेट्टी अथवा शेट्टी:- ब्राहमणों के बाद इस वर्ग की सामाजिक स्थिति अच्छी थी। अधिकांश व्यापार इसी वर्ग के हाथों में था।
3. वीर पंचाल:- चेट्टियों के ही समतुल्य व्यापार करने वाले ये दस्तकार वर्ग के लोग थे। इसमें लोहार, स्वर्णकार, कांस्यकार, बढ़ई, कैकोल्लार (बुनकर) कंबलत्तर (चपरासी आदि वर्ग शामिल थे) इन मध्य वर्गों में लोहारों की स्थित सबसे अच्छी थी। कैकोल्लार अथवा जुलाहे मंदिरों के आस-पास रहते थे। इनका मंदिरों के प्रशासन पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान होता था। इसके अतिरिक्त नाइयों की भी अत्यन्त प्रतिष्ठा भी थी।
बड़वा वर्ग:- ये वे लोग थे जो उत्तर भारत से आकर दक्षिण भारत में बस गये थे। इन्होंने दक्षिण के व्यापार पर अधिकार कर लिया था। इस कारण एक सामाजिक विद्वेष की भावना पनप रही थी।
निम्न वर्ग:- विजय नगर काल में कुछ निम्न वर्गों का भी उल्लेख मिलता है जैसे-डोंबर-जो बाजीगरी का कार्य करते थे। जोगी और मछुआरे की दशा भी खराब थी। कुछ अन्य वर्गों जैसे परय्यन, कल्लर आदि का भी उल्लेख है।
दास प्रथा:- दास प्रथा का उल्लेख निकालो कोण्टी ने किया है। पुरुष एवं महिला दोनों प्रकार के दास थे। दासों के क्रय-विक्रय को वेसवेंग कहा जाता था।
स्त्रियों की दशा:- स्त्रियों की दशा सामान्यतः निम्न थी। परन्तु उत्तर भारत की अपेक्षा कुछ अच्छी थी। ये अंगरंक्षिकाएं भी होती थी। विजय नगर काल में गणिकाओं की स्थित उच्च थी। वेश्याओं से प्राप्त कर से पुलिस एवं सैन्य विभाग का खर्च चलता था।
सामान्यतः विधवाओं की स्थिति सोचनीय थी। परन्तु विधवा विवाह को विवाह कर से मुक्त रखा गया था। इससे पता चलता है कि विजय नगर के शासक विधवाओं की दशा को सुधारना चाहते थे।
दहेज प्रथा:-इस काल में भी दहेज प्रथा प्रचलित थी। देव राय द्वितीय ने 1424-25 ई0 के एक अभिलेख में दहेज को अवैधानिक घोषित कर दिया था।
सती प्रथा:- विजय नगर में सती प्रथा भी प्रचलित थी। इसका वर्णन बारबोसा ने सर्वप्रथम किया है। द्वितीय बार सती प्रथा का उल्लेख करने वाले निकोलो कोण्टी था। इसका प्रमाण अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर भी दिया जा सकता है।
बुक्का प्रथम के समय के 1354 ई0 के एक अभिलेख में मालागौड़ा नामक एक महिला के सती हो जाने का उल्लेख है। परन्तु अभिलेखीय एवं विदेशी यात्रियों के वर्णन में विरोधाभास दिखाई पड़ता है। जहाँ अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार यह प्रथा नायकों तथा राज परिवारों तक ही सीमित थी वहीं बारबोसा के अनुसार ब्राहमणों, चेट्टियों, लिंगायतों में यह प्रथा प्रचलित नहीं थी। सती होने वाली स्त्री के स्मृति में पाषाण स्मारक लगाये जाते थे। जिसे सतीकल कहा जाता था।
वस्त्राभूषण:-सामान्य वर्ग के पुरुष धोती और सफेद कुर्ता पहनते थे। पगड़ी भी पहनने की प्रथा प्रचलित थी। परन्तु वे जूते नहीं पहनते थे। सामान्य वर्ग की स्त्रियाँ साड़ी पहनती थीं जबकि राज परिवार की स्त्रियाँ पावड़ (एक प्रकार का पेटीकोट)। स्त्री एवं पुरुष दोनों आभूषण प्रिय थे। इसी तरह उनमें इत्रों के प्रति लगाव था।
गंड पेद्र:- युद्ध में वीरता दिखाने वाले पुरुष द्वारा पैरों में धारण करने वाला कड़ा जो सम्मान का प्रतीक माना जाता था।
शिक्षा एवं मनोरंजन:- विजय नगर काल में शिक्षा का कोई विभाग नही था न ही किसी विद्यालय की स्थापना करवाई गयी थी। यह मूलतः मंदिरों मठों और अग्रहारों में दी जाती थी। लोक प्रिय विषयों में वेद पुराण, इतिहास, काव्य, नाटक, आयुर्वेद आदि प्रमुख थे।
मनोरंजन के साधनों में नाटक यक्षगान मंच पर संगीत और वाद्यों द्वारा अभिनय लोकप्रिय थे।
वोम लाट:-एक प्रकार का छाया नाटक था। शतरंज और पासा भी लोकप्रिय थे। कृष्ण देवराय स्वयं शतरंज का प्रसिद्ध खिलाड़ी था।
कुश्ती:- पायस के अनुसार (कुश्ती भी लोकप्रिय था) यह पुरुषों और महिलाओं में समान रूप से प्रचलित था।
नोट:-

  1. कुरवाई:- यह एक प्रकार का चावल था।
  2. वेंकट द्वितीय ने पुर्तगालियों को बेल्लौर में एक चर्च बनवाने की अनुमति दी।
  3. स्थानीय प्रशासन में सभाओं का उल्लेख मिलता है। नाडु की सभा को नाडुकहा तथा इसके सदस्यों को नान्तवर कहा गया।
  4. गीली भूमि को नन्जाई तथा नगद लगान को सिद्दम कहा जाता था।
  5. बैलों एवं गायों के मांस को छोड़कर सभी पशुओं के मंास खये जाते थे।
  6. पायस ने नव रात्रि पर्व का उल्लेख किया है। उसके अनुसार इस पर्व के अंतिम दिन ढाई सौ भैसों तथा साढ़े चार हजार भेड़ों की बलि चढ़ाई जाती थी।

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