सन् 1857 के विद्रोह की विफलता का विश्लेषण करने पर हमें निम्नलिखित कारण दिखाई पड़ते हैं-
- यह विद्रोह स्थानीय, सीमित तथा असंगठित था। बिना किसी पूर्व योजना के शुरू होने के कारण यह विद्रोह अखिल भारतीय स्वरूप धारण नहीं कर सका और भारत के कुछ ही वर्गों तक सीमित रहा।
- देखा जाए तो विद्रोह की प्रकृति के मूल में सामंतवादी लक्षण थे। एक तरफ अवध, रुहेलखण्ड तथा उत्तर भारत के सामंतो ने विद्रोह का नेतृत्व किया, तो दूसरी ओर पटियाला, जींद, ग्वालियर तथा हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह के दमन में भरपूर सहयोग दिया। इसका प्रमाण कैनिंग के इस बयान से मिलता है-’’यदि सिंधिया विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो ,मुझे कल ही बोरिया-बिसतर समेटकर वापस लौट जाना होगा।’’
- अंग्रेजों के साधन विद्रोहियों के साधनों की अपेक्षा बहुत अधिक मात्रा में तथा उन्नत किस्म के थे। जहाँ भारतीय विद्रोही परंपरागत हथियारों, तलवार और भालों से लड़े, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज सेना आधुनिकतम हथियारों से लैस थी। तार-व्यवस्था जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग ने अंग्रेजों की ताकत कई गुना बढ़ा दी।
- विद्रोहियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। विद्रोहियों के सामने ब्रिटिश सत्ता के विरोध के अतिरिक्त कोई अन्य समान उद्देश्य नहीं थाा। उन्हें आगे क्या कराना होगा, यह निश्चित नहीं था। वे तो भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहा रहे थे।
- विद्रोहियों के पास जहाँ सक्षम नेतृत्व का अभाव था, वहीं कंपनी का लाॅरेंस बंधु, निकोलसन, आउट्रम, हैबलाॅक एवं एडवड्र्स जैसे योग्य सैन्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त थीं। विद्रोह में आधुनिक शिक्षाप्राप्त भारतीयों का सहयोग विद्रोहियों को नहीं मिला। वे भारत के पिछड़ेपन को समाप्त करना चाहते थे तथा उनके मन में यह भ्रम था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के माध्यम से इस काम को पूरा करने में उनकी मदद करेंगे। वे यह मानते थे कि विद्रोही देश में सामंतवादी व्यवस्था पुनः स्थापित कर देंगे।
- विद्रोहियों को उपनिवेशवाद की कोई विशेष समझ नहीं थी जो कि एक ऐसी विचारधारा थी जिसके सहारे ब्रिटेन पूरे विश्व में अपनी जड़ें फैला चुका था। अतः इस विद्रोह का असफल होना अवश्यंभावी था।
- विद्रोहियों के पास भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा या भावी समाज की कोई रूपरेखा नहीं थी। किसी निश्चित योजना के अभाव के साथ ही ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकनें के पश्चात् वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं था। इसके अलावा, वे आपस में भी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखा करते थे।
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विद्रोह के परिणाम (Consequences of the Revolt):
भले ही 1857 का विद्रोह असफल रहा, किंतु भारत में अंग्रेजी शासन के लिए यह पहली बार एक प्रबल और प्रत्यक्ष संकट के रूप में प्रकट हुआ। विद्रोह के दमन के दौरान एवं बाद में विद्रोही भारतीय सैनिकों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। दंडस्वरूप उनकी स्वतंत्रता और संपत्ति छीन ली गई। विजेता अंग्रेजी सेनाओं ने भारतीय लोगों पर अमानवीय उत्पीड़न किए। छद्म मुकदमा चलाने के बाद कई विद्रोहियों को मनमाने तरीके से फाँसी दे दी गई। दंड देते समय उन्हें अपमानित एवं प्रताड़ित किया गया। अनेक गाँव नष्ट कर दिए गए। भारतीय लोग अब अपने अंग्रेज शासकों से पहले से कहीं अधिक दूर हो गए। दूसरी ओर, 1857 के क्रांति से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने अपने प्रशासनिक ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन किए जो कि इस प्रकार हैं-
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- विद्रोह के सबसे महत्वपूर्ण परिणाम के रूप में महारानी की उद्घोषणा 1 नवंबर, 1858 को लाॅर्ड कैनिंग द्वारा उद्घोषित की गयी। उद्घोषणा में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति और भारत के शासन को सीधे ब्रिटिश ताज ;ठतपजपेी ब्तवूदद्ध के अंतर्गत लाए जाने की घोषणा की गई।
- 1858 ई0 के अधिनियम के तहत ब्रिटेन में एक ’भारतीय राज्य सचिव’ का पद सृजित किया गया। इसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ’मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
- सैन्य पुनर्गठन के तहत यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ा दिया गया। उच्च सैन्य पदों पर भारतीय सेनिकों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णतः अंग्रेजी सेना का अधिकार हो गया। अब सेना में भारतीयों एवं अंग्रेजों का अनुपात 2:1 का हो गया। विदा्रेह के पूर्व यह अनुपात 5ः1 था। बम्बई और मद्रास में सेना 2ः5 के अनुपात में रखी गई। उच्च जाति के लोगों का सेना में भर्ती किया जाना बंद कर दिया गया।
- सन् 1858 के अधिनियम के अंतर्गत भारत के गर्वनर जनरल को वायसराय कहा जाने लगा। इसके अनुसार लाॅर्ड कैनिंग ब्रिटिश भारत के प्रथम वायसराय बने। विद्रोह के फलस्वरूप सामंतवादी व्यवस्था चरमरा गयी। आम भारतीयों के बीच सामंतवादिता की छवि देशद्रोहियों की हो गई क्योंकि सामंतों ने विदोह को दबाने में अंग्रेजों को सहयोग दिया था।
- 857 के विदोह के पश्चात् अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार की नीति का तो अंत हो गया, परंतु इसके स्थान पर उनकी आर्थिक शोषण की नीति आरंभ हो गयी।
- भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के लिए अल्प प्रयास के तहत 1861 ई0 में भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया गया। इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी आई, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया तथा मुगल साम्राज्य के अस्तित्व को सदा े लिए समाप्त कर दिया गया।
- स्थानीय लोगों को उनके सम्मान एवं अधिकारों को पुनः वापस दिलाने की बात कही गयी। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन किए जाने का भरोसा दिलाया, लेकिन साथ ही, नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की इच्छा व्यक्त की। अपने राज्यक्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा जताने के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्यक्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण बर्दास्त न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने के प्रति अपनी वचनबद्धता व्यक्त की ओर साथ ही धार्मिक शोषण समाप्त करने एवं नौकरियों में भेदभावरहित नियुक्ति की बात कही।
- सन् 1861 में भारतीय नागरिक सेवा अधिनियम (Indian Civil Services Act, 1861) पास हुआ। इसके अंतर्गत लंदन में प्रत्येक वर्ष एक प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित करने की बात कही गई।
दूसरी ओर भारत के संदर्भ में, विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता नये रूप में दृष्टिगत हुई, जिसका आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा।
विद्रोह का महत्व (Importance of the Revolt):
सन् 1857 के विद्रोह का योगदान इस रूप में है कि इसने भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने तथा राष्ट्रीय भावना विकसित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस विद्रोह ने भारतीयों को एकता और संगठन का पाठ पढ़ाया जो कि भविष्य में उनका प्रेरणा-सा्रेत बना। विद्रोह के पश्चात ब्रिटिश शासन ने भारत के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस किया तथा वह भारत की स्थिति सुधारने की ओर अग्रसर हुआ। यह विद्रोह ही भारत के संवैधानिक विकास का उद्गम बिंदु बना जिसने भारतीयों को शासन में भागीदारी का प्रशिक्षण दिया।
1857 के विद्रोह से संबंधित महत्वपूर्ण पुस्तकें
पुस्तक लेखक 1. फस्र्ट वाॅर आॅफ इंडियन इंडिपेंडेंस वी.डी. सावारकर 2. द सिपाॅइ म्यूनिटी एंड द रिवोल्ट आॅफ1857 आर. सी. मजूमदार 3. एट्टीन फिफ्टी सेवन (Eighteen Fifty seven) एस. एन. मजूमदार 1857 के विद्रोह के बारे में इतिहासकारों के मत
इतिहासकार मत सर जाॅन लारेन्स, सीले पूर्णतया सैनिक विद्रोह आर.सी.मजूमदार 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। सावरकर, अशोक मेहता राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए सुनियोजित युद्ध टी आर. होम्स सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष एल.आर.रीज. ईसाई धर्म के विरूद्ध एक धर्म युद्ध जेम्स आउट्रम, डब्ल्यू टेलर अंगे्रजों के विरूद्ध हिन्दू-मुसलमानों का षड्यंत्र डिजरायली राष्ट्रीय विद्रोह डाॅ. राम विलास शर्मा जन क्रांति डाॅ. ईश्वरी प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम 1857 का विद्रोहः एक नजर में
केन्द्र विद्रोही नेता विद्रोह का दिन विद्रोह को कुचलने वाले सेनानायक समर्पण का दिन दिल्ली बहादुरशाह जफर, बख्त खाॅ 11 मई. 1857 निकोलस, हडसन 20 सितम्बर, 1857 लखनऊ बेगम हजरत महल 4 जून. 1857 काॅलिन कैम्पबेल 31 मार्च. 1857 कानपुर नानासाहब, तात्या टोपे 5 जून. 1857 काॅलिन कैम्पबेल दिसम्बर, 1857 झाॅसी, ग्वालियर रानी लक्ष्मीबाई, तत्या टोपे जून 1857 जनरल ह्यूरोज 17 जून. 1858 जगदीशपुर कुॅवर सिंह, अमर सिंह 12 जून, 1857 मेजर विलियम टेलर दिसम्बर, 1858 फैजाबाद मौलवी अहमदुल्ला जून, 1857 जनरल रेनार्ड 5 जून, 1858 इलाहाबाद लियाकत अली जून 1857 कर्नल नील 1858 बरेली खान बहादुर खान जून, 1857 बिसेंट आयर 1858