सामाजिक सुधार:- उन्नीसवीं सदी के राष्ट्रीय जागरणका प्रमुख सामाजिक सुधार के क्षेत्र में देखने को मिला। नवशिक्षित लोगों ने बढ़-बढ़कर जड़ सामजिक रीतियों तथा पुरानी प्रथाओं से विद्रोह किया। वे अब बुद्धिविरोधी और अमानवीय सामकजिक व्यवहारों को और सहने को तैयार न थे। उनका विद्रोह सामाजिक समानता तथा सभी व्यक्तियों की समान क्षमता के मानवतावादी आदर्शों से प्रेरित था।
स्त्रियों की मुक्तिः भारत में स्त्रियाॅ अनगिनत सदियों से पुरूष की अधीन तथा सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रही है। भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मों व उन पर आधारित गृहस्थ-नियमों ने स्त्रियों को पुरूषों से हीन स्थान दिया गया। इस संबंध में उच्च वर्गों की स्त्रियों की स्थिति किसान औरतों से भी बदतर थी। चूंकि किसान स्त्रियां अपने पुरूषों के साथ खेतों में काम करती थीं इसलिए उनको बाहर आने-जाने की कुछ अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, और परिवार में उनकी स्थिति उच्च वर्गों की स्त्रियों से कुद मामलों में बेहतर थी। उदाहरण के लिए, वे शायद ही कभी पर्दे में रहती हों तथा उनमें से अनेकों को पुनर्विवाह के अधिकार प्राप्त थे।
पारंम्परिक विचारधारा से पत्नी और मां की भूमिका में स्त्री की प्रशंसा तो की गई मगर व्यक्ति के रूप में उसे बहुत हीन सामाजिक स्थान दिया गया। अपने पति से अपने संबंधों से अलग-उसका भीएक व्यक्तित्व है, ऐसा कभी नहीं माना गया। अपनी प्रतिभा या इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए घरेलू महिला से भिन्न कोई अन्य भूमिका उसे प्राप्त न थी। वास्तव में, उसे पुरूष का पुछल्ला मात्र माना गया। उदाहरण के लिए हिंदुओं में किसी स्त्री का एक ही विवाह संभव था, मगर किसी पुरूष को अनेक पत्नियां रखने का अधिकार था। मुसलमानों में भी यह बहुपत्नी -प्रथा प्रचलित थी। देश के काफी बड़े भाग में स्त्रियों को पर्दे में रखा जाता था। बाल-विवाह की प्रथा आम थी आठ-नौ वर्ष के बच्चे भी ब्याह दिए जाते थे। विधवांए पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं। और उन्हें त्यागी व बंदी जीवन बिताना पड़ता था देश के अनेक भागों में सती-प्रथा प्रचलित थी जिसमें एक विधवा स्वयं को पति की लाश के साथ जला लेती थी।
हिंदू स्त्री को उत्तराधिकार में संपत्ति पाने का हक नहीं था, न उसे अपने दुखमय विवाह को रद करने का कोई अधिकार था। मुस्लिम स्त्री को संमत्ति में अधिकार मिलता तो था, मगर पुरूषों का केवल आधा और तलाक के बारे में स्त्री और पुरूष के बीच सैद्धांतिक समानता भी न थी। वास्तव में, मुस्लिम स्त्रियां तलाक से भयभीत रहती थीं। हिंदू व मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति उनके मान-सम्मान भी मिलते-जुलते थे। इसके अलावा, दोनों ही सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पुरूषों पर पूरी तरह निर्भर थीं। अंतिम बात यह कि शिक्षाके लाभ उनमें से अधिकांश को प्राप्त नहीं थे। साथ ही, स्त्रियों का अपनी दासता को स्वीकार कर लेने, बल्कि सम्मान का प्रतिक समझने के पाठ भी पढ़ाए जाते थे। यह सही है कि भारत में कभी-कभी रजिया सुल्तान,तथा चांद बीबी होकर जैसी स्त्रियां भी गुजरी है। मगर यह उदाहरण मात्र अपवाद है। और इनसे सामान्य स्थिति में कोई अंतर नहीं आता।
उन्नीसवीं सदी के मानवतावादी व समानतावादी विचारों से प्रेरित होकर समाज-सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए एक शक्तिशाली आंदोलन छेड़ा कुछ सुधारकों ने व्यक्तिवाद तथा समानता के सिद्धांतों का सहारा लिया, तो दूसरों ने घोषणा की कि हिंदू धर्म, इस्लाम या जरथूस्त्र मत स्त्रियों की हीन स्थिति के प्रचार नहीं है और यह सच्चा धर्म उन्हें एक ऊचां सामाजिक दर्जा देता है।
अनेकानेक व्यक्तियों, सुधार समितियों तथा धार्मिक संगठनों ने स्त्रियों मे शिक्षा का प्रसार करने विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने, विधवाओ की दशा सुधारने, बाल विवाह रोकने, स्त्रियों को पर्दे से बाहर लाने, एक पत्नी-प्रथा प्रचलित करने और मध्यवर्गीय स्त्रियों को व्यवसाय या सरकारी रोजगार में जाने के योग्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत की। वर्ष 1880 के दशक में तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन पत्नी लेडी उफरिन के नाम पर जब डफरिन अस्पताल खोले गए तो आधुनिक औषधियों तथा प्रसव की आधुनिक तकनीक के लाभ भारतीय स्त्रियों को की उपलब्ध कराने के प्रयास भी किए गए।
बीसवीं सदी में जुझारू राष्ट्रीय आंदोलन के उदयसे स्त्री-मुक्ति के आन्दोलन को बहुत बल मिला। स्वतंत्रता के संघर्ष में स्त्रियों ने एक सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बंग-भंग विरोधी आंदोलन तथा होम रूल आंदोलन में उन्होंने बड़ी संख्या में भाग लिया। वर्ष 1918 के बाद राजनीतिक जुलूसों में भी चलने लगी। विदेशी वस्त्र बेचने वाली दुकानों पर धरने देने लगीं, और खादी बुनने तथा उसका प्रचार करने लगीं। असहायोग आंदोलन में वे जेल गई तथा जन-प्रदर्शनों में डन्होंने लाठी, आंसू-गैस और गोलियां भी झेलीं। उन्होंने क्रांतिकारी आतंवादी आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। वे विधानमंडलों के चुनावों में वोट देने तथा उम्मीदवारों के रूप में खड़ी भी होने लगीं। प्रसिद्ध कवियित्री सरोजनी नायडू राष्ट्रीय कांगे्रस की अध्यक्ष बनीं। अनेक स्त्रियां 1937 में बनी अनप्रिय सरकारों में मंत्री या संसदीय सचिव बनीं। उनमें से सैकड़ों नगरपालिकाओं तथा स्थानीय शासन दूसरी संस्थाओं की सदस्य तक बनी। वर्ष 1920 के दशक में जब ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन खडेे जुए तो स्त्रियां उनकी पहली पंक्तियों में दिखाई देती। भारतीय स्त्रियों की जागृति तथा मुक्ति में सबसे महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का रहा। कारण कि जिन्होंने ब्रिटिश जेलेां को झेला था उन्हें भला कौन हीन कह सकता था। और इन्हें और तक घरों में कैद रखकर गुडिया या दासी के जीवन से बहलाया जा सकता था? मनुष्य के रूप में अपने अधिकारों का दावा उन्हें ही था।
एक और प्रमुख घटनाक्रम था देश में महिला आंदोलन का जन्म। वर्ष 1920 के दशक तक प्रबुद्ध पुरूषगण स्त्रियों के कल्यांण के लिए कार्यरत रहे। अब आत्मचेतन तथा आत्मविश्वास प्राप्त स्त्रियों ने यह काम संभाला। इस उद्देश्य से उन्होंने अनेक संस्थाओं और संगठनों को खड़ा किया। इनमें सबसे प्रमुख था आल वूमेंन्ट कांफ्रेेंस जो 1927 में स्थापित हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष में बहुत तेजी आई। भारतीय संविधान (1950) की धारा 14 व 15 में स्त्री व पुरूष की पूर्ण समानता की गारंटी दी गई है। वर्ष 1956 के हिंदू उत्तराधिकार कानून ने पिता की संपत्ति में बेटी को बेटे के बराबर अधिकार दिया। वर्ष 195 के हिंदू विवाह कानून में कुछ विशिष्ट आधारों पर विवाह-संबंध भंग करने की छूट दी। गई स्त्री-पुरूष दोनों के लिए एक विवाह अनिवार्य बना दिया गया लेकिन दहेज प्राथा की बुराई अभी तक जारी है हालांकि दहेज लेने और देने, दोनो पर प्रतिबंध है। संविधान स्त्रियों को भी काम करने तथा सरकारी संस्थाओं में नौकरी करने के समान अधिकार देता है। संविधान के नीति-निदेशक सिद्धांत में स्त्री-पुरूष दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धांत भी शमिल है। स्त्रयों की समानता के सिद्धात को व्यवहार में लागू करने में अभी भी निश्चित ही अनेक स्पष्ट और अस्पष्ट बाधंए हैं। इसके लिए एक समुचित वातावरण का निर्माण आवश्यक है। फिर भी समाज-सुधार आंदोलन, स्वीधीनता संग्राम, स्त्रियों के अपने आन्दोलन तथा स्वतंत्र भारत के संविधान ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किए हैं। नारी मुक्ति आन्दोलनः 1829 में सती प्रथा का अंत बंगाल में हुआ। 1830 में इसे बंबई एवं मद्रास में लागू किया।
शिशुवध के विरूद्ध 1795 में और 1804 में नियम बने 1870 में कुछ और कानून बने।
विधवा विवाह की दिशा में कलकत्ता के संस्कृत काॅलेज के आचार्य ईश्वर चंन्द्र विद्यासागर का कार्य उल्लेखनीय है। पं. भारत में डी.के. कर्वे और मद्रास में विरेसलिंगम ने इस दिशा में विशेष प्रयत्न किये। कर्वे स्वयं विधवा पुनिर्विवाह संघ के सचिव बने। कर्वे ने 1899 में एक विधवा आश्रम स्थापित किया। 1906मे उन्होंने बंबई में भारतीय स्त्री विश्वविद्यालय की स्थापना की।
बाल विवाह को हतोत्साहित करने के लिए 1872 के लिए कानून नोटिव मैरिज एक्ट पारित किया गया जिसमें 14 से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित तथा बहु विवाह को भी गैर कानूनी घोषित किया गया।
किन्तु यह कानून अधिक प्रभावशाली नहीं हो सका। एक पारसी सुधारक वी.एम. मालाबारी के प्रयत्नों के फलस्वरूप 1891 में सम्पत्ति आयु अधिनियम पारित जिसमें 12 कम आयु की पर पाबंदी। 1931 में बडौदा सरकार ने द इन्फैन्ट मैरिज प्रिवेंशन ऐक्ट पास कर बाल विवाह पर निरषेध लगाया। भारत ने बाल विाह से संबधित सबसे महत्पूर्ण कदम 1930 में उठाया। इस वर्ष हर प्रसाद शास्त्री के प्रयत्नों से बाल विवाह निरोधक कानून पास हुआ जिसे शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है। इसने 18 से कम उम्र के लड़के और 14 वर्ष से कम उम्र की लड़की का विवाह अवैध घोषित कर दिया। स्त्रियों के शिक्षा प्रसार के लिए सभी तत्कालिक सुधार आदोलनों ने प्रयत्न किया। लेकिन यह काम इनसे पहले इसाईयों ने प्रारंभ किया थां इसाईयों ने 1819 में कलकत्ता तरूण स्त्री सभा की स्थापना की। आगे चलकर बेथन ने 1849 में बालिका विद्यालय स्थापित किया। स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए ईश्वर चंन्द्र विद्यासागर ने महत्वपूर्ण योगदान किए। 1854 के वुडस डिस्पैच में भी स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया। गया। 1927 में अखिल भारतीय महिला सभा की स्थापना हुई। 1956 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम और 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम परित किया हुआ।