भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन (Arrival of European Companies in India)
यूरोप के साथ भारत के व्यापारिक सम्बन्ध बहुत पुराने, यूनानियों के जमाने से है।
भारत-यूरोपीय व्यापारिक मार्ग जहां से भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन (Arrival of European Companies in India) हुआ |
प्रायः तीन मार्गो से यूरोपीय देशों के साथ व्यापार होता था-
उत्तरीमार्ग | अफगानिस्तान तथा मध्य एशिया से होता हुआ कैस्पियन सागर, काला सागर की ओर जाता था और कुस्तुन्तुनिया जाकर समाप्त होता था। |
मध्यम मार्ग – | फारस तथा सीरिया से होता हुआ भूमध्य सागर के तट पर लेवान्त तक पहुंचता था |
दक्षिणी मार्ग – | यह अरब सागर, फारस की खाड़ी तथा लाल सागर से मिस्र होता हुआ भूमध्य सागर के तट पर स्थित सिकन्दरिया तक जाता था |
– बेनिस अथवा जेनेवा के व्यापारी यहाँ से भारतीय माल को खरीदकर यूरोपीय देशेां में पहुँचाते थे।
पुर्तगालियों का भारत आगमन : (Arrival of Portuguese in India)
भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत, आर्थिक सम्पन्नता, आध्यात्मिक उपलब्धियाँ, दर्शन, कला आदि से प्रभावित होकर मध्यकाल में बहुत से व्यापारियों एवं यात्रियों का यहाँ आगमन हुआ। किंतु 15वीं शताब्दियों के उत्तरार्ध एवं 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के मध्य भारत में व्यापार के प्रारंभिक उद्देश्यों से प्रवेश करने वाली यूरोपीय कम्पनियों ने यहाँ की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक नियति को लगभग 350 वर्षों तक प्रभावित किया। इन विदेशी शक्तियों में पुर्तगाली प्रथम थे। इनके पश्चात् डच, अंग्रेज, डेनिश तथा फ्रांसीसी आए।
यूरोपीय शक्तियों में पुर्तगाली कंपनी ने भारत में सबसे पहले प्रवेश किया। भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज पुर्तगाली व्यापारी वास्कोडिगामा ने 17 मई, 1498 को भारत के पश्चिमी तट पर अवस्थित बंदरगाह कालीकट पहुँचकर की। वास्कोडिगामा का स्वागत कालीकट के तत्कालीन हिन्दू शासक जमोरिन द्वारा किया गया। तत्कालीन भारतीय व्यापार पर अधिकार रखने वाले अरब व्यापारियों को जमोरिन का यह व्यवहार पसंद नहीं आया, अतः उनके द्वारा पुर्तगालियों का विरोध किया गया भारत आने और जाने में हुए यात्रा-वयय के बदले में वास्कोडिगामा ने करीब 60 गुना अधिक धन कमाया।
इसके बाद धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने भारत आना आरम्भ कर दिया। भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों में पुर्तगालियों ने अपनी व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। भारत में द्वितीय पुर्तगाली अभियान पेड्रो अल्वरेज़ कैब्राल के नेतृत्व में सन् 1500 ई0 में छेड़ा गया। कैब्राल ने कालीकट बंदरगाह में एक अरबी जहाज को पकड़कर जमोरिन को उपहारस्वरूप भेंट किया। 1502 ई0 में वास्कोडिगामा का पुनः भारत आगमन हुआ। भारत में प्रथम पुर्तगाली फैक्ट्री की स्थापना 1503 ई0 में कोचीन में की गई तथा द्वितीय फैक्ट्री की स्थापना 1505 ई0 में कन्नूर में की गयी।
पुर्तगाल से प्रथम वायसराय के रूप में ’फ्रासिस्को द अल्मेडा’ का आगमन सन् 1505 ई0 में हुआ। यह 1509 ई0 तक भारत में रहा। उसके द्वारा अपनाई गयी यह नीति’नीले या शांत जल की नीति’ कहलाई 1508 ई0 में अल्मेड़ा संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (मिश्र , तुर्की , गुजरात) के साथ चौल के युद्ध (War of Chaul, 1508) में पराजित हुआ। अगले वर्ष अर्थात् 1509 ई0 में अल्मेडा ने इसी संयुक्त मुस्लिम बेड़े को पराजित किया। इसने हिन्द महासागर में पुर्तगालियों की स्थति को मजबूत करने के लिए सामुद्रिक नीति को अधिक महत्व दिया।
सन् 1509 ई0 में भारत में अगले पुर्तगाली वायसराय के रूप में अल्फांसो द अल्बुकर्क का आगमन हुआ। इसे भारत में पुर्तगाल शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्या बनाया। अल्बुकर्क ने 1510 ई0 में गोवा को बीजापुर के शासक युसुफ आदिलशाह से छीनकर अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। इसने 1511 ई0 में दक्षिण-पूर्व एशिया की महत्वपूर्ण मंडी ’मलक्का’ तथा 1515 ई0 में फारस की खाड़ी में अवस्थित होरमुज पर अधिकार कर लिया। अल्बुकर्क ने पुर्तगाली पुरुषों को पुर्तगालियों की आबादी बढ़ाने के उद्देश्य से भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया तथा पुर्तगाली सत्ता एवं संस्कृतिक के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में गोवा को स्थापित किया। यह वह समय था जब पुर्तगालियों ने प्रत्यक्ष रूप से भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया।
नीनो-डी-कुन्हा अगला प्रमुख पुर्तगाली गवर्नर था। इसका प्रमुख कार्य गोवा को पुर्तगालियों की औपचारिक राजधानी (1530ई0) के रूप में परिवर्तित करना था। 1530 ई0 में कुन्हा ने सरकारी कार्यालय कोचीन से गोवा स्थानान्तरित कर दिया कुन्हा ने हुगली (बंगाल) और सेन्थोमा (मद्रास के निकट) में पुर्तगाली बस्तियों को स्थापित किया एवं 1534 ई0 में बेसीन तथा 1535 ई0 में दीव पर अधिकार कर लिया। बेसीन के प्रश्न पर उसने गुजरात के शासक बहादुरशाह से युद्ध किया। इसमें बहादुरशाह की पराजय हुई तथा समुद्र में डूब जाने से उसकी मृत्यु हो गयी।
पश्चिम भारत के बंबई चैल, दीव, सालसेट एवं बेसीन नामक क्षेत्र पर पुर्तगाली वायसराय जोवा-डी-कैस्ट्रो द्वारा नियंत्रण स्थापित किया गया। भारत में प्रथम पादरी फ्रांसिस्कों जेवियर का आगमन अन्य पुर्तगाली गवर्नर अल्फांसो डिसूजा (1542-1545 ई.) के समय हुआ। पुर्तगाली एशियाई देशों से व्यापार के लिए भारत में अवस्थित नागपट्टनम बंदरगाह का प्रयोग करते थे। वे कोरोमण्डल तट पर मसुलीपट्टनम और पुलिकट शहरों से वस्त्रों को एकत्रित कर उनका निर्यात करते थे। पुर्तगाली चटगाँव (बंगाल) के बंदरगाह को महान बंदरगाह की संज्ञा देते थे।
पुर्तगालियों ने हिन्द महासागर से होने वाले आयात-निर्यात पर एकाधिकार स्थापित कर लिया था। उन्होंने यहाँ काॅट्र्ज-आर्मेडा काफिला पद्धति ;ब्वतजमे.।तउंकम ब्ंतंअंद ैलेजमउद्ध का प्रयोग किया जिसके अंतर्गत हिन्द महासागर का प्रयोग करने वाले प्रत्येक जहाज को शुल्क अदा करना होता था। पुर्तगालियों ने बिना परमिट (या काॅट्र्ज) के भारतीय एवं अरबी जहाजों को अरब सागर में प्रवेश करने से वर्जित कर दिया। पुर्तगालियों ने शुल्क लेकर छोटे स्थानीय व्यापारियों के जहाजों को संरक्षण प्रदान किया। जिन जहाजों को परमिट प्रापत होता था उन्हें गोला बारूद और काली मिर्च का व्यापार करने की अनुमति नहीं थी। मुगल सम्राट अकबर को भी पुर्तगालियों से काॅट्र्ज (परमिट) लेना पड़ा। मुगल शासक अकबर के दरबार में दो पुर्तगाली ईसाई पादरियों माॅन्सरेट तथा फादर एकाबियवा का आगमन हुआ। शाहजहाँ ने 1632 ई0 में हुगली को पुर्तगालियों के अधिकार क्षेत्र से छीन लिया। तत्पश्चात् औरंगजेब ने सन् 1686 ई0 में चटगाँव से समुद्री लुटेरों का सफाया कर दिया।
भारत में तंबाकू की खेती, जहाज निर्माण (कालीकट एवं गुजरात) तथा प्रिटिंग प्रेस की शुरूआत पुर्तगालियों के आगमन पश्चात् हुई। पुर्तगालियों ने ही सन् 1956 ई0 में गोवा में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। भारत में गोथिक स्थापत्य कला (Gothic Architecutre) पुर्तगालियों की ही देन है।
18वीं सदी की शुरूआत तक भारतीय व्यापार के क्षेत्र में पुर्तगालियों का प्रभाव कम हो गया था। यद्यपि पुर्तगालियों ने भारत में सर्वप्रथम प्रवेश किया, किंतु उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, बर्बरतापूर्ण समुद्री लूटपाट की नीति, अल्बुकर्क के अयोग्य उत्तराधिकारी, अंग्रेजी तथा डच शक्तियों (Cortes-Armade Caravan System) का विरोध, विजयनगर साम्राज्य का पतन तथा स्पेन द्वारा पुर्तगाल की स्वतन्त्रता का हरण इत्यादि अनेक कारणों से भारतीय व्यापार के क्षेत्र से उनका पतन हो गया।
भारत में डचों का आगमन (Arrival of the Dutch in India)
पुर्तगालियों के पश्चात् डच भारत आये। ये नीदरलैण्ड या हाॅलैण्ड के निवासी थे। डचों की नीयत दक्षिण-पूर्व एशिया के मसाला बाजारों में सीधा प्रवेश कर नियंत्रण स्थापित करने की थी। 1596 ई0 में कारनेलिस डि हाउटमैन (Cornelis de Houtman) भारत अपने वाला प्रथम डच नागरिक था। डचों ने सन् 1602 ई0 में एक विशाल व्यापारिक कम्पनी की स्थापना ’यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी आॅफ नीदरलैण्ड’ के नाम से की। इसका गठन विभिन्न व्यापारिक कम्पनियों को मिलाकर किया गया था। इसका वास्तविक नाम ’वेरिंगदे ओस्टइण्डिशे कंपनी’ (Verenigde Oostindische Compagnie-VOC) था।
डचों ने पुर्तगालियों से संघर्ष कर उनकी शक्ति को क्षीण कर दिया तथा भारत के सभी महत्वपूर्ण मसाला उत्पादन के क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। डचों ने गुजरात, बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में अपने व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। भारत में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना मसुलीपट्टनम् में सन् 1605 ई0 में हुई। इसके अतिरिक्त डचों द्वारा स्थापित अन्य महत्वपूर्ण फैक्ट्रियाँ पुलिकट (1610), सूरत (1616), चिन्सुरा, विमलीपट्टनम्, कासिम बाजार, पटना, बालासोर, नागपट्टनम तथा कोचीन में अवस्थित थीं। बंगाल में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना पीपली में सन् 1627 ई0 में की गयी। भारत से डच व्यापारियों ने मुख्यतः मसालों, नील, कच्चे रेशम, शीशा, चावल व अफीम का व्यापार किया। डचों द्वारा मसालो के निर्यात के स्थान पर कपड़ों को प्राथमिकता दी गयी। ये कपड़े कोरोमंडल तट (बंगाल) एवं गुजरात से निर्यात किए जाते थे। भारत को भारतीय वस्त्रों के निर्यात का केन्द्र बनाने का श्रेय डचों को जाता है।
विदेशी कंपनियाँ-
- एस्तादो द इंडिया (पुर्तगाली कंपनी)-1498
- वेरिंगिदे ओस्त इण्डिशे कंपनी (डच ईस्ट इंडिया कंपनी)-1602
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी-1600 (1599)
- डेन ईस्ट इंडिया कंपनी -1616
- कम्पने देस इण्देस ओरियंतलेस (फ्रांसीसी कंपनी) -1664
1759 ई0 में ’बेदरा के युद्ध (बंगाल) में अंग्रेजों द्वारा हुई पराजय के उपरांत भारत में अंतिम रूप से डचों का पतन हो गया। ’बेदरा के युद्ध’ में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व क्लाइव द्वारा किया गया। अंग्रेजों की तुलना में नौ-सैनिक शक्ति का कमजोर होना, अत्यधिक केन्द्रीकरण की नीति, बिगडती हुई आर्थिक स्थिति, मसालों के द्वीपों पर अत्यधिक ध्यान देना आदि को डचों के पतन के कारणों में गिना जाता है। डचों की व्यापारिक व्यवस्था का उल्लेख 1722 ई0 के दस्तावेजों में मिलता है। यह कार्टेल ;ब्ंतजमसद्ध अर्थात् सहकारिता पर आधारित व्यवस्था थी।
डच कम्पनी ने लगभग 200 वर्षों तक अपने साझेदारों को जितना लाभांश दिया ;18ःद्ध वह वाणिज्य के इतिहास में एक रिकाॅर्ड माना जाता है।
यूरोपीय व्यापारिक कंपनी से संबद्ध व्यक्ति
- वास्कोडिगामा – भारत आने वाला प्रथम यूरोपीय यात्री
- पेड्रो अल्वरेज कैब्राल भारत आने वाला द्वितीय पुर्तगाली।
- फ्रांसिस्को डि अल्मेडा -भारत का प्रथम पुर्तगाली गवर्नर
- जाॅन मिंल्डेनहाल -भारत आने वाला प्रथम ब्रिटिश नागरिक।
- कैप्टन हाॅकिन्स – प्रथम अंग्रेज दूत जिसने सम्राट जहाँगीर से भेंट की।
- जैराॅल्ड आॅन्गियान – बम्बई का संस्थापक।
- जाॅब चाॅरनाक – कलकत्ता का संस्थापक।
- चाल्र्स आयर – फोर्ट विलियम (कलकत्ता) का प्रथम प्रशासक।
- विलियम नाॅरिस – 1638 में स्थापित नई ब्रिटिश कंपनी ’टेªडिंग इन द ईस्ट’ का दूत जो व्यापारिक विशेषाधिकार हेतु
- औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुआ।
- फ्रैंकोइस मार्टिन – पण्डिचेरी का प्रथम फ्रांसीसी गवर्नर।
- फ्रांसिस डे – मद्रास का संस्थापक।
- शोभा सिंह – बर्धमान का जमींदार, जिसने 1690 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
- इब्राहिम खाँ – कालीकाता, गोबिन्दपुर तथा सुतानटी का जमींदार।
- जाॅन सुरमन – मुगल सम्राट फर्रुखसियर से विशेष व्यापारिक सुविधा प्राप्त करने वाले शिष्टमंडल का मुखिया।
- फादर माॅन्सरेट – अकबर के दरबार में पहुँचने वाले प्रथम शिष्टमंडल का अध्यक्ष।
- कैरोन फ्रैंक – इसने भारत में प्रथम फ्रांसीसी फैक्ट्री की सूरत में स्थापना की।