भारत में अंग्रेजों की भू-राजस्व व्यवस्था (British Land Revenue System in India),स्थायी भू-राजसव व्यवस्था (इस्तमरारी बंदोबस्त)(Permanent Land Revenue System) :-
कंपनी के अंतर्गत बंगाल में भू-राजस्व (Revenue System)के निर्धारण का प्रश्न खड़ा हुआ, जब ब्रिटिश कंपनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई। आरम्भ में लाॅर्ड क्लाइव ने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली जारी रखी तथा भू-राजस्व व्यवस्था में परम्परागत ढाँचे को ही बरकरार रखा। भू-राजस्व की अधिकतम वसूली पर कंपनी शुरू से ही बल देती थी। इसके पीछे उसका उद्देश्य भू-राजस्व संग्रह से प्राप्त एक बड़ी रकम का व्यापारिक वस्तुओं की खरीद में निवेश करना था। इसके अतिरिक्त सैनिक एवं अन्य प्रकार के खर्च को भी पूरा करना कंपनी का उद्देश्य था। अतः बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के शीघ्र बाद ही कंपनी ने बंगाल में भू-राजस्व की रकम बढ़ा दी। फिर भी कंपनी भारतीय अधिकारियों के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली करती रही। भू-राजस्व की वसूली की देख-रेख ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ही की जाती थी। किन्तु इस व्यवस्था का दुष्परिणाम यह रहा कि इस प्रकार की दोहरी व्यवस्था ने एक प्रकार के भ्रष्टाचार को जन्म दिया तथा किसानों का भरपूर शोषण आरम्भ हुआ। सन् 1769-70 ई0 के भयंकर अकाल को अंग्रेजी की इसी राजस्व नीति के परिणाम के रूप में देखा जाता है।
1772 ई. तक क्लाइव की व्यवस्था चलती रही। इसके बाद वारेन हेस्टिंग्स के समय बंगाल का प्रशासन प्रत्यक्ष रूप में कंपनी के अंतर्गत आ गया। वारेन हेस्टिंग्स ने भूू-राजस्व सुधार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने पूर्वकाल में घटित सभी प्रकार के भ्रष्टाचार के लिए बंगाल के दीवान रिजा खान को उत्तरदायी ठहराकर उसे अपदस्थ कर दिया। वारेन हेस्टिंग्स ने भारतीय अधिकारियों को हटाकर भू-राजस्व की वसूली को ब्रिटिश अधिकारियों के माध्यम से आगे बढ़ाया। कारण यह रहा कि इसी समय कंपनी को भी एक बड़ी रकम की आवश्यकता थी। इसकी पूर्ति के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में एक नयी पद्धति की शुरूआत की, जिसे फार्मिंग पद्धति (Farming System) कहा जाता है। इस पद्धति के तहत भू-राजस्व की वसूली ठेके पर नीलामी द्वारा की जाने लगी। आरम्भ में यह योजना 5 वर्षों के लिए लायी गयी थी तथा इसमें जमींदारों को अलग रखा गया था, क्योंकि वारने हेस्टिंग्स ऐसा मानता था कि इसमें जमींदारों को सम्मिलित किये जाने का अर्थ होगा-सरकार का भू-राजस्व की एक बड़ी रकम से वंचित हो जाना। चूँकि जमींदारों का ग्रामीण क्षेत्रों में वर्चस्व था और वे भू-राजस्व के विशेषज्ञ थे, अतः उनके सहयोग के बिना यह योजना सफल नहीं हो सकी। यही कारण रहा कि 1776 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने पंचवर्षीय योजना को रद्द कर एक वर्ष की योजना लागू की तथा इसमें जमींदारों को प्राथमिकता दी गयी। इस प्रकार, वारेन हेस्टिंग्स प्रयोग की प्रक्रिया से ही गुजरता रहा। दूसरी ओर, फार्मिंग पद्धति ;थ्ंतउपदह ैलेजमउद्ध से किसानों पर भू-राजस्व का अधिभार अत्यधिक बढ़ गया था। अतः कृषि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई।
इसी समय ब्रिटेन अपना अमेरिकी उपनिवेश खो चुका था। अतः वह भारतीय उपनिवेश के आधार पर मजबूत करने का प्रयास कर रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में कार्नवालिस का आगमन हुआ। लाॅर्ड कार्नवालिस ने यह अनुभव किया कि कृषि अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण कंपनी की रकम में उतार-चढ़ाव आ रहा था। बंगाल से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुएँ थीं सूती वस्त्र व रेशम। इन वस्तुओं के कृषि उत्पाद से ही सम्बन्धित होने के कारण और दूसरे कृषि अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण कंपनी का निर्यात प्रभावित होना स्वाभाविक ही था।
1793 ई. में कार्नवालिस ने भू-राजस्व प्रबंधन के लिए स्थायी बंदोबस्त को लागू किया। इसके द्वारा लागू किए गए भू-राजस्व सुधार के दो महत्त्वपूर्ण पहलू सामने आये –
(1) भूमि में निजी सम्पत्ति की अवधारणा का लागू करना, तथा
(2) स्थायी बंदोबस्त।
लाॅर्ड कार्नवालिस की पद्धति में मध्यस्थों और बिचैलियों को भूमि का स्वामी घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर, स्वतन्त्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और सामुदायिक सम्पत्ति को जमींदारों के निजी स्वामित्व में रखा गया। भूमि का विक्रय योग्य बना दिया गया। जमींदारेां को एक निश्चित तिथि को भू-राजस्व सरकार को अदा करना होता था। 1793 ई. के बंगाल रेग्यूलेशन के आधार पर 1794 ई. में ‘सूर्यास्त कानून’ (Sunset Law) लाया गया, जिसके अनुसार अगर एक निश्चित तिथि को सूर्यास्त होने तक जमींदार जिला कलेक्टर के पास भू-राजस्व की रकम जमा नहीं करता तो उसकी पूरी जमींदारी नीलाम हो जाती थी। इसके बाद 1799 और 1812 ई. के रेग्यूलेशन के आधार पर किसानेां को पूरी तरह जमींदारों के नियंत्रण में कर दिया गया, अर्थात् प्रावधान किया गया कि यदि एक निश्चित तिथि को किसान जमींदार को भू-राजस्व की रकम अदा नहीं करते तो जमींदार उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकता है। इसका परिणाम हुआ कि भू-राजस्व की रकम अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी तथा इसके लिए 1790-91 ई. के वर्ष को आधार वर्ष बनाया गया। निष्कर्षतः 1765-93 ई. के बीच कंनी ने बंगाल में भू-राजस्व की दर में दुगुनी बढ़ोत्तरी कर दी।
यहाँ यह प्रश्न विचारणीय है कि बंगाल में जमींदार इससे पहले कभी भी भूमि के स्वामी नहीं थे तो फिर स्थायी बंदोबस्त में उन्हें भूमिका मालिक क्यों घोषित किया गया? यह माना जाता है कि कार्नवालिस की इस सोच पर फ्रांसीसी प्रवृत्ति के तंत्रवादियों का प्रभाव था। 1770 ई0 के दशक में कार्नवालिस से पहले भी इस तरह की अवधारणा सामने आयी थी तो समाज को समृद्धि तथा स्वामित्व को स्थापित कर दिया जाए तो समाज को समृद्धि तथा स्थायित्व की स्थिति आती है। फिलिप फ्रैंसिस एवं हेनरी पाडुल्यों जैसे ब्रिटिश अधिकारी भूमि का निजी कार्नवालिस का झुकाव स्वाभाविक ही था क्योंकि वह खुद भी जमींदार वर्ग से संबंध रखता था।
कार्नवालिस की पद्धति मुख्यतः भौतिक अभिप्रेरणा से परिचालित थी। वस्तुतः स्थायी बंदोबस्त लागू करने के पीछे कार्नवालिस के कई उद्देश्य थे यथा –
(1) उसका मानना था कि इस पद्धति को लागू करने के बाद कंपनी को भू-राजस्व की रकम अधिकतम तथा स्थायी रूप से प्राप्त होगी।
(2) कृषि के विस्तार का लाभ सरकार के बजाय जमींदारेां को प्राप्त होगा।
(3) जमींदार प्रगतिशील जमींदार सिद्ध हो सकेंगे। परिणामतः वे कृषि में निवेश करने के लिए उन्मुख होंगे। अतः कृषि का विकास होगा।
(4) जमींदारी की खरीद-बिक्री की व्यवस्था के कारण नगरीय क्षेत्र में मुद्रा का आगमन होगा।
(5) उसका विश्वास था कि कृषि के क्षेत्र में होने वाला विकास, व्यापार-वाणिज्य के विकास को भी बढ़ावा देगा क्योंकि बंगाल से निर्यात की जाने वाली अधिकतर वस्तुएँ कृषि उत्पाद से जुड़ी हुई थी। यद्यपि भू-राजस्व में सरकार का अंश स्थायी रूप में निश्चित हो जायेगा तथापि, समय-समय पर व्यापारिक वस्तुओं पर कर की राशि में वृद्धि कर सरकार उसकी भरपाई कर सकेगी।
(6) स्थायी बंदोबस्त का लागू करने के पश्चात् सरकार प्रशासनिक झंझटों से बच सकेगी क्योंकि जमींदारों के माध्यम से भू-राजस्व की वसूली अपेक्षाकृत आसान हो जायेगी।
स्थायी भूमि व्यवस्था
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उसे एक राजनैतिक लाभ प्राप्त होने की आशा थी कि इस व्यवस्था को लागू करने के पश्चात् एक ब्रिटिश समर्थक जमींदार वर्ग तैयार हो जायेगा।
यदि उपर्युक्त बिंदुओं का विवेचन किया जाएतो व्यावहारिक दृष्टि से कार्नवालिस का कोई भी उद्देश्य स्पष्ट रूप से पूरा नहीं हो सका। सरकार को एक निश्चित रकम स्थायी रूप से भले ही मिलने लगी थी, किन्तु यह भी सही है कि वह भविष्य में होने वाले कृषि के विस्तार के लाभ से वंचित हो गयी थी। दूसरे, जमींदार प्रगतिशील जमींदार सिद्ध नहीं हो सके तथा उन्होंने कृषि के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त जमींदारी व्यवस्था के अंतर्गत अनुपस्थित जमींदारी (Absentee Landlord sim) एवं उप-सामंतीकरण (Sub-federalization) जैसी बुराइयाँ उभरकर सामने आयी। उदाहरणार्थ, यद्यपि कार्नवालिस इस बात का विरोधी रहा था कि किसान और जमींदार के बीच बिचैलियों का कोई स्तर कायम हो, परन्तु आगे चलकर उपसामंतीकरण की व्यवस्था विकसित हो गयी। 19वीं सदी के पूर्वार्ध में वर्दवान के राजा ने अपनी जमींदारी को कई अधीनस्थ जमींदारों के बीच बाँट दिया और सरकार ने इस स्थिति को स्वीकार किया, इसे पटनी पद्धति (Patni System) के नाम से जाना जाता है। कई क्षेत्रों में तो स्थिति यह हो गई कि किसान-जमींदारों के बीच मध्यस्थों के बारह स्तर कायम हो गये। इसका नतीजा यह निकला कि जमींदारी न रहने के कारण ग्रामीण क्षेत्र से ही नगरीय क्षेत्र में मुद्रा का पलायन शुरू हो गया।
अंततः स्थिति यह हुई कि कंपनी प्रशासनिक परेशानियों से मुक्त होने की बजाय नये प्रकार की प्रशासनिक दिक्कतों में उलझ गयी। वस्तुतः स्थायी बंदोबस्त के तहत भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी थी, इसलिए आरम्भ में बंगाल के जमींदारों को यह रकम अदा करने में बड़ी परेशानी हुई तथा अनेक जमींदारियाँ नीलाम हो गयी तथा इसके कारण प्रशासनिक परेशानियाँ कम होने के बजाय और भी बढ़ गई। कंपनी राज का समर्थन प्राप्त होने के कारण कार्नवालिस अपने उद्देश्य में कुछ हद तक सफल भी रहा। यह भी सत्य है कि इन जमींदारों का शोषण इतना बढ़ गया कि अधिसंख्य किसान ब्रिटिश शासन से विक्षुब्ध होते चले गये।
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System) :-
सामान्यतया रैय्यतवाड़ी व्यवस्था एक वैकल्पिक व्यवस्था थी जो स्थायी बंदोबस्त के साथ कंपनी के मोहभंग होने के कारण एक विकल्प के रूप में सामने आई। इस व्यवस्था के लिए उत्तरदायी एक महत्वपूर्ण कारण विचारधारा एवं दृष्टिकोण का प्रभाव था। अन्य शब्दों में ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में भारत में किये जाने वाले भू-राजस्व सुधार की प्रक्रिया शास्त्रीय अर्थशास्त्र (Classical Economics) तथा रिकार्डों के लगान सिद्धांत (Recardo’s Theory of Rent) से प्रभावित थी।
रिकार्डों का यह मानना था कि कृषि उत्पादन से कृषि उपकरण के मूल्य एवं किसानों के श्रम के मूल्य के अंश को अलग करने से जो रकम बचती है, वह विशुद्ध अधिशेष (Net Surplus) होता है। लगान की दृष्टि से उसके एक भाग पर सरकार अपना दावा कर सकती है। उसी प्रकार जमींदार एक निर्भर वर्ग है जो स्वयं तो उत्पादन में हिस्सा नहीं लेता लेकिन केवल भूमि पर स्वामित्व के आधार पर वह भूमि के अधिशेष पर अपना दावा करता है। अतः यदि उस पर कर लगाया जाता है तो भूमि का उत्पादन दुष्प्रभावित नहीं होगा। मुनरो और एलफिंस्टन जैसे ब्रिटिश अधिकारियों पर स्काॅटिश प्रबोधन (Scottish Enlightenment) का भी असर माना जाता है। स्काॅटिश प्रबोधन के तहत जमींदारों की आलोचना की गयी थी तथा स्वतन्त्र किसानों में आस्था प्रकट की गयी थी। इसके अतिरिक्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था पर पितृसत्तावादी दृष्टिकोण ;च्ंतजपंतबींस ।चचतवंबीद्ध का भी प्रभाव माना जाता है। मुनरो का यह मानना था कि दक्षिण भारत में भूमि पर राज्य का ही स्वामित्व रहा था तथा राज्य प्रत्यक्ष रूप से भू-राजस्व की वसूली करता रहा था। राज्य का नियंत्रण कमजोर पड़ने के बाद पोलीमार जैसे बिचैलिये, जो स्थानीय जमींदार थे, ने भू-राजस्व के संग्रह की शक्ति अपने हाथों में ले ली।
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को प्रेरित करने में भौतिक अभिप्रेरणा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए, अब कंपनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि स्थायी बंदोबस्त उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है तथा इससे कंपनी भविष्य के लाभ से वंचित हो गयी है। एक अन्य कारण यह भी था कि मद्रास प्रेसीडेंसी में निरंतर युद्ध और संघर्ष के कारण कंपनी पर वित्तीय दबाव बहुत ज्यादा था। इसलिए भी कंपनी ने मध्यस्थ और बिचैलियों के अंश को समाप्त करने का प्रयास किया। तीसरे, बंगाल में तो जमींदार वर्ग था, लेकिन पश्चिम व दक्षिण भारत में भू-राजस्व प्रबंधन के लिए कोई स्पष्ट वर्ग नहीं था।
कर्नल रीड ने मद्रास प्रेसीडेन्सी में सर्वप्रथम 1792 ई. में तमिलनाडु के बारामहल क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया, किंतु कर्नल रीड का इससे विश्वास टूटने पर टामस मुनरो का विश्वास इस पर और भी गहरा गया। मुनरो ने 1809 ई. में कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग किया। फिर आगे मद्रास के गवर्नर की हैसियत से उसने 1818 ई. एवं इसके पश्चात् मद्रास में इसे लागू किया। इसी प्रकार मुनरो के शिष्य एलफिंस्टन ने इसे बाॅम्बे प्रेसीडेन्सी में लागू किया। सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के 51% क्षेत्र में यह व्यवस्था लागू थी।
रैय्यतों के पंजीकरण की व्यवस्था भी रैय्यतवाड़ी पद्धति का ही एक अंग था, जिसके अन्तर्गत पंजीकत रैय्यतों (किसानों) को भूमि का स्वामी माना गया तथा बिना किसी मध्यस्थ और बिचैलियों के प्रत्यक्षतः इनके साथ भू-राजस्व का प्रबंधन किया गया। स्थायी बंदोबस्त की तरह इस व्यवस्था के अंतर्गत भी भूमि बेची जा सकती थी। रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में सामुदायिक सम्पत्ति को राज्य के नियंत्रण में कर दिया गया। इसके बाद इस क्षेत्र में भू-राजस्व की व्यवस्था स्थायी रूप में नहीं वरन् अस्थायी रूप में की गई। समय-समय पर इसका पुनर्निरीक्षण भी किया जाता था। अधिकारियों के द्वारा कृषि भूमि का सर्वेक्षण कराया गया तथा सम्बन्धित भूमि की उत्पादक क्षमता को भू-राजस्व का आधार बनाया गया। यह सामान्यतः कुल उत्पादन का 2/5 भाग होता था। किसानों का यह छूट दी गयी थी कि वे जिस प्रकार की भूमि को जोतना चाहें, उसी प्रकार की भूमि को ग्रहण करें। लेकिन भूमि के आधार पर ही उन्हें राजस्व अदा करना होगा। परन्तु 1820 ई. के बाद इस व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। किसानों का यह विकल्प समाप्त कर दिया गया तथा उन पर जबरदस्ती भूमि जोतने के लिए दबाव डाला गया। दूसरा बदलाव वह आया कि भूमि के वास्तविक सर्वेक्षण के बदले अनुमान के आधार पर भू-राजस्व का निर्धारण किया जाने लगा। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि इस काल में किसानों का व्यापक शोषण हुआ। इस बात का खुलासा मद्रास यातना आयोग के द्वारा किया गया। परन्तु 1855 ई. के पश्चात् स्थिति में कुछ सुधार देखा गया जब भू-राजस्व की राशि पहले की तुलना में कम की गई।
कालांतर में इस पद्धति को एलफिंस्टन के द्वारा बाॅम्बे में लागू किया गया। बाॅम्बे प्रेसीडेंसी में आरम्भिक सर्वेक्षण प्रिंगले के अंतर्गत करवाया गया। प्रिंगले के प्रबंधन पर रिकार्डोंं के लगान सिद्धांत का प्रभाव परिलक्षित होता था। इसलिए भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी। परन्तु इसके परिणामस्वरुप किसानों को अत्यधिक परेशानी होने लगी क्योंकि उन्हें पहले की अपेक्षा कहीं अधिक राशि चुकानी होती थी। इसके बाद विंगेर और गोल्डस्मिथ के द्वारा नये सर्वेक्षण कराये गये। इन नए सर्वेक्षण के अंतर्गत भू-राजस्व के निर्धारण में किसी विशेष सिद्धांत को आधार न बनाकर वास्तविक सर्वेक्षण को आधार बनाया गया। इस प्रकार 1836 ई. के पश्चात् बाॅम्बे प्रेसीडेंसी की स्थिति में आंशिक रूप से थोड़ा-बहुत सुधार देखने में आया।
रैय्यतवाड़ी पद्धति का लागू करने के पीछे निम्नलिखित दो उद्देश्य थे –
(1) राज्य की आय में वृद्धि
(2) रैय्यतों की सुरक्षा।
पहला उद्देश्य तो पूरा हुअ, लेकिन दूसरा उद्देश्य पूरा नहीं हो सका क्योंकि शीघ्र ही किसानों ने ऐसा अनुभव किया कि कई जमींदारों के बदले अब राज्य सरकार ही बड़े जमींदार की भूमिका निभा रही थी। भू-राजस्व की राशि रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में अधिकतम रूप में रखी गयी तथा उसका समय-समय पर पुनर्निरीक्षण किया गया। वस्तुतः स्थिति यह थी कि किसान इतनी बड़ी राशि चुकाने में असमर्थ थे। नतीजा यह हुआ कि वे भू-राजस्व की रकम तथा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु महाजनों से कर्ज लेने लगे और ऋण जाल में फँसते चले गये। चूँकि भू-राजस्व अत्यधिक होने के कारण भूमि की ओर लोगों का आकर्षण कम हो गया। अतः आरम्भ में महाजनों ने भूमि अधिग्रहण के संबंध में रुचि कम दिखाई। परन्तु 1836 ई. के पश्चात् बाॅम्बे तथा 1855 ई. के बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी में गैर-कृषक वर्ग का आकर्षण भूमि के प्रति बढ़ गया। अब धीरे-धीरे भूमि का हस्तांतरण किसानों से महाजनों की ओर होने लगा। दूसरी ओर, रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में कुछ समृद्ध किसानों ने भूमि को खरीदकर अपनी जोत को अत्यधिक बढ़ा लिया और वे फिर भूमिहीन कृषकों को बटाई पर भूमि देने लगे। इस स्थिति को कृत्रिम जमींदार वर्ग के उदय के रूप में देखा जाता है।
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था: एक नजर में
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महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System)
स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी व्यवस्था दोनेां के अंतर्गत ग्रामीण समुदाय उपेक्षित ही रहा। आगे महालवाड़ी पद्धति में इस ग्रामीण समुदाय के लिए स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था के निर्धारण में विचारधारा और दृष्टिकोण का असर देखने को मिला। इस पर रिकार्डों के लगान सिद्धांत का प्रभाव माना जाता है। किन्तु, सूक्ष्म परीक्षण करने पर वह ज्ञात होता है कि महालवाड़ी पद्धति के निर्धारण में भी प्रभावकारी कारक भौमिक अभिप्रेरणा ही रहा तथा विचारधारा का असर बहुत अधिक नहीं था। वस्तुतः अब कंपनी को अपनी भूल का एहसास हुआ।
स्थयी बंदोबस्त प्रणाली दोषपूर्ण थी, यह बात 19वीं सदी के आरम्भिक दशकों में ही स्पष्ट हो गई थीं, स्थायी बंदोबस्त के दोष उभरने भी लगे थे। इन्हीं दोषों का परिणाम था कि कपनी बंगाल में अपने भावी लाभ से वंचित हो गयी। दूसरे, इस काल में कंपनी निरंतर युद्ध और संघर्ष में उलझी हुई थी। ऐसी स्थिति में उसके पास समय नहीं था कि वह किसी नवीन पद्धति का विकास एवं उसका वैज्ञानिक रूप में परीक्षण करे तथा उसे भू-राजस्व व्यवस्था में लागू कर सके। दूसरी ओर, कंपनी के बढ़ते खर्च को देखते हुए ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति में निवेश करने के लिए भी बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता थी। उपर्युक्त कारक महालवाड़ी पद्धति के स्वरुप-निर्धारण में प्रभावी सिद्ध हुए।
महालवाड़ी पद्धति उत्तर भारत तथा उत्तर पश्चिम भारत के बडे क्षेत्र में लागू हुई। 1801 ई. तथा 1806 ई. के बीच ब्रिटिश कंपनी को हस्तांतरित क्षेत्र तथा विजित क्षेत्र के रूप में एक बड़ा क्षेत्र प्राप्त हो गया था। आरम्भ में इन्हीं क्षेत्रों में प्रबंधन किया गया। यह क्षेत्र मुगल साम्राज्य के अधीन भी एक केन्द्रीय क्षेत्र रहा था। आगे इस व्यवस्था का विस्तार मध्य प्रांत तथा पंजाब में भी किया गया। उत्तर भारत में जमींदार तथा मध्यस्थ के रूप में तालुकेदार स्थापित हो रहे थे। शुरूआती दौर में कंपनी ने इन तालुकेदारों के सहयोग से ही भू-राजस्व की वसूली आरम्भ की। लेकिन आगे चलकर तालुकेदारों की शक्तियों में कटौती की गयी तथा कंपनी ने अधिकतम रूप में भू-राजस्व की वसूली पर बल दिया। इससे कुछ पुराने और शक्तिशाली तालुकेदारों में रोष उत्पन्न किया, किन्तु सरकार ने विद्रोही तालुकेदारों के प्रति सख्त रवैया अपनाते हुए विरोध को दबा दिया।
महालवाड़ी व्यवस्था
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महालवाड़ी पद्धति की औपचारिक शुरूआत सर्वप्रथम 1822 ई0 में कंपनी के सचिव होल्ट मेकेंजी द्वारा बंगाल के रेग्यूलेशन ;त्महनसंजपवदद्ध के आधार पर की गयी। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में तालुकेदारों के माध्यम से भी भू-राजस्व की वसूली की जानी थी, लेकिन इस पद्धति के तहत ग्राम अथवा महाल के साथ भू-राजस्व के प्रबंधन पर जोर दिया गया। इस पद्धति के अंतर्गत भू-राजस्व का प्रबंधन किसी निजी किसान के साथ न करके सम्पूर्ण गाँव अथवा महान के साथ किया जाना प्रस्तावित था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उस गाँव अथवा महाल की भूमि का व्यापक सर्वेक्षण होना था और फिर इस सर्वेक्षण के आधार पर राज्य की राशि तय की जानी थी। स्थायी बंदोबस्त के विपरीत इसका निर्धारिण अस्थायी रूप में किया जाना था। इस बात का भी ख्याल रखा जाना आवश्यक था कि इसकी अवधि बहुत कम रहे, ताकि किसानों का इस पद्धति में विश्वास बना रहे। इसलिए इसके निर्धारण की अवधि न्यूनतम 10-12 वर्षों से लेकर अधिकतम 20-25 वर्षों तक रखी गयी। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि इस पद्धति के अंतर्गत भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी। उदाहरण के लिए, जिस क्षेत्र में ताल्लुकेदार के माध्यम से वसूली की गयी, वहाँ यह कुल भूमि लगान का लगभग 30% निर्धारित किया गया। वहीं दूसरी ओर, जहाँ ग्राम प्रधान अथवा लंबरदार के माध्यम से ग्राम या महाल से वसूल किया जाना था, वहाँ भू-राजस्व की राशि कुल भूमि लगान का 95% तक भी निर्धारित कर दी गयी थी।
यह पद्धति 1830 ई0 के दशक के पूर्व सीमित रूप में प्रभावी रही। किन्तु, विलियम बैंटिक के काल में मार्टिन बर्ड नामक अधिकारी ने इस महालवाडत्री पद्धति को सरलीकृत करने का प्रयत्न किया। भूमि के सर्वेक्षण के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति अपनायी गयी। मार्टिन बर्ड के द्वारा ही भूमि का मानचित्र और पंजीयन तैयार किया गया। इसके बाद भू-राजस्व की राशि कुल भूमि लगान का 66% निर्धारित की गयी और यह प्रबंधन 30 वर्षों के लिए किया गया। इसे देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि मार्टिन बर्ड से लेकर जेंम्स टाॅमसन के काल तक महालवाड़ी पद्धति का बेहतर रूप उभरकर आया।
उपर्युक्त स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि महालवाड़ी पद्धति ने परम्परागत रूप में स्थापित तालुकेदारों के हितों को चोट पहुँचाई तथा उन्हें उनके विशेषाधिकारों से वंचित कर दिया। 1857 ई0 के विद्रोह में अवध के तालुकेदारों की अच्छी भागीदारी को इसी वंचना के कारणों के रूप में देखा जाता है। किसानों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप 1857 ई0 के विद्रोह में महालवाड़ी क्षेत्र के किसानों ने व्यापक भागीदारी निभाई। ऐसी स्थिति में सन् 1857 के विद्रोह को केवल एक सिपाही, विद्रोह मानने वालों के लिए यह एक सवालिया निशान था।