धन का बहिर्गमन (Drain of Wealth)
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं के मूल में कम्पनी की वाणिज्य वादी प्रकृति व्याप्त थी। धन की निकासी की अवधारणा वाणिज्यवादी सोच के क्रम में विकसित हुई। अन्य शब्दों में, वाणिज्यवादी व्यवस्था के अतंर्गत धन की निकासी (Drain of Wealth)उसस्थिति को कहाजाता है जब प्रतिकूल व्यापार संतुलन के कारण किसी देश से सोने, चाँदी जैसी कीमती धातुएँ देश से बाहर चली जाएँ। माना यह जाता है कि प्लासी की लड़ाई से 50 वर्ष पहले तक ब्रिटिश कंपनी द्वारा भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए दो करोड़ रूपये की कीमती धातु लाई थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा कंपनी के इस कदम की आलोचना की गयी थी किंतु कर्नाटक युद्धों एवं प्लासी तथा बक्सर के युद्धों के पश्चात् स्थिति में नाटकीय पविर्तन आया।
बंगाल दीवानी ब्रिटिश कंपनी को प्राप्त होन के साथ कंपनी ने अपने निवेश की समस्या को सुलझा लिया। अब आंतरिक व्यापार से प्राप्त रकम बंगाल की लूट प्राप्त रकम तथा बंगाल की दीवानी से प्राप्त रकम के योग के एक भाग का निवेश भारतीय वस्तुओं की खरीद केलिए होने लगा। ऐसे में धनकी समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। अन्य शब्दों में, भारत ने ब्रिटेन को जो निर्यात किया उसके बदले भारत को कोई आर्थिक, भौतिक अथवा वित्तीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार, बंगाल की दीवानी से प्राप्त राजस्व का एक भाग वस्तुओं के रूप में भारत से ब्रिटेन हस्तांतरित होता रहा। इसे ब्रिटेन के पक्ष में भारत से धन का हस्तांतरण कहा जा सकता है। यह प्रक्रिया 1813 तक चलती रही, किंतु 1813 ई0 चार्टर के तहत कंपनी का राजस्व खाता तथा कंपनी का व्यापारिक खाता अलग- अलग हो गया। इस परिवर्तन के आधारपर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि 18वीं सदी के अन्त में लगभग 4 मिलियन पौण्ड स्टर्लिंग रकम भारत से ब्रिटेन की ओर हस्तान्तरित हुई। इस प्रकार भारत के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि 1813 ई. तक कंपनी की नीति मुख्तः वाणिज्यवादी उद्देश्य सेपरिचालित रही जिसका बल इस बात पर रहा कि उपनिवेश मातृदेश के हित की दृष्टि से महत्व रखते हैं।
1813 ई. के चार्टर के तहत भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया तथा भारत में कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। इसे एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। स्थिति उस समय और भी चिंताजनक रही जब ब्रिटेन तथा यूरोप में भी कंपनी के द्वारा भारत से निर्यात किए जाने वाले तैयार माल को हतोत्साहित किया जाने लगा। परिणाम यह निकला कि अब कंपनी के समक्ष अपने शेयर धारकों को देने के लिए रकम की समस्या उत्पन्न हो गई। आरम्भ में कंपनी ने नील और कपास का निर्यात कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, किंतु भारतीय नील और कपास कैरिबियाई देशों के उत्पाद तथा सस्ते श्रम के कारण कम लागत में तैयार अमेरिकी उत्पादों के सामने नहीं टिक सके। अतः निर्यात एजेसियों को घाटा उठाना पडा। यही कारण रहा कि कंपनी ने विकल्प के रूप में भारत में अफीम के उत्पादन पर बल दिया। फिर बड़ी मात्रा में अफीम से चीन को निर्यात की जाने लगी। अफीम अफीम का निर्यात चीनी लोगों के स्वास्थ के लिए जितना घातक था उतना ही कंपनी के व्यावसायिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक था। अफीम व्यापार का विरोध किये जाने पर भी ब्रिटिश कंपनी ने चीन पर जबरन यह घातक जहर थोप दिया। ब्रिटेन भारत से चीन को अफीम निर्यात करता और बदले रेशम और चाय की उगाही करता और मुनाफा कमाता। इस प्रकार, भारत से निर्यात तो जारी रहा किन्तु बदले में उस अनुपात में आयात नहीं हो पाया।
अपने परिवर्तन स्वरूप के साथ 1858 ई. के पश्चात् भी यह समस्या बनी रही। 1858 ई में भारत का प्रशासन ब्रिटिश ने अपने हाथों में ले लिया। इस परिवर्तन के प्रावधानों के तहत भारत के प्रशासन के लिए भारत सचिव के पद का सृजन किया गया। भारत सचिव तथा उसकी परिषद का खर्च भारतीय खाते में डाल दिया गया। 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में जो रकम चार्च हुई थी, उसे भी भारतीय खाते में डाला गया। इससे भी अधिक ध्यान देने योग्यबात यह है कि भारतीय सरकार एक निश्चित रकम प्रतिवर्ष गृह-व्यय के रूप में ब्रिटेन भेजती थी। व्यय की इस रकम में कई मदें शामिल होती थीं, यथा-रेलवे पर प्रत्याभूत ब्याज, सरकारी कर्ज पर ब्याज, भारत के लिए ब्रिटेन में की जाने वाली सैनिक सामग्रियों की खरीद, भारत से सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारियों के पेंशन की रकम इत्यादि। इस प्रकार गृह- व्ययकी राशि की गणना धन की निकासी के रूप में की जाती थी। उल्लेखनीय है कि 19वीं सदी में धन के अपवाह में केवल गृह-व्यय ही शामिल नहीं था वरन् इसमें कुछ अन्यमदें भी जोड़ी जाती थीं। उदाहरण के लिए-भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन का वह भाग जो वह भारत से बचाकर ब्रिटेन भेजा जाता था तथा निजी ब्रिटिश व्यापारियों का वह मुनाफा जो भारत से ब्रिटेन भेजा जाता था। फिरजब सन् 1870 के दशक में ब्रिटिश पोण्ड स्टालिंग की तुलना में रूपया का अवमूलयन हुआ तो इसके साथ ही निकासी किए गए धन की वास्तविक राशि में पहले की अपेक्षा और भी अधिक वृद्धि हो गई।
गृह-व्यय अधिक हो जाने के कारण इसकी राशि को पूरा करने के लिए भारत निर्यात अधिशेश बरकरार रखा गया। गृह-व्यय की राशि अदा करने के लिए एक विशेष तरीका अपनाया गया। उदाहरणार्थ भारत सचिव लंदन में कौंसिल बिल जारी जारी करता था तथा इस कौंसिल बिल के खरीददार वे व्यपारी होते थे जो भारतीय वस्तुओं के भावी खरीदार भी थे। इस खरीददार के बदले भारत सचिव को पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त होता जिससे वह गृह-व्यय की राशि की व्यवस्था करता था। इसके बाद इस कौंसिल बिल को लेकर ब्रिटिश व्यापारी भारत आते और इनके वे भारतीय खाते से रूपया निकाल कर उसका उपयोग भारतीय वस्तुओं को खरीद के लिए करते थे। इसके बाद भारत में काम करने के लिए ब्रिटिश अधिकारी इस कौंसिल बिल को खरीदते। केवल ब्रिटिश अधिकारी ही नहीं बल्कि भारत में व्यापार करने वाले वाले निजी ब्रिटिश व्यापारी भी अपने लाभ को ब्रिटेन भेजेन के लिए कौंसिंल बिल की खरीद करते। लंदन में उन्हें इन कौसिंल बिलों के बदले में पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त होता था।
गृह व्यय के रूप में भारत द्वारा प्रतिवर्ष ब्रिटेन भेजी जाने वाली राशि के कारण भुगतान संतुलन भारत के पक्ष में नहीं था। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शेष विश्व के साथ व्यापार में संतुलन भारत के पक्ष में बना रहा। चॅंूकि निर्यात अधिशेष उस संपूर्ण रकम को पूरा नहीं कर पाता, इसलिए उसकी पूर्ति हेतु भारत को अतिरिक्त राशि कर्ज के रूप में प्राप्त करनी होती थी। फलतः भारत पर गृह-व्यय का अधिभार भी बढ़ जाता। इस तरह अर्थिक संबंधों को लेकर एक ऐसा जाल बनता जा रहा था जिसमें भारत ब्रिटेन के साथ बॅधता जा रहा था।
दादाभाई नौरोजी वच आर.सी. दत्त जैसे राष्ट्रवादी चितंकों ने धनकी निकासीकी कटु आलोचना की और इसे उन्होंने भारत के दरिद्रीकरण का एक कारण माता। दूसरी ओर, माॅरिसन जैसे ब्रिटिश का एक कारण माना। दूसरी ओर माॅरिसन जैसे ब्रिटिश पक्षधर विद्वान निकासी की स्थिति को अस्वीकार करते हैं। उपनके द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया। कि गृह-व्यय की राशि बहुत अधिक नहीं थी और फिर यह रकम भारत के विकास के लिए जरूरी था। उन्होंने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि अंगे्रजो ने भारत में अच्छी सरकार दी तथा यहाॅ यातायात और संचार व्यवस्था एवं उद्योग का विकास किया और फिर ब्रिटेन ने बहुत कम ब्याज पर अंतराष्ट्रीय मुद्रा बाजार से एक बड़ी रकम को भारत को उपलब्ध करवायी।
जहाँ तक राष्ट्रवादी चिंतकों की बात हैतो उनका कहना है कि भारत को उस पूॅजी की जरूरत ही नहीं थी जो अेंग्रेजों ने उस समय उसे उपलब्ध कराई। दूसरे, यदि भारत में स्वयं पूॅजी का संचय हुआ होता तो फिर उसे कर्ज लेने की जरूरत की क्यों पड़ती। आगे धन की निकासी की व्याख्या करते हुए इन्होंने इसबात पर जोर दिया कि भरत उस लाभ से भी वंचित रहा गया जो उस रकम के निवेश से उसे प्राप्त होता। साथ ही धन के निकाशी ने निवेश को अन्य तरीकों से भी प्रभावित किया। उपर्युक्त विवेचन की समीक्षा करने से हम इस निष्कार्ष पर पहुंचते है कि राष्ट्रवादी आलोचना की भी कुछ सीमाएॅ थी। उदाहरण लिए दादाभाई नौरोजी जैसे राष्ट्रवादी चिंतकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया हैकि भारत से जिस धन की निकासी हुई वह महज धन नहीं था, बल्कि पूँजी थी। दूसरे उन्होंने भारत में कार्यारत ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के आर्थिक दोहन के लिए उत्तरदायी माना। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि हमारे राष्ट्रवादी चिंतकों ने औपनिवेशक अर्थतन्त्र की क्रमबद्ध आलोचना कर ब्रिटिश शासन के वास्तविक चरित्र को उजागर किया। अतः भावी जागरूकता की दृृष्टि से उनका चिंतन सराहनीय माना जाना चाहिए।
विऔद्योगीकरण (De industrialization)
किसी भी देश के उद्योगों के क्रमिक हास अथवा विघटन को ही विऔद्योगीकारण कहा जाता है। भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हस्ताशिल्प उद्योगों का पतन सामने आया, जिसके परिणामस्वरूप कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढता गया। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विऔद्योगीकरण को पे्ररित करने वाले निम्नलिखित घटक माने जाते हैं-
- प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद ब्रिटिश कंपनी द्वारा गुमाश्तों के माध्यम से बंगाल के हस्तशिल्पियों पर नियंत्रण स्थापित करना अर्थात् उत्पाद प्रक्रिया में उनके द्वारा हस्ताक्षेप करना।
- 1813 ई. के चार्टर एक्ट के द्वारा भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया।
- भारतीय वस्तुओं पर ब्रिटेन में अत्यधिक प्रतिबंध लगाये गये, अर्थात् भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटेन का द्वार बंद किया जा रहा था।
- भारत में दूरस्थ क्षेत्रों का भेदन रेलवे के माध्यम से किया गया। दूसरे शब्दों में, एक ओर जहाॅ दूरवर्ती द्वोेत्रों में भी बिटिश फैक्ट्री उत्पादों को पहुँचाया गया, वहीं दूसरी ओर कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाया गया।
- भारतीय राज्य भारतीय हस्तशिल्प उद्योंगों के बडे़ संरक्षक रहे थे, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रसार के कारण राजा लुप्त हो गये। इसके साथ ही भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों ने अपना बाजार खो दिया।
- हस्तशिल्पि उद्योगों के लुप्तप्राय होने के कारण ब्रिटिश सामाजिक व शैक्षिणिक नीति को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसका रूझान और दृष्टिकोण भारतीय न होकर ब्रिटिश था। अतः अंगे्रजी शिक्षाप्राप्त इन भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओं को ही संरक्षण प्रदान किया।
भारत में 18वीं सदी में दो प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग अस्तित्व में थे-ग्रामीण उद्योग और नगरीय दस्तकारी। भारत में ग्रामीण हस्तशिल्प उद्योग यजमानी व्यवस्था (Yajamani System) के अन्र्तगत संगठित था। नगरीय हस्तशिल्प उद्योग अपेक्षाकृत अत्यधिक विकसित थे। इतना ही नहीं पश्चिमी देशों में इन उत्पादों की अच्छी-खासी माॅग थी। ब्रिटिश आर्थिक नीति ने दोनों प्रकार के हस्तशिल्प उद्योगों को प्रभावित किया। नगरीय हस्तशिल्प उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग अत्यधिक विकसित था। कृषि के बाद भारत में सबसे अधिक लोगों को रोजगार सूती वस्तु उद्योग द्वारा ही प्राप्त होता था। उत्पादन की दृष्टि से भी कृषि के बाद इसी क्षेत्र का स्थान था, किन्तु ब्रिटिश माल की प्रतिस्पर्धा तथा भेदभावपूर्ण ब्रिटिश नीति के कारण सूती वस्त्र उद्योग का पतन हुआ। अंग्रेजों केे आने से पूर्व बंगाल में जूट के वस्त्र जूट वस्त्र की बुनाई भी होती थी। लेकिन 1835 ई. के बाद बंगाल में की, हस्तशिल्पि की भी ब्रिटिश मशीनीकृत उद्योग के उत्पादन के साथ प्रतिस्पर्धा हुई जिससे बंगाल में जूट हस्तशिल्प उद्योग को धक्का लगा। उसी प्रकार कश्मीर शाल एवं चादर के लिए प्रसिद्ध था। उसके उत्पादों की माॅग पूरे विश्व में भी थी, किंतु 19वीं सदी में स्कॅटिश उत्पादकों की प्रतिस्पर्धा के कारण कश्मीर में शाल उत्पादन को भी धक्का लगा। ब्रिटिश शक्ति की स्थापना से पूर्व भारत में कागज उद्योग का भी प्रचलन हुआ था, किंतु 19वीं सदी के उत्तरार्ध में चार्स वुड की घोषणा से स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया। इस घोषणा के तहत स्पष्ट रूप से आदेश जारी किया गया था कि भारत में सभी प्रकार के सरकारी कामकाज के लिए कागज की खरीद ब्रिटेन से ही होगी। ऐसी स्थिति में भारत में कागज उद्योग को धक्का लगना स्वाभाविक था। प्राचीन काल से ही भारत बेहतर किस्म के लोहे और इस्पात के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था, किंतु ब्रिटेन से लौह उपकरणों के आयात के कारण यह उद्योग भी प्रभावित हुए बिना न रहा सका।
भारत में विऔद्योगीकरण की अवधारणा को औपनिवेशिक इतिहासकार स्वीकार नहीं करते। उदाहरणार्थ, सूती वस्त्र उद्योग पर ब्रिटिश नीति के प्रभाव की व्याख्या करते हुए माॅरिस डी-माॅरिस जैसे ब्रिटिश विद्वान औद्योगीकरण की अवधारणा को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि ब्रिटिश नीति ने भारत में हस्तशिल्प उद्योग को प्रोत्साहन दिया। उनका तर्क है कि ब्रिटेन के द्वारा भारत में यातायात और संचार व्यवस्था का विकास किया गया तथा अच्छी सरकार दी गयी, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई। अतः भारत के बाजार का विस्तार हुआ। ऐसे में भारतीय हस्तशिल्प उद्योग उस माॅग को पूरा नहीं कर सकता था। मुद्रास्फीति और मूल्य वृद्धि केरूप में इसका स्वाभाविक परिणाम देखने में आता है। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन से अतिरिक्त वस्तुएॅ लाकर इस बाजार की जरूरतों को पूरा किया गया। इस संबंध में दूसरा तर्क यह भी दिया जाता है। कि ब्रिटेन ने भारत में ब्रिटेन सेकेवल वस्त्रों का ही आयात नहीं किया वरन् सूत का भी आयात किया। इसके परिणामस्वरूप शिल्पियों को सस्ती दर पर सूत उपलब्ध हुआ, जिससे सूती वस्त्र उद्योग को बढ़ावा मिला। लेकिन, माॅरिस डी-माॅरिस के इस तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता है।
हमारे पास कोई निश्चित आॅकड़े नहीं है, जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि उस काल में भारत में प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई। हालांकि यह सत्य है कि ब्रिटेन से भारत में वस्त्र के साथ-साथ सूत भी लाया गया, लेकिन यह भी सही है कि सूत से भी सस्ती दर पर वस्त्र लाये गये। अतः भारतीय शिल्पियों के हित-लाभ का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
विऔद्योगीकरण की समीक्षा करने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में सभी प्रकार के हस्तश्ल्पि उद्योगों का पतन नहीं हुआ। तथा कुछ उद्योग ब्रिटिश नीति के दबाव के बावजूद भी बने रहे। इसके निम्नलिखित करण थेः
(1) भारत में कुछ हस्तशिल्प उत्पाद ऐसे थे जिनका ब्रिटिश उत्पादन हो ही नहीं सकते थे। उदाहरण के लिए बढ़ईगिरी, कुंभकारी, लुहारगिरी आदि।
(2) उस काल में भारतीय बाजार एकीकृत नहीं था, अतः कुछ क्षेत्रों में चाहकर भी ब्रिटिश उत्पाद नहीं पहुॅच सके।
(3) बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण आर्थिक रूप से लाभकारी न हाने पर भी कुछ हस्तशिल्प उोद्योग अस्तित्व बने रहे। यदि हम विश्व के संम्पूर्ण औद्योगिक उत्पाद में भारत के अंशदान पर नजर डालें तो ज्ञात होगा कि 1800 ई. में यह 19.6ः था। 1860 ई. में यह कम होकर 8.6ः तथा 1931 में यह मात्र 1.4ः रह गया। इस गिरावट का कारण पश्चिमी देशों में होने वाला औद्योगीकरण भी था, क्यांेकि हस्तशिल्प उद्योगों से संगठित फैक्ट्री का उत्पादन कहीं अधिक था। लेकिन एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में भारत में प्रतिव्यक्ति औद्योगिक उत्पादन की औसत दर में गिरावट माना जाता है।
जहाँ हस्तशिल्प उद्योगों के पतन का सवाल है तो हम यह जानते हैं कि हस्तशिल्प उद्योग एक प्राक्-पूॅजीवादी उत्पाद प्रणाली (Pr-capitalist Production System) है। अतः पूॅजीवादी उत्पादन प्रणाली (Capitalist Production System) के विकास के बाद इसका कमजोर पड़ जाना स्वाभाविक है। इस पूरी प्रक्रिया का एक दुःखद पहलू यह भी है कि पश्चिम में तो हस्तशिल्प उद्योगों के पतन की क्षतिपूर्ति आधुनिक उद्योगों की स्थापना के द्वारा कर दी गयी, लकिन भारत में ऐसा नहीं हो सका। अतः जहाॅ पश्चिम में बेरोजगार शिल्पी आधुनिक कारखानों में काम में लाए, वहीं भारत में बेरोजगार शिल्पी ग्रामीण क्षेत्र में पलायन कर गये। परिणामतः कृषि पर जनसंख्या का अधिभार बढ़ता चला गया। निष्कर्षतः ग्रामीण और ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ती गई। कुल मिलाकर भारत का पारंपरिक ढाॅचा टूट ही गया और पूॅजीवादी सरंचना ने किसी प्रकार से उसकी भरपाई नहीं की।
कृषि का व्यवसायीकरण (Commercialization of Agriculture) :-
एडम स्मिथ के अनुसार व्यावसायीकरण उत्पादन को प्रोत्साहन देता है तथा इसके परिणामस्वरूप समाज में समृद्धि आती है, किंतु औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत लाये गये व्यवसायीकरण ने जहाँ ब्रिटेन को समृद्ध बनाया वहीं भारत में गरीबी बढ़ी। कृषि के क्षेत्र में व्यावसायिक संबंधों तथा मौद्रिक अर्थव्यवस्था के प्रसार को ही कृषि के व्यावसायीकरण संज्ञा दी जाती है। गौर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कृषि में व्यवसायिक संबंध कृषि का मौद्रीकरण (Monetization of Agriculture) कोई नई घटना नहीं थी। क्योंकि मुगलकाल में भी कृषि अर्थव्यवस्था में ये कारक विद्यमान थे। राज्य तथा जागीरदार दानों के द्वारा राजस्व की वसूली में अनाजों के बदले नगद वसूली पर बल दिए जाने के इसके कारण के रूप में देखा जाता है। बात अलग है ब्रिटिश शासन में इस प्रक्रिया और भी बढ़ावा मिला। रेलवे का विकास तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ जाना भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत कृषि के व्यवसायीकरण को जिन कारणों ने प्रेरित किया वे निम्नलिखित थे-
(क) भारत में भूू-राजस्व की रकम अधिकतम निर्धारितकी गयी थी। परम्परागत फसलों के उत्पादन के आधार पर भू-राजस्व की इस रकम को चुका पाना किसानों के लिए संभव नहीं था। यऐसे में नकदी फसल के उत्पादन की ओर उनका उन्मुख होना स्वाभाविक ही था।
(ख) ब्रिटेन में औद्यौगिक क्रांति आरंभ हो गई थी तथा ब्रिटिश उद्योगों के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की जरूरत थी। यह सर्वविदित है कि औद्योगीकरण के लिए एक सशक्तक कृषि आधार का होना जरूरी है। ब्रिटेन में यह आधार न मौजूद हो पाने के कारण ब्रिटेन में होने वाले औद्योगीकरण के लिए भारतीय कृषि अर्थ व्यवस्था का व्यापक दोहन किया गया।
(ग) औद्योगीकरण के साथ ब्रिटेन में नगरीकरण की प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिला था। नगरीय जनसंख्या की आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में खाद्यान्न की आवश्यकता थी, जबकि खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था। अतः भारतसे खाद्यान्न के निर्यात को भी इसके एक कारण के रूप में देखा जा सकता है।
(घ) किसानों में मुनाफा प्राप्त करने की उत्प्रेरणा भी व्यवसायिक खेती को प्रेरित करने वाला एक कारक माना जाता है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक सरकार ने भारत में उन्हीें फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जो उनकी औपनिवेशिक माॅग के अनुरूप थी। उदाहरण के लिए- कैरिबियाई देशों पर नील के आयात की निर्भरता को कम करने के लिए उन्होंने भारत में नील के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया। इस उत्पादन को तब तक बढ़ावा दिया जाता रहा जब तक नील की माॅग कम नहीं हो गयी। नील की माॅग मे कमी सिथेटिक रंग के विकास के कारण आई थी। उसी प्रकार, चीन को निर्यात करने के लिए भारत में अफीम के उत्पादन पर जोर दिया। इसी प्रकार, इटैलियन रेशम पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए बंगानल में मलबरी रेशम के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। भारत में छोटे रेशे वाले कपास का उत्पादन होता था जबकि ब्रिटेन और यूरोप में बड़े रेशे वाले कपास की माॅग थी। इस माँग की पूर्ति के लिए महाराष्ट्र में बडे़ रेशे वाले कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया। उसी तरह ब्रिटेन में औद्योगीकरण और नगरीकरण की आवश्यकताओं को देखतेेेे हुए कई प्रकार की फसलों के उत्पादन पर बल दियागया। उदाहरणार्थ, चाय और काॅफी बागानों का विकास किया गया। पंजाब में गेहॅू, बंगाल मे पटसन तथा दक्षिण भरत में तिलहन के उत्पादन पर जोर देने को इसी क्रम से जोड़कर देखा जाता है। कृषि के व्यावसायीकरण के प्रभाव पर एक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट होता है भले ही सीमित रूप में ही सही, किंतु भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव भी देखा गया। इससे स्वालंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी लेकिन इसी के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। किसानों को इस व्यावसायीकरण से कुछ खास क्षेत्रों में, उदाहरण के लिए दक्कन कपास उत्पादन क्षेत्र तथा कृष्णा, गोदावरी डेल्टा क्षेत्र में,लाभ भी प्राप्त हुआ।
यदि हम इसके व्यापक प्रभाव पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अधिकांश भारतीय किसानों पर थोपी गयी प्रक्रिया थी। औपनिवेशिक सत्ता के अंतर्गत लायी गई इस व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने भारत को अकाल और भुखमरी के अलावा कुछ नहीं दिया। वस्तुतः भारतीय किसान मध्यस्थ और बिचैलयों के माध्यम से एक अन्तराष्ट्रीय बाजार पर निर्भर थे। इस व्यवस्था का एक अन्य पहलू यह भी था कि व्यावसायिक (Commercial Crops) से लाभ प्राप्त करने वाला व्यवसायी अपनी जिम्मेदारी अपने नीचे वाले पर डालने का प्रयास करता और अंततः यह सारा दवाब किसानों के ऊपर पड़ती। दूसरे शब्दों में जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में व्यावसायिक फसलों की माॅग में तेज वृद्धि होती तो इसका लाभ मध्यस्थ और बिचैलियोंको प्राप्त होता, लेकिन इसके विपरीत जब बाजार में मंदी आती तो इसकी मार किसानों को झेलनी पड़ती अर्थात् लाभ बिचैलियों को और नुकसान हर स्थिति में किसानों को। दूसरे व्यावसायिक फसलों की खेती से गरीबों के आहार यानी मोटे अनाजों का उत्पादन कम हो गया। इसके परिणामस्वरूप भुखमरी में कोयम्बटूरके एक किसान ने तो यह तक कह डाला कि हम कपास इसलिए उपजाते है क्योंकि इसे हम खा नहीं सकते। दूसरी ओर, नगद फसलों (Cash Crops) की खेती के लिए निवेश की भी आवश्यकता पड़ती थी। किसान इस आवश्यकता को पूरा करने के साहूकारों व महाजनों से कर्ज थे, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीणों पर ऋण बोझ बढ़ता गया। इसी लिए माना जाता है कि भारतीय किसानों ने ठीक वैसा दुःख भोगा जैसा कि हम जावा (Dutch Culture System में देखते हैं। जावा में किसानों को अपनी भूमि के एक खास भागमें काॅफी और गन्ने की खेती करनी पड़ी तथा पूरा उत्पादन राजस्व के रूप में सरकार को देना पड़ा।
ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था का भारतीय ग्रामीण जीवन पर प्रभाव (Impact of British Land Revenue System on Indian Rural Life)
आरम्भ से ही कंपनी भू-राजस्व के रूप में अधिकतम राशि निर्धारित करना चाहती थी। अतः आरम्भ में वारेन हेस्टिग्स के द्वारा फर्मिग पद्धति की शुरूआत की गयी, जिसके तहत भू-राजस्व की वसूली का अधिकार ठेके के रूप में दिया जाने लगा था। इसका परिणाम यह निकला कि बंगाल में किसानों को शोषण हुआ तथा कृषि उत्पादन मे हास हुआ। आगे कार्नवालिस के द्वारा एक नवीन प्रयोग स्वतन्त्र बंदोबस्ती (Permanent Settlement) के रूप किया गया। इसके माध्यम से जमीदार मध्यस्थों को भूमि का स्वामी तथा स्वतन्त्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यतों के रूप में तब्दील कर दिया गया। सबसे बढ़कर, सरकार की राशि सदा के लिए निश्चित कर दी गयी तथा रैय्यतों को जमींदारों के रूप में तब्दील कर दिया गया। राजस्व के अधिकतम निर्धारण ने ग्रामीण समुदाय को कई तरह से प्रभावित किया। इनमें से कुछ प्रभाव इस प्रकार है-
(1) वेनकदी फसलों के उत्पाद की और उन्मुख हुये, परन्तु कृषि के व्यवसायीकरण के बावजूद भी कोई सुधार नहीं हुआ। क्योंकि इसका मुख्य अंश जमीदार और बिचैलियों को प्राप्त हुआ।
(2) भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में होने के कारण किसानों के पास ऐसा कोई अधिशेष नहीं बच पाता था जिसका कि फसल नष्ट होने के पश्चात् उपयोग कर सकें। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में अकाल एवं भुखमरी और भी बढ़ती गई।
(3) जमींदारों कृषि क्षेत्र निवेश करने कोई रूचि नहीं थी तथा कृषक निवेश करने की स्थिति में नहीं थे। अतः कृषि पिछड़ती चली गयी। उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन पर स्थायी बन्दोबस्त के परिणामस्वरूप पड़ने वाले प्रभाव का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण प्रेमचंद अपने उपन्यास गोदानमें किया।
स्थायी बंदोस्त की तरह रैय्यतवाड़ी भू-राजस्व प्रबंधन भी तत्कालीन ग्रामीण ग्रामीण समुदाय दुष्प्रभावित हुआ। उपर्युक्त भू-राजस्व प्रबंधनों पर यूरोपीय विचारधारा तथा दृष्टिकोण का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है उपर्युक्त सभी पद्धतियाॅ ब्रिटिश औपनिवेसिक हितों तथा भारतीय परिस्थितियों एवं अनुभव पर आधारित है। कुछ ब्रिटिश पक्षधर ग्रामीण क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को पूंजी वादी रूपान्तरण से जोड़ कर देखते हैं परन्तु ब्रिटिश नीती ने गांव को ऋण के बोझ तले कुचला और ग्रामीण लोगों को और निर्धन बनाया ब्रिटिश भू-राजस्व नीति के करण कृषि कुछ इस तरह पिछड़ी की स्वतन्त्रा के पश्चात भारत में औद्योगीकरण को कृषि का समर्थन प्राप्त नहीं हो सका। अतः हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए स्वतंत्रता के 60 वर्षों पश्चात भी भारतीय ग्रामीण जीवन पर ब्रिटिश भू-राजस्व नीति का अप्रत्यक्ष रूप से द्रष्टिगत होता है।
भारत में आधुनिक उद्योगों का विकास (Development of Modern Industries in India) :-
भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना का प्रारंभ 1850 ई0 से माना जाता है। इससे पूर्व जहाँ एक ओर भारतीय हस्त उद्योगों का पतन हो रहा था वहीं दूसरी ओर कुछ नये उद्योगों का जन्म भी हो रहा था। नये प्रकार के उद्योगों का विकास दो रूपों में दिखाई दिया-बागान उद्योग एवं कारखाना उद्योग। अंग्रेजों ने यहाँ सबसे पहले नगदी फसलों पर आधारित बागान उद्योगों जैसे-नील, चाय, कहवा आदि में खास दिलचस्पी ली। 1875 ई0 के बाद कारखाना-आधारित उद्योगों का विकास हुआ, जिनमें ये उद्योग शामिल थे-कपास, चमड़ा, लोहा, चीनी, सीमेंट, कागज, लकड़ी, काँच आदि।
देश में पहले सूती वस्त्र उद्योग ’बाॅम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी’ की स्थापना एक पारसी उद्योगपति कावसजी डाबर ने 1854 ई0 में की। भारत में पहला चीनी कारखाना 1909 ई0 में और पहला जूट कारखाना 1855 ई0 में बंगाल में खोला गया। पहली बार आधुनिक इस्पात तैयार करने का प्रयास 1830 ई0 में मद्रास के दक्षिण में स्थित आर्कट जिले में जोशिया मार्शल हीथ द्वारा किया गया। 1907 ई0 में जमशेदजी नौसेरवानजी टाटा के प्रयास से ’टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी’ की स्थापना हुई। इस प्रकार इन उद्योगों का क्रमशः विकास होता रहा।
अंग्रेजों द्वारा उपेक्षा किए जाने के बावजूद भारत का न्यूनाधिक औद्योगीकरण अनिवार्य ही था और काफी हद तक यह विकास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ही शुरू हुआ। भारत का औद्योगिक विकास एकदम विपरीत क्रम में कपड़ा-उद्योग से शुरू हुआ, जबकि किसी भी देश के औद्योगिक विकास के लिए सबसे पहले भारी उद्योगों को विकसित किया जाना आवश्यक होता है। वस्तुतः अंग्रेजी शासन भारत का औद्योगिक अपने हितों की पूर्ति हेतु ही करना चाहता था। भारत में 20वीं शताब्दी में जो भी कल-कारखाने खुले उनका उद्देश्य भारत का औद्योगिक विकास ही नहीं बल्कि शोषण में कुछ और लोगों को भागीदार बनाकर शोषण प्रक्रिया को बदस्तूर उनका उद्देश्य भारत का औद्योगिक विकास नहीं, बल्कि शोंषण में कुछ और लोगों को भागीदार बनाकर शोषण प्रक्रिया को बदस्तूर जारी रखना था।