अन्य जन-आंदोलन (Indian Mass Movements)
यदि आंदोलन और विद्रोहों की क्रमबद्धता का विश्लेषण किया जाए तो प्लासी के युद्ध (1757) और 1857 के विद्रोह के बीच ऐसे अनेक विद्रोह एवं आंदोलन हुए जिनमें किसानों, शासकों, सैनिकों, जमींदारों, साधुओं और अपदस्थ भारतीय शासकों ने भाग लिया। इनमें से अधिकांश विद्रोहियों का संबंध निम्न वर्ग से था। इसलिए इन विद्रोहों एवं आंदोलनों को आधारभूत इतिहास या नीचे से उभरते इतिहास ;भ्पेजवतल तिवउ ठमसवूद्ध की संज्ञा दी गई। इन आंदोलनों को विभिन्न वर्गों में बांटकर देखा जा सकता है। जो निम्न है |
राजनीतिक – धार्मिक आंदोलन (Politico – Social Movements)
राजनीतिक-धार्मिक आंदोलनों के अंतर्गत हम निम्नलिखित आंदोलनों एवं विद्रोहों को रख सकते हैः-
फकीर विद्रोह (Fakir Resistance,1776-77)
यह विद्रोह बंगाल में बिचारणशील मुसलमान धार्मिक फकीरों द्वारा किया गया। इस विद्रोह के नेता मजनू शाह ने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते हुए जमींदारों और किसानों से धन इकट्ठा करना प्रारंाभर कर दिया। मजनू शाह की मृत्यु के बाद चिराग अली शाह ने आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। पठानों, राजपूतों, और सेना से निकाले गये भारतीय सैनिकों ने उसकी मदद की। भवानी पाठक एवं देवी चैधरानी इस आंदोलन से जुड़े प्रसिद्ध हिन्दू नेता थे।
संन्यासी विद्रोह (Sannyasi Rebellion, 1770-1820)
बंगाल में 1770 में पड़े भीषण अकाल और अंगे्रजों की शोषणकारी नीति ने बंगाल में अस्त-व्यस्तता पैदा कर दी। इस अकाल के बाद हिन्दू नागा और गिरी सश्स्त्र संन्यासी, जो कभी मराठा और राजपूत सेनाओं का हिस्सा होतेथे, ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के प्रमुख कारणों में तीर्थ-यात्रियों पर प्रतिबंध लगाया जाना था। वारेन हेस्टिंग्स ने एक कठोर सैन्य अभियान के बाद इस विद्रोह को कुचलने में सफलता पाई। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’आनन्दमठ’ में इस विद्रोह का विस्तृत वर्णन किया है।
पागलपंथी विद्रोह (Pagal Pantbis Uprising, 1813-33)
उत्तर-पूर्वी भारत में प्रभावी पागलपंथी एक धार्मिक पंथ था। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान और गारों तथा जांग आदिवासी इस पंथ के समर्थक थे। इस क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा क्रियान्वित भू-राजस्व तथा प्राशासनिक व्यवस्था के कारण व्यापक असंतोष था, जिसके परिणामस्वरूप 1813 ई. में पागलपंथियों के नेता टीपू ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह लगभग दो दशकों (1813-33) तक चला। इस विद्रोह के दौरान टीपू इतना प्रभावशाली हो गया कि उसने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में औपनिवेशिक प्रशासन के सामांनातर एक और प्रशासनिक तंत्र का गठन कर लिया। इस विद्रोह को सन् 1833 में दबा दिया गया।
वहाबी आंदोलन (Wahabi Uprisign, 1820-1870)
वहाबी आंदोलन मूलतः एक इस्लामिक सुधारवादी आंदोलन था, जिसने कालंातर में मुस्लिम समाज में व्याप्त अंधविश्वासों एवं कुरीतियों के उन्मूलन को अपना उद्देश्य बनाया। इस आंदोलन के संस्थापक अब्दुल वहाब के नाम पर इसका नाम वहाबी आंदोलन पड़ा। सैय्यद अहमद बरेलवी ने भारत में इस आंदोलन को प्रेरणा प्रदान की।
इस आंदोलन का मुख्य लक्ष्य पंजाब में सिखों और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ करके भारत में मुस्लिम सत्ता पुनस्र्थापित करना था। इन्होंने अपने अनुयायियोंका सैन्य शिक्षा दी। इस आंदोलन के तहत सैय्यद अहमद ने सन् 1830में पेशावर पर नियत्रंण कर लिया और अपने नाम से सिक्के चलवाये, किंतु 1831 में बालाकोट के युद्ध में इनकी मृत्यु हो गई। सैय्यद अहमद की अचानक मृत्यु के उपरांत वहाबी आंदोलन का वहाबी आन्दोलन का मुख्य केन्द्र पटना हो गया। इस दौरान मौलवी कासिम इनायत अली बिलायत अली तथा अहमदुल्ला ने आदोलन का नेतृत्व किया। वहाबी आंदोलन 1857 के विद्रोह की तुलना में अधिक नियोजित तथा संगठित था तथापि इस आंदोलन की अनेक कमजोरियाॅ थी, जेसे सांप्रदायिक उन्माद तथा धर्माधता। इसके बावजूद वहाबियों ने हिन्दुओं विरोध कभी नहीं किया वहाबी आंदोलन निःसदेंह भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराना चाहता था। परंतु इस आंदोलन का उद्देश्य भारत के लिए स्वतत्रंता प्राप्त करना नहीं बल्कि मुस्लिम शासन की पुनस्र्थापना करना था। सन् 1870 के आसपास अंगे्रजों द्वारा इस आंदोलन का दमन कर दिया गया।
कूका विद्रोह (Kuka Revolt, 1860-70)
कूका आंदोलन तथा वहाबी आंदोलन में समानता इन अर्थों में थी कि दोनो ही धार्मिक आंदोलन के रूप में आरम्भ हुए और दानों ही बाद में ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में परिवर्तित हो गये जिनका एकसमान उद्देश्य अंगे्रेजों को भारत से बाहर निकालना था। सन् 1840 में भगत जवाहर मल (सियान साहब) ने कूका आदोलन की शुरूआत पश्चिम पंजाब से की। इस आन्दोलन का उदेश्य सिख धर्म में व्याप्त बुराइयों का उन्मूलन कर उसे शुद्ध करना था। सियान साहब और उनके शिष्य बालक सिंह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा पं्रात में हाजरों को अपना मुख्यालय बनाया। कालंातर में सिख प्रभुसत्ता को पुनस्र्थापित करना ही कूका आंदोलन का प्रमुख उदेश्य बन गया। सन् 1863-72 के बीच अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबा दिया तथा आंदोलन के प्रमुख नेता रामसिंह को रंगून भेज दिया।
अपदस्थ षासकों का आंदोलन (Movements of the Dismissed Rulers)
अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियो, यथा वेलेजली की सहायक संधि डलहौजी के राज्य विलय की नीति एवं ब्रिटिश राज्य प्रणाी का विवरण निम्नलिखित है-
वंलूथप्पी का विद्रोह (Veluthampi Revolt, 1808-1809)
वंलूथप्पी त्रावणकोर (केरल) का दीवान था। पद से हटाए जाने और राज्य पर भारी वित्तीय बोझ डाले जाने के खिलाफ उसने विद्रोह कर दिया। अंगे्रजोंसे हुई लड़ाई में वंलूथप्पी घायल हो गया और जंगल की ओर भाग गया जहाॅ उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद अंगेे्रजी सेपा ने उसे सार्वजनिक रूप से फाॅसी पर लटका दिया।
किट्टूर चेन्नमा का विद्रोह (Kottur Chennamma Rebellion, 1824-1829)
सन् 1824 में किट्टूर (आधुनि कर्नाटक में स्थित) के स्थानीय शासक की मृत्यु केबाद अंगे्रेजों ने गोद लिये गये किट्टूर के उत्तराधिकारी शासक को मान्यता नहीं दी और प्रशासन अपने नियंत्रण में ले लिया। राजा की विधवा चेन्नमाने रायप्पा नामक स्थानीय सरदार की मदद से विद्रोह कर दिया। अंगेजों ने विद्रोह को बर्बरतापूर्ण तरीके से दबा दिया और रायप्पा को फाॅसी देदी तथा चेन्नमा को कैद कर लिया जहाॅ जेल में उसकी मृत्यु हो गई |
विशाखापत्तनम का विद्रोह (Visakahapatnam Revolt, 1827-30)
विशाखापत्तनम जिले में अपनी संपत्ति जब्तकर लिए जाने तथा लगान का भुगतान न किये जाने के कारण सरकार द्वारा कठोर तरीके अपनाये जाने के विरोध में स्थानीय जमीदारों ने सन् 1827-30 के बीच अनेक विद्रोह किए। कालांतर में सरकार ने इन सभी विद्रोहों को दबा दिया।
अपदस्थ शासकों के आश्रितों के विद्रोह (Revolts by Dependents of the Dismissed Rulers)
ब्रिटिश भारत में अपदस्थ शासकों के आश्रितों ने भी राज्य की पुनप्र्राप्ति के लिए विद्रोह किए। इनमें प्रमुख विद्रोह निम्नलिखित है-
रामोसी विद्रोह (Remosi Revolt, 1822-1826):
रामोसी मराठा राज्य के अधीनस्थ कर्मचारी थे, जिन्हें मराठा राज्य के पतन के उपरांत कृषि को रोजगार के रूप में अपना लिया था। अत्यधिक लगान-निर्धारण तथा वसूली के कष्टदायी तरीकों के विरोध में उन्होेंने 1822 में विद्रोह कर दिया। इसी बीच सन् 1825-26 में अकाल पड़ने के कारण उमा जी के नेतृत्व में उन्होंने पुनः विद्रोह किया। ब्रिटिश सरकार ने उनके अपराधों को माफ कर दिया तथा भूमि-अनुदान देने के साथ-साथ उन्हें पर्वतीय पुलिस में भर्ती भी किया।
गड़कारी विद्रोह (Godkari Revolt) (1844)
गड़कारी विद्रोह मराठों के दरबार में काम करने वाले पुश्तैनी कर्मचारी थे। मराठा सेना से सेवा मुक्त किये जाने तथा कृषि भूमि को मामलतदारों के परीक्षण में रखे जाने के विरूद्ध गड़कारी लोगों ने सन् 1844 में कोल्हापुर में विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्ण तरीकों द्वारा इस विद्रोह का दमन किया।
सावंतवादी विद्रोह (Savantwadi Revolt) (1844):
मराठा सामंत सावंत ने सन् 1844 दक्कन में विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी सेनओ ने इस विद्रोह के विरूद्ध कठोर कार्रवाई की जिसके परिणामस्वरूप ये लोग गोवा चले गये। कालांतर में सांवतवादी विद्रोहियों पर राजद्रोह चलाकर उन्हें कठोर सजाएॅ दी गई।
जनजातीय आंदोलन (Tribal Movements)
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद यहाॅ की जनजातियों का औपनिवेशिक सत्ता के साथ अनेक बार सशस्त्र संघर्ष हुआ। इन संघर्षों का मुख्य कारण ब्रिटिश शासन द्वारा उनकी विशिष्ट भौगोलिक समाजिक आर्थिक एवं संस्कृतिक पंरम्पराओं में हस्ताक्षेप किया जाना था। इन जनजातीय आंदोलनोंका चरित्र अन्य समुदायिक आंदोलनों से इस अर्थ में भिन्न था कि ये अत्यधिक हिंसक बिल्कुल अलग-अलग और एकाकी थे। आलदोलनों विश्लेषण करने पर इस निष्कर्ष पर पहुॅचते है कि इन आन्दोलनों के पीछे कुछ कारण निहित थे, जो इस प्रकार हैं-
- ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद लागू नई भू-राजस्व तथा प्राशासनिक व्यवस्था ने कबीलाई तथा विभिन्न विशिष्ट सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाओं को औपनिवेशिक व्यवस्था शामिल कर दिया। इस नई व्यवस्था नें आदिवासियों के शोषण का एक नया तंत्र स्थापित कर दिया जिसके कारण इन जन जातियों में जबरदस्त असंतोष फैला।
- औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ने अपने हितों के उन्नयन के लिए जमीदारों तथा बिचैलियों वर्ग को बढ़ावा दिया। इस वर्ग ने आदिवासियों को कर के जटिल ढाॅचे में उलझाकर उन्हें उनकी ही भूमि से बेदखल कर दिया। इससे वे औपनिवेशिक शोषण के अंतहीन जाल में फॅस गये।
- आदिवासियों का जंगलों के साथ गहरा भावनात्मक संबंध जनजातीय लोग ने केवल आवश्यक चीजों के लिए जंगलों पर निर्भर थे, बल्कि उनके धार्मिक देवता भी जंगलों में ही निवास करते थे। वे स्थानांतरित खेती भी करते थे। ब्रिटिश की स्थापना तथा उनके द्वारा लागू की गई जंगल नीति से आदिवासियों का यह संबंध समाप्त हो गया। इस कारण ये आदिवासी आक्रोश से भर गये।
- ब्रिटिश शासन की स्थापना के उपरांत आदिवासी क्षेत्रों में इसाई मिशनरियों की गतिविधियाॅ शुरू हो गई, जिसे ब्रिटिश प्रशासन ने भी प्रोत्साहित किया।ये मिशनरियाॅ समाज सुधार, शिक्षा-प्रसार आदि के नाम पर जनजातीय इलाकों में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया करती थीं। अतः मिशनरियों की इन गतिविधियों के कारण उनके पारंपरिक धर्म और संस्कृति को क्षति पहुंची जिसके फलस्वरूप आदिवासियों ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।
- ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत पुलिस एवं अन्य छोट-छोटे अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों, शोषण और जबरन वसूली के कारण आदिवासियों का जीना कष्टप्रद हो गया था। लगान वसूलनेवाले महाजन, सरकारी आधिकारी आदि ने उनका जमकर शोषण किया तथा उन्हें बेगार ;थ्वतबमक संइवनतद्ध करने के लिए मजबूर किया, जिसकी परिणति अंततः विद्रोह के रूप में प्रकट हुई।
जनजातीय आंदोलन का स्वरूप (Nature of Tribal Movements)
यद्यपि सभी जनजातीय अथवा आदिवासी आंदोलनों की पृष्ठभूमि एकसमान थी, किन्तु इन आन्दोलनों के समय तथा इनके द्वारा उठाये गये मुद्दों में पर्याप्त भिन्नता थी। कुॅवर सुरेश सिंहने इन आदोलनों को तीन चरणों में विभाजित किया है- प्रथम चरण 1795 से 1820 के बीच का था। इस समय अंग्रेजी शासन- व्यवस्था युवावस्था की ओर बढ़ रही थी। दूसरा चरण 1860ण् से 1920 तक रहा। इस चरण के दौरान आदिवासी आंदोलनों की प्रवत्ति अलगाववादी आंदोलनों की बजाय राष्ट्रवादी तथा कृषक आंदोलनों में भाग लेने की रही। इसके अलावा दोनों चरणों में नेतृत्व के स्तर पर भी भिन्नता थी। जहाॅ प्रथम चरण के नेता आदिवासी समाज के ऊपरी वर्गोें के थे, वहीं दूसरे चरण के नेता इसके निचले वर्गाें के थे। तीसरे चरण में प्रथम तथा द्वितीय चरण की बजाय अधिक परिपक्वता दिखाई पड़ती है। इस दौरान आदिवासी आंदोलनों में राष्ट्रीय आंदोलन के साथ मिलकर काम करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। साथ ही, इन आंदोलनों का नेतृत्व शिक्षित आदिवासियों तथा गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर गैर-जनजातीय लोगों यथ उल्लूरी सीता राम राजू जैसे व्यक्तियों ने किया। जनजातीय मुद्दों के आधार पर इनको चार शीर्षकों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- जतीय आंदोलन (Ethnic Movements)
- सुधारवादी आंदोलन (Reform Movements)
- कृषि और वन-आधारित आंदोलन (Agriculture and Forest-baseds Movements)
- राजनीतिक आंदोलन (Political Movements)
मोटे तौर पर देखने पर उक्त वर्गीकरण विशिष्ट तथा अलग-अलग मुद्दों एवं भिन्न वर्गोंे को समेटे हुए दिखाता है, किंतु सूक्ष्म विश्लेषण करनेपर हम पाते हैं कि आंदोलनों का यह चरण क्रमिक विकास को दर्शाता है। निष्कर्ष है। निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है वर्गीकरण के बावजूद ये सभी आंदोलन एक-दूसरे से संबद्ध हैं। हर हाल, ये सभी अपने उद्देश्यों की पूर्ति में स्थूलतः विफल ही रहे।
जनजातीय आंदोलनों की कमजोरियाॅ (Weaknesses of Tribal Movements)
जनजातीय आंदोलनों का असफलता के कारणों का अध्ययन करने पर हम इनमें अनेक खामियाॅ और कमजोरियाॅ पाते हैं। जो कि निम्नलिखित है।
- दूर-दृष्टि या भविष्यगत का आभाव।
- राजनीतिक और सामाजिक विकल्प का आभाव।
- औपनिवेशिक व्यवस्था की वास्तविक समझ का आभाव।
- विद्रोह का स्थानीय स्वरूप।
- राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव।
- अंग्रेजों द्वारा बर्बरतापूर्वक दमन।
- इन विद्रोहों का तत्कालिक उद्देश्य केवल शोषणकारी औपनिवेशिक व्यवस्था के अंत तक ही सीमित था। इसके आगे की व्यवस्था की कोई योजना उनके पास नहीं थी।
उपरोक्त सभी कमियों के बावजूद भी ये जनजातीय विद्रोह किसी साम्राज्यवादी शक्ति के विरूद्ध परंपरागत विद्रोह का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते है। यद्यपि ये अंगे्रजों द्वारा कुचल दिये गये, किंतु आदिवासियों के इस संघर्ष ने राष्ट्रीय आंदोलन को न केवल व्यापक सामाजिक आधार दिया, बल्कि उसकी ऊर्जा को भी सही दिशा में निर्देशित किया।
जनजातीय आंदोलनों से जुडे़ कुछ महत्वपूर्ण तथ्य (Some Important Facts Relted to Tribal Movements)
- पहाड़िया विद्रोह(Paharia Revolt): 1770 दशक में राजमहल के पहाड़ी क्षेत्रों (वर्तमान झारखंड) में ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था के विरोध में पहाड़िया विद्रोह हुआ। आदिवासियों के छापामार संघर्ष से परेशान अंग्रेजी सरकार ने सन् में इनसे समझौते कर इनके क्षेत्र को दामनी कोल’ क्षेत्र घोषित कर दिया।
- खोंड विद्रोह (Khond Revolt): चक्रबिसोई के नेतृत्व में सन् 1837-1856 के बीच खोंड विद्रोह हुआ। इसका कारण सरकार की भी भू-राजस्व नीति, आदिवासी क्षेत्रों मे जमींदारों औार साहूकारों की घुसपैठ तथा सरकार द्वारा आदिवासियों पर विभिन्न तरह के प्रतिबंध लगाना था। आगे चलकर राधाकृष्ण दंड ने इसका नेतृत्व किया।
- संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion): बिहार और उड़ीसा के वीरभूमि सिंह भूमि बाकॅूडा मुॅगेर, हजारीबाग और भागलपुर में सन् 1855-56 का संथाल विद्रोह हुआ। इसका प्रमुख कारण साहूकारों, औपनिवेशिक प्रशासकों, बाहरी लोगों (दिकू) तथा व्यापारियों द्वारा उनका शोषण एवं उत्पीड़न था। इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू नामक दो संथाल भाइयों ने किया। इस विद्रोह की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश नियंत्रण लगभग समाप्त हो गया। सरकार को संथालों के विद्रोह पर नियंत्रण रखने के लिये मार्शल लाॅ लागू करना पड़ा तथा इनके विद्रोही नेताओं के लिए 10 बजार का इनाम घोषित किया गया। सिद्धूको अगस्त 1855 और कान्हू को फरवरी 1856 में पकड़े जाने के बाद मार डाला गया।
- भील विद्रोह(Bhil Revolt): राजस्थान की भील जनजाति ने बधुआ मजदूरी ;ठंदकमक स्ंइवनद्ध के खिलाफ गोविन्द गुरू के नेत्रत्व में विद्रोह किया। सन् 1913 तक यह आंदोलन इना प्रचंड हो गया कि विद्रोही भलों ने भीलराज स्थापित करने का संकल्प ले लिया। ब्रिटिश सेना के काफी प्रयत्न के बाद ही इस विद्रोह को कुचला जा सका।
- बस्तर का विद्रोह (Bastar Revolt): सन् 1910 में बस्तर के राजा के विरूद्ध जगदलपुर क्षेत्र में विद्रोह हुआ, जिसका दमन ब्रिटिश सेना ने किया। इस विद्रोह का मुख्य कारण वन अधिनियमों का क्रियान्वयन और सामन्ती करों का करारोपण था।
- कोया विद्रोह (Koya Revolt) : आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी में कोया विद्रोह आरंभ हुआ तथा उड़ीसा के मल्लकागिरी जिले तक फैला। सन् 1879-80 में टोम्मा-सोरा ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। पुलिस ने सोरा को गोली मार दी, जिससे यह विद्रोह खत्म हो गया। सन् 1886 में दूसरा कोया विद्रोह राजा अनंतशय्या के नेत्त्व में हुआ। इस विद्रोह में अनंतशय्या ने रामसंडु राम की सेना का गठन किया तथा जयपुर के महाराज से अंग्रेजों का शासन खत्म करनेके लिए सहायता माॅगी।
- मुंडा विद्रोह(Munda Rebellion): छोटानागपुर क्षेत्र में बिरसा मुंडा के नेतृत्व सन् 1899-1900 में उल्गुलन (महाविद्रोह) हुआ। मुंडारी भूमि-व्यवस्था की गैर-सामंतवादी, दमींदारी या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व वाली भूमि-व्यवस्था में परिवर्तन के विरूद्ध विद्रोह की शुरूआत हुई और बाद में इसका परिवर्तन बिरसा के धार्मिक व राजनीतिक आंदोलन के रूप में हो गया। बिरसा की लोकप्रियता का मूल कारण उसकी औषधीय चिकित्सीय शक्तियाॅ थी, जिनके द्वाराअपने समर्थकों को अमर बना देने का दावा करता था। अंगे्रजों के बर्बरतापूर्ण दमन के द्वारा ही इस विद्रोह को समाप्त किया जा सका। अंततः बिरसा मुंडा पराजित हुआ तथा कैद कर लिया गया, जहाॅ जेल में उसकी मृत्यु हो गई। इस विद्रोह के बाद अंग्रेजों द्वारा छोटानागपुर काश्तकारी कानून बनाकर कृषकों के अधिकारों को मान्यता दे दी गई और बेगारीया बंधुआ मजदूरी प्रतिबंध दिया गया।
- ताना भगत आन्दोलन (Tana Bhagat Movement): प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् छोटानागपुर (झारखण्ड) क्षेत्र में ताना भगत आंदोलन की शुरूआत हुई। आदिवासी नेत्त्व में यह आन्दोन एक प्रकार का संस्कृतिकरण आंदोलन था। इन आदिवासी आंदोलनकारियों को गांधीवादी समर्थकों ने अपने रचनात्मकों ने अपने रचनात्मक कार्यों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ दिया। सरकार ने इस आंदोलन के विरूद्ध प्रायः दमनकारी तरीके अपनाए।
- रम्पा विद्रोह(Rampa Revolt): आंध्रप्रदेश के गोदावारी जिले के उत्तर में स्थित रम्पा क्षेत्र में साहूकारों के शोषण और वन कानूनों के खिलाफ आदिवासियों ने विद्रोह किया। इस विद्रोह के नेता अल्लूरी सीताराम राजू थे,जो एक गै-आदिवासी थे और जिन्होंने ज्योतिश और चिकित्सीय उपचार संबंधी शक्तियों से युक्त होने का दावा किया इन्होनें शीघ्र ही लोकनायक की छवि धारण कर ली। राजू गांधीवादी थे, लेकिन आदिवासी कल्याण के लिए हिंसा को जरूरी समझतेे थे। वे बंदूक की गोलियों की बौछार से स्वयं के अभेद्य होने का दावा करते थे। मई 1924 में पुलिस द्वारा अल्लूरी सीताराम राजू की हत्या के साथ ही विद्रेाह को शांत किया गया।
- खासी विद्रोह (Khasi Revolt): बर्मा युद्ध के परिणामस्वरूप कंपनी द्वारा खासी और जयंतिया पहाड़ी पर नियंत्रण के बाद ब्रम्हपुत्र और सिलहट को जोड़ने के लिए एक सड़क बनाने की योजना बनाई गई। सड़क निर्माण के लिये मजदूरों की बलपूर्वक भर्ती किये जाने के कारण खासियों ने अपने सरदार तीरत सिंह के नेतृत्व में विद्रोह शुरू कर दिया। आखिरकार, 1833 में इस विद्रोह को दबा दिया गया।
- अहोम विद्रोह (Ahom Revolt): असम के अहोम जनजाति ने बर्मा युद्ध के बाद सन् 1828 में कंपनी द्वारा उनके क्षेत्र वापस न किये जाने के कारण गोमधर कुॅवर नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
- नागा आन्दोलन (Naga Movment): रूढिवादिता, अंधविश्वास तथा अतार्किक रीति-रिवाजों को समाप्त करके प्राचीन धर्म के उन्नति के लिए नागालैंड के एक युवा नेता रोंगमेई जदोनांग ने एक शक्तिशाली नागा आंदोलन का संगठन किया, जिसका लक्ष्य नागा राज्य की स्थापना करना था। अगस्त 1931 में जदोनांग को गिरफ्तार कर उसे फाॅसी पर चढ़ा दिया गया। जदोनांग को फांसी देने के पश्चात् इस आन्दोलन का नेतृत्व सन्- 1932 तक 17 वर्षीय नागा बालिका गौडिनलियू ने,किया इस आन्दोलन को गौडिनलियू ने सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement) के साथ जोड़कर इसे राष्ट्रीय स्वरूप दे दिया। गौडिनलियू को जवाहर लाल नेहरू एवं आजाद हिन्द फौजने ’रानी’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। गौडिलियू ने जदोनांग के धार्मिक विचारों के आधार पर हेर्का पंथ की स्थापना की।