ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह 1857 (Revolts Against British Empire)
भारत के इतिहास में 1857 का विद्रोह एक युगांतकारी घटना मानी जाती है। सन् 1757 की प्लासी की लड़ाई और 1857 के विद्रोह के बीच ब्रिटिश शासन ने अपने 100 वर्ष पूरे कर लिये थे। इन 100 वर्षों में कई बार ब्रिटिश सत्ता को चुनौतियाँ मिलीं, किंतु 1857 का विद्रोह एक ऐसी चुनौती थी जिसने भारत में अंग्रेजों शासन की जड़ों को हिलाकर रख दिया।
विद्रोह का स्वरूप (Nature of the Revolt)
सन् 1857 के विद्रोह के संबंध में भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किए गए हैं। साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने एकपक्षीय तर्क देते हुए इसे सिर्फ ’सैनिक विद्रोह’ की संज्ञा दी है तो कुछ ने इसे दो नस्लों अथवा दो धर्मों का युद्ध बताया है। इस मत के विरूद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इसे ’राष्ट्रीय विद्रोह’ की संज्ञा दी है तो किसी ने इसे ’स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम युद्ध’ बताया है। तथापि, इस विद्रोह के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए तथा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व इन सभी अवधारणों की तथ्यों के साथ तार्किक व्याख्या आवश्यक होगी।
वस्तुतः 1857 का विद्रोह एक सिपाही विद्रोह के रूप में प्रारम्भ हुआ। अतः साम्राज्यवादी विचारधारा के इतिहासकार सर जाॅन लारेंस एवं सर जाॅन सीले ने इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है, परंतु यह व्याख्या तार्किक प्रतीत नहीं होती। निःसंदेह, इस विद्रोह का प्रारंभ सिपाहियों ने किया, परंतु सभी स्थानों पर यह सिर्फ सेना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें जनता के हर तबके की हिस्सेदारी रही। अवध और बिहार के कुछ इलाकों में तो इसे पूरा जन-समर्थन मिला। इंग्लैण्ड के रूढ़िवादी नेता बैंजामिन डिजरायली ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय विद्रोह कहा, किंतु उनका यह मानना भी तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि उस समय भारत किसी राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं था, बल्कि वह जन-असंतोष, निष्ठा एवं उद्देश्यों के आधार पर विभाजित था।
एक अन्य साम्राज्यवादी इतिहासकार एल0आर0 रीस ने इसे धर्मांधों का ईसाई धर्म के विरूद्ध युद्ध बताया है, किन्तु उनके इस तथ्य में सत्य का अंश ढूँढ़ना मुश्किल ही होगा। यद्यपि इस संघर्ष में भिन्न-भिन्न धर्म के मानने वालों ने दोनों ओर से युद्ध किया तथा अपनी कमियों एवं अन्यायों को छुपाने के लिए धर्म का सहारा लिया, तथापि विद्रोह के अंत में निश्चय ही ईसाई जीते, न कि ईसाई धर्म। एक अन्य विद्वान टी0आर0 होम्स की अवधारणा, जिसके अनुसार उन्होंने इस युद्ध को बर्बरता और सभ्यता के बीच युद्ध कहा है, भी तार्किक प्रतीत नहीं होती क्योंकि इसमें संकीर्ण जाति-भेद झलकता है। दूसरी ओर, 1857 के संघर्ष में अंग्रेजी सेना नायक सर जेम्स आउट्रम और टेलर ने इस विद्रोह को हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम बताया है। इनका मानना था कि यह विद्रोह मूलतः मुस्लिम षडयंत्र था, जिसमें हिन्दुओं की
शिकायतों का लाभ उठाया गया। बहरहाल, विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि यह व्याख्या तर्कसंगत नहीं हैं क्योंकि बहादुरशाह जफर ने तो इस विद्रोह को केवल नेतृत्व प्रदान किया था, जिसका कारण महज इतना था कि वे मुगल साम्राज्य के सांकेतिक प्रतीक थे।
इस विद्रोह को भारत के राष्ट्रीय नेताओं एवं राष्ट्रीय इतिहासकारों ने राष्ट्रीय विद्रोह बताने की कोशिश की, ताकि इसके माध्यम से राष्ट्रवादी विचार को जाग्रत किया जा सके। इस दिशा में शुरुआत वी. डी. सावरकर द्वारा की गई, जिन्होंने इसका वर्णन ’सुनियोजित राष्ट्रीयता स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में किया तथा इसे सिद्ध करने का प्रयास किया। उनके अनुसार 1826-1827, 1830-31 और 1848 के विद्रोहों की श्रृंखला 1857 में होने वाली घटना का पूर्व-संकेत मात्र थी। डाॅ. एस. एन. सेन अपनी पुस्तक ’एट्टीन फिफ्टी सेवन’ (Eighteen Fifty Seven) में आंशिक रूप से इस मत से सहमत होते हुए कहते हैं-’’जो कुछ धर्म के लिए लड़ाई के रूप में शुरू हुआ, वह स्वतंत्रता संग्राम के रूप में समाप्त हुआ।’’ दूसरी ओर, इस मत के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए डाॅ. आर. सी. मजूमदार कहते हैं-’’तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय संग्राम ने तो पहला, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था।’’ बरहाल, सभी मतों का विश्लेषण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निश्चित रूप से यह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था क्योंकि देश का बहुत बड़ा हिस्सा तथा जनता के अनेक वर्गों ने इसमें भाग नहीं लिया था। इसके अतिरिक्त, विद्रोह में शामिल विभिन्न नेताओं के उद्देश्य समान नहीं थे और 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में राष्ट्रवाद एवं स्वतंत्रता के बीज प्रस्फुटित नहीं हो पाये थे।
सन् 1857 के विद्रोह की व्याख्या माक्र्सवादी इतिहासकारों ने ब्रिटिश एवं सामंती के आधिपत्य के विरूद्ध सैनिकों एवं किसानों के संयुक्त विद्रोह के रूप में की है। यह मत भी तथ्यों के विपरीत है, विशेष रूप से इसलिए कि विद्रोह के नेता स्वयं सामंत वर्ग के थे।
यदि हम इस विद्रोह का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इसके स्वरूप को स्पष्टतः वर्गीकृत करना संभव नहीं है। निस्संदेह, यह साम्राज्य-विरोधी और राष्ट्रवादी स्वरूप का था क्योंकि हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों ने इसमें एक साथ भाग लिया था। इस प्रकार, इसे एक सामान्य सैनिक असंतोष, कृषक आंदोलन अथवा अभिजात्य विद्रोह करार देकर इसके महत्व को कम नहीं किया जा सकता। वस्तुतः यह माना जा सकता है कि 1857 का विद्रोह भारतीय राष्ट्रवाद की शुरुआती अभिव्यक्ति थी, जो आगे चलकर पूर्णतः भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में परिणत हो गयी।
विद्रोह के कारण (Causes of the Revolt)
इतिहासकारों में 1857 के विद्रोह के कारणों के बारे में भी काफी विवाद है। अधिकांश इतिहासकारों, जिनमें भारतीय तथा साम्राज्यवादी इतिहासकार दोनों हैं, ने इस विद्रोह के कारणों का एकपक्षीय विश्लेषण करते हुए, इस विद्रोह के कारणों को सैनिक की शिकायतों अथवा चर्बीयुक्त कारतूसों जैसी घटना के बीच किसी एक कारण के रूप में ढूँढ़ना उचित नहीं होगा। समग्र रूप से विश्लेषण करने के उपरांत हम इस विद्रोह के पीछे अनेक कारण पाते हैं। इस विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
राजनीतिक कारण (Political Causes):
डलहौजी की ’व्यपगत नीति तथा वेलेजली की ’सहायक संधि’ ने विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लाॅर्ड डलहौजी ने व्यपगत नीति के द्वारा सँभलपुर, जैतपुर, नागपुर, झाँसी, सतारा आदि राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। साथ ही, अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से उतार देना, तंजौर और कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपाधियाँ जब्त कर लेना, मुगल बादशाह को अपमानित करने के लिए उन्हें नजराना देना, सिक्कों पर नाम खुदवाना आदि परंपराओं को डलहौजी द्वारा समाप्त करवा दिया जाना तथा बादशाह को लालकिला छोड़कर कुतुबमीनार में रहने का हुक्म दिया जाना आदि घटनाओं ने 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की। मुगल बादशाह भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करता था, इसलिए उसके अपमान में जनता ने अपना अपमान समझा और विद्रोह के लिए तैयार हो गए।
भारतीय जनता यह समझने लगी थी कि भारतीय क्षेत्रीय राज्यों का अस्तित्व खतरे में हैं। वे यह भी अनुमान लगाने लगे थे कि उनकी स्वतंत्रता केवल कुछ ही समय की बात है। भारतीय जनता यह महसूस करने लगी थी कि उन पर ब्रिटेन से शासन किया जा रहा है और देश का धन इंग्लैंड भेजा जा रहा है।
प्रशासनिक कारण (Administrative Cause):
अनेक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दुष्परिणाम भारतीय राज्यों के ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के फलस्वरूप सामने आये थे। अंग्रेजों की कुटिल नीति के कारण दरबारों में रहने वाले परंपरागत एवं वंशानुगत कर्मचारियों एवं अधिकारियों को उच्च पद पाने से रोका ही नहीं गया, बल्कि सभी उच्च प्रशासनिक एवं सैनिक पद यूरोपीय लोगों के लिए आरक्षित कर दिये गये। इसने व्यापक जन-असंतोष को जन्म दिया। चूँकि ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन को भारतीय सामाजिक संरचना के बारे में जानकारी नहीं थी, अतः कंपनी की वाणिज्यिक नीतियों का परंपरागत भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के साथ टकराव होता रहता था। कंपनी की भू-राजस्व व्यवस्था ने अधिकांश अभिजात वर्ग को निर्धन बना दिया। कंपनी की भिन्न-भिन्न भू-राजस्व व्यवस्थाओं, यथा-स्थायी बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था और महालवाड़ी व्यवस्था द्वारा किसानों का जबर्दस्त शोषण किया गया जिससे वे निर्धनता के शिकार हो गये। नई व्यवस्था द्वारा कई तालुकदारों (बड़े जमींदारों) से उनका पद और जमीन छीन लिये गये। अंग्रेजों की व्यवस्था ने अभिजात वर्ग को निर्धन बना दिया तथा किसानों को ऋण के दुष्चक्र में फँसा दिया। इन सारी बातों ने असंतोष पैदा करने में अपनी महत्व भूमिका निभायी।
सामाजिक और धार्मिक कारण (Social and Religious Causes) :
ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किए जा रहे सुधारवादी उपायों ने परंपरागत भारतीय जीवन-प्रणाली को झकझोर कर रख दिया। इससे भारतीय संस्कृति पर संकट के बादल मंडराने लगे, जिसका रूढ़िवादियों ने जमकर विरोध किया। ईसाई मिशनरियों को सन् 1813 के चार्टर अधिनियम (Charter Act, 1813) द्वारा भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति मिल गई। ऐसे में ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा अपनाये जाने वाले उपाय, यथा बलपूर्वक धर्मांतरण तथा भारतीय संस्कृति पर किये जाने वाले भावनात्मक हमलों ने भारतीय जनमानस की संवेदनाओं एवं भावनाओं को आहत किया। उन्होंने उत्तराधिकार एवं दायभाग जैसे संवेदनशील विषयों पर भी पंडितों एवं मौलवियों के विचारों को चुनौती दी। हिन्दू रीति-रिवाजों में सन् 1856 के धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम (Religious Disabilities Act, 1856) द्वारा संशोधन किया गया। इसके द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले लोगों को अपनी पैतृक संपत्ति का हकदार माना गया, साथ ही उन्हें नौकरियों में पदोन्नति तथा शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की सुविधा प्रदान की गई। अंग्रेजों द्वारा अपनायी जाने वाली इन भेदभावपूर्ण नीतियों ने भारतीयों को अंततोगत्वा विद्रोह के लिए मानसिक रूप से तैयार कर दिया।
सैनिक कारण (Military Causes) :
सन् 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में सैनिक कारण भी मौजूद थे। अंग्रेजी सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों में अधिकांश भारतीय या तो जवान थे अथवा सूबेदार से ऊपर किसी भी पद पर नहीं थे। पदोन्नति से वंचित वेतन की न्यून मात्रा, भारत की सीमाओं से बाहर युद्ध के लिए भेजा जाना तथा समुद्र पार जाने पर भी भत्ता न देना आदि ऐसे प्रमुख कारण थे जिन्होंने भारतीय सैनिकों में असंतोष को बढ़ावा दिया। सन् 1854 में डाकघर अधिनियम (Post Office Act, 1854) पारित कर सैनिकों को प्राप्त निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गयी तथा सन् 1856 में लाॅर्ड कैनिंग द्वारा सेना भर्ती अधिनियम पारित कर सैनिकों को समुद्र पर ब्रिटिश उपनिवेशों में सेवा करना अनिवार्य कर दिया गया। चूँकि समुद्र पार जाना तत्कालीन भारतीय समाज में धर्म के विरूद्ध समझा जाता था, इसलिए इससे सैनिकों का गुस्सा भड़क उठा।
तत्कालिक कारण एवं विद्रोह की शुरुआत (Immediate Causes and Beginning of the Revolt) :
– ब्रिटिश शासन ने 1856 में सैनिकों के लिए ब्राउनबैस की जगह एनफील्ड रायफ़ल के प्रयोग का फैसला किया। प्रयोग करने से पूर्व कारतूस के ऊपरी भाग को मुँह से खींचना पड़ता था। जनवरी 1857 में यह अफ़वाह फैल गई कि कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी लगी है। इस अफ़वाह से हिन्दू और मुसलमान दोनों भड़क गये। फलतः 29 मार्च, 1857 को 34वीं रेजीमेंट बैैरकपुर के सैनिक मंगल पांडे ने विद्रोह की शुरुआत कर दी। उसने लेफ्टिनेंट वाघ तथा मेजर सार्जेण्ट ह्यूसन की मुर्शिदाबाद के निकट गोली मार दी। इस घटना में लेफ्टिनेंट वाघ की मृत्यु हो गई। अतः मंगल पांडे को 8 अप्रैल, 1857 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया और 34वीं रेजीमेंट को भंग कर दिया गया। 24 अप्रैल, 1857 को मेरठ में तैनात घुड़सवार सेना के लगीाग 90 सिपाहियों ने चर्बी लगे कारतूसों का इस्तेमाल करने से मना कर दिया। इनमें से 9 मई, 1857 को 85 सिपाहियों को बर्खास्त कर 10 वर्ष की सजा सुनाई गई। इसके विरोध-स्वरूप मेरठ में तैनात ब्रिटिश सेना के भारतीय सिपाहियों ने 10 मई, 1857 को विद्रोह कर दिया। तदोपरांत, 11 मई को मेरठ के विद्रोही दिल्ली पहुँचे और 12 मई, 1857 को उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
विद्रोह का प्रसार (Expansion of the Revolt) :
10 मई, 1857 को मेरठ स्थित छावनी के 20-NI तथा 3-LC की पैदल सैन्य टुकड़ी ने विद्रोह का आरम्भ किया। शीघ्र ही उसने देश के अन्य क्षेत्रों को अपने प्रभाव में ले लिया। उत्तर-मध्य प्रांत और अवध (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में विद्रोह ने विकट रूप धारण कर लिया। देश के लगभग प्रत्येक भाग में इसका प्रभाव देखा गया, किंतु मद्रास इससे अछूता ही रहा। 12 मई, 1857 को विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। यह घटना विद्रोहियों के लिए मनोबल बढ़ाने वाली थी। विद्रोहियों के लिए दिल्ली पर अधिकार मनौवैज्ञानिक बढ़ती गई, वहीं अंग्रेजों के लिये यह भारत में उनके अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न था। अंग्रेजों ने सर्वप्रथम दिल्ली पर अधिकार करने के लिये प्रयास आरंभ किये। आरंभ में विद्रोहियों का नेतृत्व मुगल शहजादे कर रहे थे, परंतु 3 जुलाई, 1857 को नेतृत्व की कमान बख्त खाँ के हाथों में आ गई, किंतु वास्तविक सत्ता सिपाहियों के हाथ में ही रही। दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार 20 सितंबर, 1857 को पूरी तरह हो गया। इस संघर्ष में ब्रिटिश सेनानायक जाॅन निकोलसन मारा गया। लेफ्टिनेंट हडसन ने मुगल सम्राट के दो पुत्रों मिर्जा मुगल एवं मिर्जा खिज्र सुल्तान और पोते मिर्जा अबुबक्र को दिल्ली के लालकिले के सामने गोली मार दी। फिर उसने हुमायूँ के मकबरे से बहादुरशाह द्वितीय को गिरफ्तार कर लिया तथा निर्वासित कर रंगून भेज दिया, जहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई।
4 जून, 1857 को लखनऊ में विद्रोह आरंभ हुआ। ब्रिटिश रेजिडेण्ट हेनरी लारेंस, जिसने यूरोपीय नागरिकों के साथ रेजीडेंसी में शरण ली थी, विद्रोहियों द्वारा मारा गया। लखनऊ को पुनः जीतने के हैबलाक और आउट्रम के प्रयास निष्फल रहे, परंतु नवंबर 1857 में नये सेनापति सर काॅलेन कैम्पबेल ने गोरखा रेजीमेंट की सहायता से लखनऊ पर पुनः कब्जा कर लिया।
5 जून, 1857 को कानपुर में विद्रोह की शुरुआत हुई। यहाँ पर पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब (धोंधूपंत) ने विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया, जिसमें उनकी सहायता तात्या टोपे (रामचंद्र पांडुरंग) ने की। 16 दिसंबर, 1857 को जनरल हैबलाॅक तथा जनरल नील ने कानपुर पर अधिकार कर लिया। नाना साहब अंततः नेपाल चले गये तथा तात्या टोपे को ग्वालियर के सिंधिया महाराज के सामंत मानसिंह ने अप्रैल 1859 में धोखे से अंग्रेजों को पकड़वा दिया और ग्वालियर में इन्हें फाँसी दे दी गई।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (गंगाधर राव की विधवा) अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अंग्रेजों द्वारा वैधता न दिए जाने से गुस्से में थीं। अंतः उन्होंने 5 जून, 1857 को विद्रोह आरंभ कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई का सामना पर ह्यूरोज ने किया। लक्ष्मीबाई युद्ध करती हुई कालपी जा पहुँचीं। यहाँ भी वे ह्यूरोज की सेना से पराजित हुईं तथा यहाँ से चलकर ग्वालियर पहुँचीं। सिंधिया, जो कि अंग्रेज समर्थक था, की सेना विद्रोहियों से मिल गई, जिसकी सहायता से रानी ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज सेनापति स्मिथ तथा ह्यूरोज की सम्मिलित सेनाओं ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया और यहीं 17 जून 1858 को रानी की वीरगति प्राप्त हुई। अंततः ग्वालियर पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
खान बहादुर खान ने बरेली में विद्रोहियों का नेतृत्व किया और अपने आपको नवाब घोषित कर दिया। यहाँ के विद्रोह का दमन केम्पबेल ने किया और खान बहादुर खान को फाँसी की सजा हुई। फैजाबाद में विद्रोह का नेतृत्व मौलवी अहमदुल्ला ने किया। अहमदुल्ला का विद्रोह इतना आघातकारी था कि अंग्रेजों ने इसे पकड़ने के लिए 50 हजार रूपये का नकद इनाम घोषित कर दिया। रोहेलखण्ड की सीमा पोबायाँ में 5 जून, 1858 को अहमदुल्ला की गोली मारकर हत्या कर दी गई। जगदीशपुर (आरा, बिहार) में वहाँ के प्रमुख जमींदार कुँवर सिंह ने विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया। इन्होंने अंग्रेजों को बहुत हानि पहुँचायी, किन्तु जख्मी हो जाने के कारण 26 अप्रैल, 1858 को इनकी मृत्यु हो गई। असम में विद्र्रोह की शुरुआत वहाँ के दीवान मणिराम दत्त को फाँसी हो गई। उड़ीसा में संभलपुर के राजकुमार सुरेन्द्रशाही और उज्ज्वल शाही विद्रोहियों के नेता बने। सन् 1862 में सुरेन्द्रशाही ने आत्म-समर्पण कर दिया। राजस्थान में कोटा ब्रिटिश-विरोधियों का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ जयदयाल और उसके भाई हरदयाल ने विदोह का नेतृत्व किया, बाद में जयदयाल को तोप से बाँधकर उड़ा दिया गया।
व्यापक जन-समर्थन पाकर 1857 का विद्रोह भारत के बहुत बड़े भू-क्षेत्र में फैल गया था। समाज के लगभग सभी वर्गों की भागीदारी इसमें थी, फिर भी यह संपूर्ण देश या समाज के सभी वर्गों को अपने प्रभाव में नही ला सका। दक्षिणी भारत, पूर्वी तथा पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में यह नहीं फैल सका। इन क्षेत्रों में पहले भी कई विद्रोह हो चुके थे तथा अंग्रेजों ने उनका बर्बरतापूर्व दमन किया था। भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश शासकों तथा बड़े जमींदार वर्ग ने इस विद्रोह में भाग नहीं लिया। उल्टे उन्होंने इस विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय मदद की। इन शासकों में सिंधिया होल्कर, निजाम, जोधपुर के राजा, भोपाल के शासक, पटियाला के जिन्द व नाभा के शासक आदि मुख्य थे। कैनिंग ने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा ’’इन शासकों ने तूफान के आगे बाँध का काम किया, वरना यह तूफान एक ही लहर में हमें बहा ले जाता।’’ मद्रास, बंगाल और बाॅम्बे इस विदोह से प्रभावित नहीं हुए, परन्तु वहाँ की जनता को विद्रोहियांे से सहानुभूति थी। बेदखल जमींदारों को छोड़कर उच्च तथा मध्यमवर्ग के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक बने रहे। संपन्न वर्गों के अधिकांश लोगों ने उनका सक्रिय विरोध किया। बंगाल के जमींदार भी अंग्रेजों के प्रति स्वामीभक्त बने रहे क्योंकि उनका सृजन ही अंग्रेजों द्वारा किया गया था। महाजनों ने भी विद्रोह का विरोध किया क्योंकि वे ग्रामीण जनता और विद्रोहियों के हमले के मुख्य निशाना थे। कलकत्ता, बाॅम्बे और मद्रास के बड़े व्यापारियों ने भी विद्रोह का विरोध किया क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों की सहायता से व्यावसायिक लाभ कमाना था।
भारत में उच्च शिक्षित व्यक्तियों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। वे भारत के पिछड़ेपन को समाप्त करना चाहते थे और उनके मन में यह भ्रम था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के माध्यम से इस काम को पूरा करेंगे। वे यह मानते थे कि जमींदारों सरदारों और सामंतों तत्वों के नेतृत्व में लड़ने वाले विद्रोही देश को सामंतवादी व्यवस्था की ओर ले जाएँगे। अतः इन सभी आधारों पर विद्रोह के दौरान भारतीय समाज में एकता का नितांत अभाव रहा, जो कि विद्रोह के लिए घातक सिद्ध हुआ।