विनिमय दर
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अन्तर्गत अलग-अलग देशों में अलग-अलग मुद्रायें प्रचलित रहती हैं और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रारम्भ करने से पूर्व यह समस्या होती है कि मुद्राओं के बीच विनिमय दर का निर्धारण कैसे किया जाय। किसी मुद्रा की कीमत को अन्य मुद्रा के रूप में व्यक्त करना विनिमय दर कहलाता है।
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विनिमय दर निर्धारण के कई सिद्धान्त हैं-
1. टकसाली सिद्धान्त
2. क्रयशक्ति समता सिद्धान्त
3. भुगतान शेष सिद्धान्त
विनिमय निर्धारण के क्रयशक्ति समता सिद्धान्त को गुस्ताव कैशल में वर्ष 1920 में प्रस्तुत किया। इसके द्वारा दो अपरिवर्ती मुद्राओं के मध्य साम्य विनिमय दर उन देशों की मुद्रा इकाईयों की क्रय शक्तियों के अनुपात द्वारा निर्धारित होती है।
विनिमय निर्धारण का भुगतान शेष सिद्धान्त बताता है कि विनिमय दर का निर्धारण विदेशी मांग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है। विदेशी विनिमय की मांग उधार पक्ष द्वारा जबकि उसकी पूर्ति भुगतान शेष के जमा पक्ष द्वारा की जाती है और जहां विदेशी विनिमय की मांग उसके पूर्ति के बराबर होती है वहीं विनिमय दर निर्धारित होती है। यह विधि विनिमय दर निर्धारण की आधुनिक विधि कहलाती है।
Spot एवं फारवर्ड विनिमय दर :- जब विदेशी विनिमय तत्काल प्रदान की जाती है तो ऐसे प्रचलित विनिमय दर को Spot विनिमय दर कहते हैं परन्तु जब दो पक्षों में इस प्रकार का समझौता हो जिसमें किसी निश्चित भविष्य की निश्चित तिथि पर विनिमय किया जाता हो उसे फारवर्ड विनिमय दर कहते हैं। विदेशी मुद्राओं को इस उद्देश्य से खरीदना तथा विक्रय करना जिससे अलग-अलग बाजारों के विनिमय दर में अन्तर का लाभ उठाया जा सके, आर्विटेज कहलाता है।
हेजर्स :- ये स्वयं को विभिन्न प्रकार के जोखिम से उत्पन्न होने वाली हानि जो विदेशी विनिमय में पायी जाती है से हैजिंग कहलाती है और इन व्यक्तियों को हेजर्स कहा जाता है।
जिस विनिमय दर पर कोई अधिकृत डीलर विदेशी मुद्रा को क्रय करता है उसे विड कहा जाता है और जिस दर पर वह डालर विदेशी मुद्रा को विक्रय करता है उसे आस्करेट कहते हैं।
जब विदेशी विनिमय दर का निर्धारण बाजार में स्वतंत्र रूप से बिना किसी हस्तक्षेप के मांग एवं पूर्ति की सहायता से होता है तो इसे फ्रीफ्लाट कहा जाता है परन्तु जब किसी देश का केन्द्रीय बैंक इस विनिमय दर में हस्तक्षेप करता है तो उसे मैनेज्ड फ्लोट कहते हैं।
विनिमय दर दो प्रकार की होती है-
1. मौद्रिक प्रभावी विनिमय दर (¼NEER)
2. वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (REER)
नीर का तात्पर्य विदेशी विनिमय बाजार पर प्रचलित किसी विदेशी मुद्रा की एक इकाई का घरेलू मुद्रा के रूप में कीमत प्रदर्षित करना है। यदि इसमें मुद्रा स्फीति या मूल्य स्तर में होने वाले परिवर्तनों को समायोजित करें तो इसे रीर कहा जाता है।
सामान्यतः विनिमय दर की दो प्रणालियां हैं-
1. स्थिर विनिमय दर प्रणाली
2. परिवर्तनीय विनिमय दर प्रणाली
जब विनिमय दरें एक स्थिर दर पर निर्धारित की जाती हैं तो उन्हें स्थिर दर विनिमय दर प्रणाली कहा जाता है जबकि बाजार एवं मांग एवं पूर्ति के द्वारा निर्धारित विनिमय दर को परिवर्तनीय विनिमय दर प्रणाली कहा जाता है।
1992-93 ई0 में आर्थिक सुधारों के दौरान व्यापार खाते पर रू0 को आंशिक परिवर्तनीय घोषित किया गया। मार्च 1992 ई0 में उदारीकृत विनिमय दर प्रबन्धन प्रणाली लागू की गयी। मार्च 1993 में व्यापार खाते पर रू0 को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया गया, जबकि फरवरी 1994 में चालू खाते पर रू0 को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया गया। यद्यपि पूंजी खाते पर रू0 आंशिक परिवर्तनीय हो गया है।
रू0 की पूर्ण परिवर्तनीयता का तात्पर्य चालू खाते तथा पंजी खाते पर सभी प्रकार के लेन-देन को पूरा करने के लिए रू0 को किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा में परिवर्तित करने की स्वतन्त्रता हो।
प्रवासी भारतीयों के सम्बन्ध में कुछ जमा योजनायें चलायी गयी। इन योजनाओं में विदेशी करेन्सी Non Resident Account 1993 ई0 में प्रारम्भ किया गया।
Non Resident Reputabil Deposit योजना 1992 में चलायी गयी। ये योजनायें अनिवासी भारतीयों के जमा के सम्बन्ध में हैं।
1 जून 2000 से विदेशी विनिमय प्रबन्धन अधिनियम लागू किया गया जिसने विदेशी विनिमय नियमन अधिनिमय फेरा को प्रतिस्थापित किया। वास्तव में फेरा पूरी तरह से वर्ष 2002 में लागू हुआ।
ADR, GDR :-. भारत सरकार द्वारा जनवरी 2000 में विदेशी पूंजी एकत्रित करने के लिए इन दोनों को जारी करने की अनुमति दी गयी।
हार्ड करेन्सी का तात्पर्य एक ऐसी मुद्रा से होता है जो अन्य मुद्राओं में परिवर्तित हो और जिसके मूल्य के बदलने की प्रत्याशा हो। इसलिए इसे हाॅट मनी कहा जाता है।
ऐसी विनिमय दर जो उन व्यवहारों से सम्बन्धित हैं जिन्हें 3-6 महीने बाद किया जाता है। उन्हें फारवर्ड रेट कहते हैं।
अपने देश की मुद्रा को किसी अन्य देश में जमा कराना अपतटीय जमा कहलाता है। विदेशी व्यापार के अन्तर्गत कोई ऐसा पोर्ट या एयरपोर्ट जहां किसी प्रकार का प्रशुल्क नहीं लगाया जाता है उसे फ्रीपोर्ट कहा जाता है।
वस्तुओं के आयात कई प्रकार के होते हैं आयातों के सम्बन्ध में एक नकारात्मक सूची होती है। कुछ वस्तुयें ऐसी जिनका निर्यात या आयात सम्भव नही है इन्हें निषेधित वस्तुयें कहते हैं। जैसे-हाथी दांत, जानवरों की चर्बी इत्यादि।
कुछ वस्तुयें ऐसी होती हैं जिनका आयात या निर्यात प्रतिबन्धित होता है और विशेष दशाओं में ही मंगाया जा सकता है। जैसे-अफीम इत्यादि। प्रतिबन्धित वस्तुयें कहलाती हैं।
कैनेजलाइज्ड वस्तुओं में निर्यात-आयात की छूट सरकार द्वारा दी जाती है।